अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 17
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
1
ब्र॑ह्म॒चर्ये॑ण॒ तप॑सा॒ राजा॑ रा॒ष्ट्रं वि र॑क्षति। आ॑चा॒र्यो ब्रह्म॒चर्ये॑ण ब्रह्मचा॒रिण॑मिच्छते ॥
स्वर सहित पद पाठब्र॒ह्म॒ऽचर्ये॑ण । तप॑सा । राजा॑ । रा॒ष्ट्रम् । वि । र॒क्ष॒ति॒ । आ॒ऽचा॒र्य᳡: । ब्र॒ह्म॒ऽचर्ये॑ण । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒रिण॑म् । इ॒च्छ॒ते॒ ॥७.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं वि रक्षति। आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मऽचर्येण । तपसा । राजा । राष्ट्रम् । वि । रक्षति । आऽचार्य: । ब्रह्मऽचर्येण । ब्रह्मऽचारिणम् । इच्छते ॥७.१७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (6)
विषय
ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।
पदार्थ
(ब्रह्मचर्येण) वेदविचार और जितेन्द्रियतारूपी (तपसा) तप से (राजा) राजा (राष्ट्रम्) राज्य को (वि) विशेष करके (रक्षति) पालता है। (आचार्यः) आचार्य [अङ्गों, उपाङ्गों और रहस्य सहित वेदों का अध्यापक] (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य [वेदविद्या और इन्द्रियदमन] से (ब्रह्मचारिणम्) ब्रह्मचारी [वेद विचारनेवाले जितेन्द्रिय पुरुष] को (इच्छते) चाहता है ॥१७॥
भावार्थ
ब्रह्मचर्यरूप तपस्या धारण करनेवाला राजा प्रजापालन में निपुण होता है और ब्रह्मचर्य के कारण आचार्य, विद्यावृद्धि के लिये ब्रह्मचारी से प्रीति करता है ॥१७॥मन्त्र १७, १८, १९ स्वामी दयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका वर्णाश्रमविषय पृष्ठ २३७ और मन्त्र १७, १८ संस्कारविधि वेदारम्भ प्रकरण में व्याख्यात हैं ॥
टिप्पणी
१७−(ब्रह्मचर्येण) अ० ७।१०९।७। ब्रह्म+चर गतौ-यत्। आत्मनिग्रहवेदाध्ययनादिना (तपसा) तपश्चरणेन (राजा) (राष्ट्रम्) राज्यम् (वि) विशेषेण (रक्षति) पालयति (आचार्यः) (ब्रह्मचर्येण) (ब्रह्मचारिणम्) वेदाध्ययनशीलं शिष्यम् (इच्छते) अभिलष्यति ॥
पदार्थ
शब्दार्थ = ( ब्रह्मचर्येण ) = वेद विचार और जितेन्द्रियतारूपी ( तपसा ) = तप से ( राजा राष्ट्रं विरक्षति ) = राजा अपने राज्य की रक्षा करता है। ( आचार्यो ) = वेद और उपनिषद् के रहस्य के जाननेवाला अध्यापक आचार्य ( ब्रह्मचर्येण ) = वेदविद्या और इन्द्रिय दमन से ( ब्रह्मचारिणम् ) = वेद विचारनेवाले जितेन्द्रिय पुरुष को ( इच्छते ) = चाहता है।
भावार्थ
भावार्थ = जो राजा इन्द्रियदमन और वेदविचार रूपी ब्रह्मचर्यवाला है, वह प्रजा पालन में बड़ा निपुण होता है, और ब्रह्मचर्य के कारण आचार्य विद्या वृद्धि के लिए ब्रह्मचारी से प्रेम करता है ।
विषय
ब्रह्मचर्य द्वारा 'राष्ट्ररक्षण व शिष्य-निर्माण'
पदार्थ
१. (राजा) = शासक (ब्रह्मचर्येण तपसा) = ब्रह्मचर्यरूप तप के अनुष्ठान से ही (राष्ट्रं विरक्षति) = राष्ट्र का सम्यक् रक्षित करनेवाला होता है। (आचार्य:) = आचार्य भी (ब्रह्मचर्येण) = ब्रह्मचर्य के द्वारा (ब्रह्मचारिणम् इच्छते) = शिष्य को ब्रह्मचारी बनाने की कामना करता है। ब्रह्मचर्य के नियम में स्थित आचार्य को ही ब्रह्मचारी प्राप्त होते हैं।
भावार्थ
ब्रह्मचर्य के द्वारा ही राजा राष्ट्र का रक्षण करता है और इसी से आचार्य ब्रह्मचारियों का निर्माण कर पाता है।
भाषार्थ
(ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य के कारण, तथा (तपसा) तपोमय जीवन के कारण (राजा, राष्ट्रं, विरक्षति) राजा राष्ट्र की विशेष रक्षा करता है। (आचार्यः) आचार्य (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य धारण कर (ब्रह्मचारिणम् इच्छते) शिष्य की अभिलाषा करता है।
टिप्पणी
[राजा - मन्त्र का यह अभिप्राय नहीं कि राष्ट्ररक्षा के लिये राजा को अखण्ड वीर्य(ऊर्ध्वरेतस्) होना चाहिये। मनु के कथनानुसार ऋतुगामी व्यक्ति भी ब्रह्मचारी होता है। अभिप्राय केवल इतना है कि भोगी और विषयी राजा राष्ट्ररक्षा के योग्य नहीं। इस अभिप्राय को सूचित करने के लिये तपसा शब्द का प्रयोग हुआ है। तपस्वी, न भोगरत होता है, न विषयी। आचार्य भी ब्रह्मचारी हो - इस का भी अभिप्राय यही है कि वह गृहस्थ जीवन व्यतीत कर, वानप्रस्थी-ब्रह्मचारी होना चाहिये, तभी तो वह मन्त्र १५ में उक्त प्रजापति सम्बन्धी सदुपदेश ब्रह्मचारी को दे सकता है। साथ ही अनुभवी होने के कारण ब्रह्मचारियों का पालन मातृवत् कर सकता है (मन्त्र ३, १४)। इस भाव को सूचित करने के लिये मन्त्र १६ में "आचार्यो ब्रह्मचारी” आदि द्वारा चातुर्वर्ण्य का कथन किया है]।
विषय
ब्रह्मचारी के कर्तव्य।
भावार्थ
(ब्रह्मचर्येण तपसा) ब्रह्मचर्य रूप तप से (राजा राष्ट्रम्) राजा राष्ट्र की (वि रक्षति) नाना प्रकार से रक्षा करता है। (आचार्यः) आचार्य भी (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य के बल से (ब्रह्मचारिणम्) ब्रह्मचारी को (इच्छते) अपने अधीन व्रत पालन कराना चाहता है।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘वि रक्षते’ (च०) ‘इच्छति’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
विषय
क्षत्रिय पद का विवेचन ब्रह्मचर्य के आधार पर -
मन्त्रार्थ
(राजा ब्रह्मचर्येण तपसा) राजा ही ब्रह्मचर्यरूप तप से सदाचार प्रताप से दीप्त-बलवान् हुआ (राष्ट्र विरक्षति) राष्ट्र की विशेष रक्षा करता है-रक्षा कर सकता है (आचार्य: ब्रह्मचर्येण) आचार्य भी ब्रह्मचर्य से अर्थात् सदाचार से प्रकाशित हुआ (ब्रह्मचारिणम्-इच्छते) ब्रह्मचर्यव्रती शिष्य को चाहता है अङ्गीकार करता है ॥१७॥
विशेष
ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-
इंग्लिश (4)
Subject
Brahmacharya
Meaning
Only by Brahmacharya and austere self discipline does the ruler preserve, protect and promote the social order. Only by Brahmacharya does the Acharya wish to have Brahmachari for his disciple.
Translation
By Vedic-studentship, by fervor, a king defends his kingdom; a teacher by Vedic-studentship (brahmacarya) seeks a Vedic student.
Translation
The king through the practice and strict discipline of continence or having restraints can sexual pursuit rules his realms to safety. The preceptor desires to keep the pupil under his control through practice and discipline of continence or chastity.
Translation
Through austerity and self-restraint, the king protects the realm he rules. Through self-restraint the teacher seeks a celibate pupil to instruct.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१७−(ब्रह्मचर्येण) अ० ७।१०९।७। ब्रह्म+चर गतौ-यत्। आत्मनिग्रहवेदाध्ययनादिना (तपसा) तपश्चरणेन (राजा) (राष्ट्रम्) राज्यम् (वि) विशेषेण (रक्षति) पालयति (आचार्यः) (ब्रह्मचर्येण) (ब्रह्मचारिणम्) वेदाध्ययनशीलं शिष्यम् (इच्छते) अभिलष्यति ॥
बंगाली (1)
পদার্থ
ব্রহ্মচর্য়েণ তপসা রাজা রাষ্ট্রং বি রক্ষতি।
আচার্য়ো ব্রহ্মচর্য়েণ ব্রহ্মচারিণমিচ্ছতে ।।৮৬।।
(অথর্ব ১১।৫।১৭)
পদার্থঃ (ব্রহ্মচর্য়েণ) বেদ বিচার ও ইন্দ্রিয় সংযম রূপী (তপসা) তপ দ্বারা (রাজা রাষ্ট্রম্ বিরক্ষতি) রাজা নিজ রাজ্য রক্ষা করেন। (আচার্য়ঃ) বেদাদি শাস্ত্রের রহস্য বিষয়ে জ্ঞাত অধ্যাপক (ব্রহ্মচর্য়েণ) বেদবিদ্যা ও ইন্দ্রিয় দমন দ্বারা (ব্রহ্মচারিণম্) বেদ বিচার করতে সক্ষম এমন জিতেন্দ্রিয় ব্যক্তিকে শিষ্য বানাতে (ইচ্ছতে) ইচ্ছা করেন।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ যে রাজা ইন্দ্রিয়দমন ও বেদবিচার রূপী ব্রহ্মচর্য অবলম্বন করেন, তিনি প্রজাপালনে নিপুণ হন এবং ব্রহ্মচর্যের মহিমার কারণে আচার্য বিদ্যা বৃদ্ধির জন্য ব্রহ্মচারীকে শিষ্য হিসেবে পেতে আকাঙ্ক্ষা করেন ।।৮৬।।
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