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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 15
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
    4

    अ॒मा घृ॒तं कृ॑णुते॒ केव॑लमाचा॒र्यो भू॒त्वा वरु॑णो॒ यद्य॒दैच्छ॑त्प्र॒जाप॑तौ। तद्ब्र॑ह्मचा॒री प्राय॑च्छ॒त्स्वान्मि॒त्रो अध्या॒त्मनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒मा । घृ॒तम् । कु॒णु॒ते॒ । केव॑लम् । आ॒ऽचा॒र्य᳡: । भू॒त्वा । वरु॑ण: । यत्ऽय॑त् । ऐच्छ॑त् । प्र॒जाऽप॑तौ । तत् । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । प्र । अ॒य॒च्छ॒त् । स्वान् । मि॒त्र: । अधि॑ । आ॒त्मन॑: ॥७.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमा घृतं कृणुते केवलमाचार्यो भूत्वा वरुणो यद्यदैच्छत्प्रजापतौ। तद्ब्रह्मचारी प्रायच्छत्स्वान्मित्रो अध्यात्मनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमा । घृतम् । कुणुते । केवलम् । आऽचार्य: । भूत्वा । वरुण: । यत्ऽयत् । ऐच्छत् । प्रजाऽपतौ । तत् । ब्रह्मऽचारी । प्र । अयच्छत् । स्वान् । मित्र: । अधि । आत्मन: ॥७.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 15
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।

    पदार्थ

    (वरुणः) श्रेष्ठ पुरुष (आचार्यः) आचार्य (भूत्वा) होकर [उस वस्तु को] (अमा) घर में (घृतम्) प्रकाशित और (केवलम्) केवल [सेवनीय] (कृणुते) करता है, (यद्यत्) जो (प्रजापतौ) प्रजापति [प्रजापालक परमेश्वर] के विषय में (ऐच्छत्) उस ने चाहा है। और (तत्) उसको (मित्रः) स्नेही (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी ने (आत्मनः) अपने से (अधि) अधिकारपूर्वक (स्वान्) ज्ञाति के लोगों को (प्र अयच्छत्) दिया है ॥१५॥

    भावार्थ

    मनुष्य को योग्य है कि जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी होकर ब्रह्मविद्या का उपार्जन करे और उसको आत्मीय वर्गों में यथावत् फैलावे ॥१५॥

    टिप्पणी

    १५−(अमा) गृहनाम-निघ० ३।४। गृहे (घृतम्) प्रकाशितम् (कृणुते) करोति (केवलम्) सेवनीयम् (आचार्यः) म० १ (भूत्वा) (वरुणः) श्रेष्ठः पुरुषः (यद्यत्) यत्किञ्चित् (ऐच्छत्) इष्टवान् (प्रजापतौ) प्रजापालके परमेश्वरे (तत्) (ब्रह्मचारी) म० १ (प्रयच्छत्) दत्तवान् (स्वान्) सुपां सुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। चतुर्थ्यां द्वितीया। स्वेभ्यः। ज्ञातिभ्यः (मित्रः) स्नेही (अधि) अधिकारपूर्वकम् (आत्मनः) स्वकीयात् ॥

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    विषय

    आचार्य ज्ञान देते हैं, विद्यार्थी दक्षिणा

    पदार्थ

    १. (आचार्य:) = आचार्य (वरुणः भूत्वा) = पाप व द्वेष का निवारण करनेवाला होकर (केवलं घृतम्) = आनन्दमय प्रभु में [के+वल] विचरण करनेवाले ज्ञान को (अमा कृणुते) = विद्यार्थी के साथ करता है। आचार्य विद्यार्थी के लिए प्रभु से दिये गये ज्ञान को देनेवाला बनता है। २. (तत्) = तब (ब्रह्मचारी) = ब्रह्मचारी भी (मित्र:) = स्नेहवाला बनकर या पापों से अपने को बचानेवाला बनकर, (यत् यत् ऐच्छत्) = जिस-जिस वस्तु को आचार्य चाहता है, उन सब (स्वान्) = धनों को-आत्मीय वस्तुओं को-(आत्मन: अधि) = अपने से (प्रजापतौ प्रायच्छत्) = प्रजाओं के रक्षक आचार्य में प्राप्त कराता है।

    भावार्थ

    आचार्य विद्यार्थी को ज्ञान देता है। विद्यार्थी आचार्य के लिए इष्ट दक्षिणा देता है।

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    भाषार्थ

    (आचार्यः) आचार्य (प्रजापतौ) प्रजाओं के पति अर्थात् रक्षक होने के निमित्त [ब्रह्मचारी के लिये] (यत् यत्) जो-जो उपदेश देना (ऐच्छत) चाहता है, (वरुणो भूत्वा) पापनिवारकरूप धारण कर आचार्य उस-उस उपदेश का (केवलम्) सिर्फ (घृतम) प्रकाशमात्र, ज्ञानमात्र (अमा) उसके आश्रमनिवास में (कुणते) कर देता है। तदनन्तर (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी [गृहस्थ धारण कर] (मित्रः) मित्ररूप में अर्थात् स्नेहरूप में, (तद्) उस सदुपदेश को, (आत्मनः अधि) निज अनुभव से, (स्वान्) निजसन्तानों को (प्रायच्छत्) देता है।

    टिप्पणी

    [अमा = गृहनाम (निघं० ३।४)। घृतम्= घृ दीप्तौ। वरुणः (मन्त्र १४) = निवारकः। अभिप्राय यह कि सद्गृहस्थी होने के लिए, ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य काल में ही आचार्य, गृहस्थ कर्तव्यों तथा गृहस्थ धर्मों का ज्ञान दे देता है]।

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    विषय

    ब्रह्मचारी के कर्तव्य।

    भावार्थ

    (वरुणः) वरुण, सर्वश्रेष्ठ पुरुष (आचार्यः भूत्वा) आचार्य होकर (केवलम्) स्वयं (घृतम्) अति दीप्त ज्ञानमय (अमा) अपरिमित तेज को (कृणुते) साधता है। इसलिये वह (यत् यत् ऐच्छत्) वह जो जो पदार्थ गुरुदक्षिणा रूप से चाहता है (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (मित्रः) आचार्य का मित्र होकर (आत्मनः स्वान्) अपने धन आदि पदार्थों को (प्रजापतौ) प्रजापति, गुरु में ही (प्रायच्छत्) अर्पण करता है।

    टिप्पणी

    ‘अमात् इदं कृणुते’ इति पैप्प० सं०। (च०) ‘स्वात् मित्रो’ इति सायणाभिमतः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    आदित्यपरक व्याख्या- (वरुणः-आचार्यः भूत्वा) समस्त गोलों को चरने वाला आदित्य का परिधिमण्डल, भलिभांति सहन करने योग्य आधार बनकर (प्रजापतौ यत-यत् केवलं घृतम्-ऐच्छत्-अमा कृणुते) प्रजापति के निमित्त 'निमित्त सप्तमी' अर्थात् प्रजा के पालक आदित्य के लिए जो जो मात्र दीप्ति का द्रव्य या बल "घृ क्षरण दीप्त्योः” (जुहोत्यादि०) को चाहता है वह आदित्य के साथ अपने को प्रकट करता है (ब्रह्मचारी मित्रः स्वात्-अधि आत्मनः-तत् प्रायच्छत्) आदित्य प्रेरक होकर "मि प्रक्षेपणे" (स्वादि०) स्व अन्तःस्थल से उस दीप्तिकर द्रव्य या बल को प्रजाओं के लिए प्रदान करता है । विद्यार्थी के विषय में- (वरुण: आचार्य:-भूत्वा) ब्रह्मचर्यव्रती को वरने वाला उसका आचार्य होकर (प्रजापतौ-यत्-यत् केवलं घृतम्-ऐच्छत् अमा कृणुते) प्रजापालक के निमित्त अर्थात् भावी प्रजाओं का निर्माण करने वाले ब्रह्मचर्य व्रती के लिए जो जो केवल शुद्ध दीप्तिकर ज्ञान को चाहता है उस उसको ब्रह्मचर्यव्रती के साथ अपनी शरण में लेने के समय से ही सम्पादित करता है (ब्रह्मचारी मित्रः स्वात् अधि-आत्मनः तत् प्रायच्छत्) ब्रह्मचर्य व्रती जन अन्यो को प्रेरणा देने वाला होकर अपने अन्तरात्मा से या अन्तःकरण से उस दीप्तिकर ज्ञान को मनुष्यों के लिए प्रदान करता है ॥१५॥

    विशेष

    ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmacharya

    Meaning

    The close association of teacher and disciple creates only the light and grace of ghrta through education and enlightenment. The Acharya becomes Varuna, planner, giver and saviour, and freely gives what he chooses to give for the disciple’s contribution to society for its discipline and progress. And that very gift of the Acharya’s, the Brahmachari as a friend, returns to his people from his very soul.

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    Translation

    Varuna, having become teacher, makes his own (? ama) the entire ghee; whatever he sought of Prajapati, that the vedic student furnished, a friend (mitra) from his own self.

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    Translation

    A man of parts himself a former Brahmacharin, having an insight into human nature, assuming the role of the preceptor, should impart to his own circle (of pupils and friends) for use of whatever he desires he desires in God, the protector of creatures. This, his student of subdued passions, with due authority hands on in a friendly manner to his own friends.

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    Translation

    A noble man acting as a teacher displays his vast knowledge and immense dignity. Whatever he wants from his pupil as Dakshina, the same, being his friend, the pupil gives unto his teacher, according to his financial resources.

    Footnote

    Dakshina: It is a common practice that a student at the completion of his studies, and the time of departure from his teacher's Ashrama, offers something to his guru, according to his resources. This offering is called Guru Dakshina.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १५−(अमा) गृहनाम-निघ० ३।४। गृहे (घृतम्) प्रकाशितम् (कृणुते) करोति (केवलम्) सेवनीयम् (आचार्यः) म० १ (भूत्वा) (वरुणः) श्रेष्ठः पुरुषः (यद्यत्) यत्किञ्चित् (ऐच्छत्) इष्टवान् (प्रजापतौ) प्रजापालके परमेश्वरे (तत्) (ब्रह्मचारी) म० १ (प्रयच्छत्) दत्तवान् (स्वान्) सुपां सुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। चतुर्थ्यां द्वितीया। स्वेभ्यः। ज्ञातिभ्यः (मित्रः) स्नेही (अधि) अधिकारपूर्वकम् (आत्मनः) स्वकीयात् ॥

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