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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 9
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - बृहतीगर्भा त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
    1

    इ॒मां भूमिं॑ पृथि॒वीं ब्र॑ह्मचा॒री भि॒क्षामा ज॑भार प्रथ॒मो दिवं॑ च। ते कृ॒त्वा स॒मिधा॒वुपा॑स्ते॒ तयो॒रार्पि॑ता॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माम् । भूमि॑म् । पृ॒थि॒वीम् । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । भि॒क्षाम् । आ । ज॒भा॒र॒ । प्र॒थ॒म: । दिव॑म् । च॒ । ते इति॑ । कृ॒त्वा । स॒म्ऽइधौ॑ । उप॑ । आ॒स्ते॒ । तयो॑: । आर्पि॑ता । भुव॑नानि । विश्वा॑ ॥७.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमां भूमिं पृथिवीं ब्रह्मचारी भिक्षामा जभार प्रथमो दिवं च। ते कृत्वा समिधावुपास्ते तयोरार्पिता भुवनानि विश्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमाम् । भूमिम् । पृथिवीम् । ब्रह्मऽचारी । भिक्षाम् । आ । जभार । प्रथम: । दिवम् । च । ते इति । कृत्वा । सम्ऽइधौ । उप । आस्ते । तयो: । आर्पिता । भुवनानि । विश्वा ॥७.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।

    पदार्थ

    (इमाम्) इस (पृथिवीम्) चौड़ी (भूमिम्) भूमि (च) और (दिवम्) सूर्य को (प्रथमः) पहिले [प्रधान] (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी ने (भिक्षाम्) भिक्षा (आ जभार) लिया था। (ते) उन दोनों को (समिधौ) दो समिधा [के समान] (कृत्वा) बनाकर (उप आस्ते) [ईश्वर की] उपासना करता है, (तयोः) उन दोनों में (विश्वा) सब (भुवनानि) भुवन (आर्पिता) स्थापित हैं ॥९॥

    भावार्थ

    महाविद्वान् पुरुष पृथिवी और सूर्य आदि के तत्त्वों को जानकर और उपयोगी बनाकर, होमीय अग्नि में दो काष्ठ छोड़कर उन [भूमि और सूर्य] को लक्ष्य में रखता है कि वह इस प्रकार सब संसार का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करे ॥९॥

    टिप्पणी

    ९−(इमाम्) दृश्यमानाम् (भूमिम्) (पृथिवीम्) प्रथिताम्। विस्तृताम् (ब्रह्मचारी) म० १ (भिक्षाम्) याच्ञाम् (आ जभार) आजहार। समन्ताद् गृहीतवान् (प्रथमः) प्रधानः (दिवम्) सूर्यम् (च) (ते) द्यावापृथिव्यौ (कृत्वा) विधाय (समिधौ) समिद्रूपे (उपास्ते) परमात्मानं परिचरति (तयोः) द्यावापृथिव्योर्मध्ये (आर्पिता) समन्तात् स्थापितानि (भुवनानि) लोकाः (विश्वा) सर्वाणि ॥

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    विषय

    ते समिधौ

    पदार्थ

    १. (ब्रह्मचारी) = ज्ञान में विचरण करनेवाला यह ब्रह्मचारी (इमाम्) = इस (पृथिवीम्) = शक्तियों के विस्तारवाले (भूमिम्) = [भवन्ति भूतानि यस्याम्] प्राणियों के निवासस्थानभूत व शरीररूप पृथिवीलोक को (भिक्षाम् आजभार) = भिक्षारूप से प्राप्त करता है। (प्रथम:) = शक्तियों के विस्तारवाला यह ब्रह्मचारी (दिवं च) = ज्ञानज्योति से देदीप्यमान मस्तिष्करूप द्युलोक को भी आचार्य से भिक्षारूप में प्राप्त करता है। २. (ते) = उन दोनों को-शरीर व मस्तिष्क को-(समिधौ कृत्वा) = तेजस्विता व ज्ञान से दीप्त बनाकर यह (उपास्ते) = प्रभु का उपासन करता है। (तयोः)= उन दोनों में-पृथिवी व युलोक में (विश्वा भुवनानि आर्पिता) = सब भुवन अर्पित है, अर्थात् शरीर व मस्तिष्क के ठीक होने पर अन्य सब अंग-प्रत्यंग स्वयं ठीक रहते ही हैं। मानस आह्लाद तभी सम्भव है जबकि शरीर व मस्तिष्क स्वस्थ हों।

    भावार्थ

    ब्रह्मचारी आचार्य से पृथिवी व धुलोक की भिक्षा माँगता है-अन्य सब लोक तो इनमें ही अर्पित हैं। शक्तिसम्पन्न शरीर व ज्ञानदीप्त मस्तिष्क इस ब्रह्मचारी को सर्वाग सुन्दर जीवनवाला बना देते हैं, ऐसा बनना ही प्रभु का उपासन है।

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    भाषार्थ

    (प्रथमः ब्रह्मचारी) प्रथमाश्रमी ब्रह्मचारी, (इमाम् पृथिवीम्) इस प्रथित अर्थात् विस्तृत (भूमिम्) भूमि [के ज्ञान] को, (च दिवम्) और विस्तृत द्युलोक [के ज्ञान] को (भिक्षाम्) भिक्षारूप में (आ जभार) आहृत करता है, प्राप्त करता है। (ते) उन दो लोकों को (समिधौ कृत्वा) दो समिधाएं कर के (उपास्ते) निज ज्ञानाग्नि की उपासना अर्थात् परिचर्या करता है। (तयोः) उन दो में (विश्वा भुवनानि) सब सत्पदार्थ सब (आर्पिता) अर्पित है, आश्रित हैं। भुवनानि = भू सत्तायाम्, सत्पदार्थ।

    टिप्पणी

    [प्रथमाश्रम का ब्रह्मचारी भूमि और द्युलोक के ज्ञान को, भिक्षारूप में, आचार्य से ग्रहण करता है। इस निमित्त, आर्थिक व्यय उसे नहीं करना पड़ता। प्रथमाश्रम के पश्चात् गृहस्थाश्रम में उस की भिक्षावृत्ति नहीं रहती। गृहस्थाश्रम के निर्वाह के लिये उसे स्वयं धनोपार्जन करना होता है। वह भूलोक और द्युलोक को समिधा बना कर, निज ज्ञानाग्नि को, प्रदीप्त करता है। इन्हीं दो लोकों के अन्तर्गत सब सत्पदार्थ विद्यमान हैं। इसलिये इन दो लोकों के परिज्ञान के अन्तर्गत सभी सत्पदार्थो का परिज्ञान उसे हो जाता है। "पृथिवीम्" पद भूमिम् और दिवम् दोनों का विशेषण है, जोकि इन दोनों के विस्तार का द्योतक है। “पृथिवीम्" पद मन्त्र ८ में पठित "उर्वी" पद का, समानार्थक है]।

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    विषय

    ब्रह्मचारी के कर्तव्य।

    भावार्थ

    (प्रथमः) सब से प्रथम (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (इमां पृथिवीं भूमिम्) इस विशाल पृथिवी को (भिक्षाम्) भिक्षा स्वरूप से ग्रहण करता है। और (दिवं च) और द्यौलोक को भी भिक्षा रूप में ग्रहण करता है। और (ते) उन दोनों को (समिधौ कृत्वा) समिधा बनाकर (उपास्ते) उपासना करता है, अग्नि और आचार्य की उपासना करता है। (तयोः) उन दोनों में ही (विश्वा भुवनानि आर्पिता) समस्त भुवन, प्राणि, आश्रित हैं।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘भिक्षां जभार’ (तृ०) ‘ते ब्रह्म कृत्वा समिधा उपासते’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    आदित्यपरक व्याख्या- (प्रथमः-ब्रह्मचारी) प्रमुख होता हुआ आदित्य (इमां पृथिवीं भूमिं दिवं च भिक्षाम्-आजभार ) इस प्रथित भूमि को और द्युलोक को भिक्षारूप से उनके अवकाश को स्वप्रचारनिर्वाह के लिए आहरण किया- ग्रहण किया पुन: (ते समिधौ कृत्वा-उपास्ते) उन दोनों की समिधाएं मानकर अग्नि को प्रवृद्ध करता है (तयो:-विश्वा भुवनानि अर्पिता) उन दोनों के बीच स्थित सारे भूत सम्यक् आश्रित हैं । विद्यार्थी के विषय में (प्रथमः-ब्रह्मचारी) श्रेष्ठ या नवीन ब्रह्मचर्यव्रती जन (इमां भूमिं पृथिवीं दिवं च भिक्षाम् आजभार) इस जन्मदात्री माता को तथा जनक पिता को भिक्षा मांगना है अर्थात् माता से और पिता से भिक्षा ग्रहण करता है, पुन: वह (ते समिधौ कृत्वा-उपास्ते) माता से पिता से प्राप्त की गई भिक्षाओं को समिधा मानकर आचार्यरूप पदवी को तथा ज्ञानाग्नि को सेवन करता है (तयोः-विश्वा भुवनानि अर्पिता) इन प्राप्त भिक्षा के आश्रय सारे भूत प्राणि ज्ञान, दान, दयाप्राप्ति के लिए आश्रित हैं ॥९॥

    विशेष

    ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmacharya

    Meaning

    This vast earth and this vast heaven and the knowledge of both and his place therein, the Brahmachari in his first phase of life receives and holds as a rightful gift for the child and disciple from the teacher and society. And having turned this double gift as fuel sticks for his yajnic living, he stands by them with commitment throughout life. In these two, heaven and earth, knowing them and living for them, are subsumed all facts and values of the entire world of existence. To these, all his knowledge, actions and prayers are dedicated.

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    Translation

    This broad (prthivi) earth, and the sky, the Vedic student first brought (as) alms (bhiksa); having made them (both) fuel, he worships; in them are set (arpita) all beings.

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    Translation

    It is the Brahmacharin who is the first to get this spacious earth and the heavens as his alms which he offers as two sticks in the Yajna fire and worships God, (As) all the worlds are established in these two (they also fall to his share).

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    Translation

    A Brahmchari, first of all accepts this vast earth and heaven as alms, He makes these twain two fuel logs, and worships God. All living creatures reside between them.

    Footnote

    Them: Earth and Heaven, Mother and father are the earth and heaven received as gifts from God. With the help of his parents he worships God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(इमाम्) दृश्यमानाम् (भूमिम्) (पृथिवीम्) प्रथिताम्। विस्तृताम् (ब्रह्मचारी) म० १ (भिक्षाम्) याच्ञाम् (आ जभार) आजहार। समन्ताद् गृहीतवान् (प्रथमः) प्रधानः (दिवम्) सूर्यम् (च) (ते) द्यावापृथिव्यौ (कृत्वा) विधाय (समिधौ) समिद्रूपे (उपास्ते) परमात्मानं परिचरति (तयोः) द्यावापृथिव्योर्मध्ये (आर्पिता) समन्तात् स्थापितानि (भुवनानि) लोकाः (विश्वा) सर्वाणि ॥

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