अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 16
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
1
आ॑चा॒र्यो ब्रह्मचा॒री ब्र॑ह्मचा॒री प्र॒जाप॑तिः। प्र॒जाप॑ति॒र्वि रा॑जति वि॒राडिन्द्रो॑ऽभवद्व॒शी ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽचा॒र्य᳡: । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । प्र॒जाऽप॑ति: । प्र॒जाऽप॑ति: । वि । रा॒ज॒ति॒ । वि॒ऽराट् । इन्द्र॑: । अ॒भ॒व॒त् । व॒शी॥७.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
आचार्यो ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी प्रजापतिः। प्रजापतिर्वि राजति विराडिन्द्रोऽभवद्वशी ॥
स्वर रहित पद पाठआऽचार्य: । ब्रह्मऽचारी । ब्रह्मऽचारी । प्रजाऽपति: । प्रजाऽपति: । वि । राजति । विऽराट् । इन्द्र: । अभवत् । वशी॥७.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (6)
विषय
ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।
पदार्थ
(ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (आचार्यः) आचार्य, और (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी [ही] (प्रजापतिः) प्रजापति [प्रजापालक मनुष्य होता है]। और (प्रजापतिः) प्रजापति [प्रजापालक होकर] (वि) विविध प्रकार (राजति) राज्य करता है, (विराट्) विराट् [बड़ा राजा] (वशी) वश में करनेवाला, [शासक] (इन्द्रः) इन्द्र, [बड़े ऐश्वर्यवाला] (अभवत्) हुआ है ॥१६॥
भावार्थ
ब्रह्मचारी सर्वशिक्षक और प्रजापालन नीति में चतुर होकर प्रजा का पालन और शासन करके बड़ा प्रतापी होता है, यह नियम पहिले से चला आता है ॥१६॥
टिप्पणी
१६−(आचार्यः) म० १ (ब्रह्मचारी) म० १ (प्रजापतिः) प्रजापालकः पुरुषः (वि) विविधम् (राजति) शासको भवति (विराट्) विविधं शासकः अधिराजः (इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्तः (वशी) वशयिता। शासकः। अन्यद् गतम् ॥
पदार्थ
शब्दार्थ = ( आचार्यः ) = वेदशास्त्रज्ञाता आचार्य ( ब्रह्मचारी ) = ब्रह्मचारी होवे ( प्रजापतिः ) = प्रजापालक मनुष्य राजा आदि ( ब्रह्मचारी ) = ब्रह्मचारी होवें। ( प्रजापति: ) = प्रजापालक हो कर ( विराजति ) = विविध प्रकार राज्य करता है। ( विराट् ) = बड़ा राजा ( वशी ) = वश में करनेवाला ( इन्द्रः ) = बड़े ऐश्वर्यवाला ( अभवत् ) = हो जाता है !
भावार्थ
भावार्थ = परम दयालु परमेश्वर हमको उपदेश करते हैं कि, पाठशालाओं के अध्यापक ब्रह्मचारी होने चाहियें और प्रजाशासक राजा और राजपुरुष भी ब्रह्मचारी होने चाहियें । यदि ये दोनों व्यभिचारी होवें तो न ही सुचारुतया विद्या का अध्ययन करा सकते हैं और न ही राज्य व्यवस्था ठीक-ठीक चला सकते हैं। प्रजापालक राजा अपनी प्रजा पर शासन करता हुआ बड़ा राजा और इन्द्र हो जाता है।
विषय
आचार्य व राजा का ब्रह्मचारी होना
पदार्थ
१. (आचार्य) = आचार्य (ब्रह्मचारी) = ब्रह्म[ज्ञान] में विचरण करनेवाला ही होना चाहिए। इसी प्रकार (प्रजापति:) = प्रजारक्षक राजा भी (ब्रह्मचारी) = ज्ञान में विचरण करनेवाला ही होता है। ऐसा ही (प्रजापति:) = राजा (विराजति) = विशिष्ट दीप्ति व शासनशक्तिवाला बनता है। यह (विराट्) = विशिष्ट दीसिवाला (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय राजा ही (वशी अभवत्) = प्रजाओं को वश में रखनेवाला होता है। अजितेन्द्रिय राजा कभी प्रजा पर आधिपत्य नहीं कर पाता ('जितेन्द्रियो हि शक्रोति वशे स्थापयितुं प्रजाः')।
भावार्थ
आचार्य व राजा का ब्रह्मचारी होना आवश्यक है, तभी वे विद्यार्थियों व प्रजा को धर्म के मार्ग पर चला सकेंगे।
भाषार्थ
(आचार्यः) आचार्य पहिले (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचर्याश्रम ग्रहण कर ब्रह्मचारी बनता है, (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी हो कर (प्रजापतिः) गृहस्थ धारण कर सन्तानों का रक्षक होता है। (प्रजापतिः) प्रजापति होकर (विराट्) विशेष दीप्ती वाला वानप्रस्थी बनता है, (विराट्) वानप्रस्थी होकर (वशी) और इन्द्रियों और मन को वश में करके (इन्द्रः) इन्द्रपदवी को पाता है, परम ऐश्वर्यवान् संन्यासी या चतुर्थाश्रमी होता है।
टिप्पणी
[इन्द्रः= इदि परमैश्वर्ये। इन्द्र से अभिप्राय स्वर्गाधिष्ठाता, कल्पित, इन्द्र-देवता नहीं। मन्त्र में यह दर्शाया है कि वर्तमान में जो आचार्य था, वह भी प्रथम ब्रह्मचारी बना था। अतः आचार्यत्व के लिये योग्य था]।
विषय
ब्रह्मचारी के कर्तव्य।
भावार्थ
(आचार्यः ब्रह्मचारी) आचार्य स्वयं प्रथम ब्रह्मचारी होता है। (ब्रह्मचारी प्रजापतिः) ब्रह्मचारी पुरुष ही बाद में प्रजापति, प्रजा का पालक उत्तम गृहाश्रमी होता है। (प्रजापतिः) प्रजा का पालक गृहस्वामी ही (वि राजति) नाना प्रकार से शोभा पाता है। (वशी) वशी पुरुष ही (विराट् इन्द्रः भवत्) विराट् , नाना प्रकार से शोभा देने वाला साक्षात् इन्द्र, आचार्य हो जाता है, अथवा विराट् ही सर्ववशकारी इन्द्र है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(आचार्य:-ब्रह्मचारी) वेदज्ञान के ग्रहणार्थ भलीभाँति सेवा करने योग्य आचार्य ही ब्रह्मचारी जैसे—पिता ही पुत्र होता है पिता के शरीर-धर्मो का दृढ करने वाला होने से "आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम्" (निरु० ३।४) तथैव आचार्य के गुणों का ग्रहण कर्त्ता होने से ब्रह्मचारी को आचार्य कहा है पुनः आचार्य के अनन्तर (ब्रह्मचारी प्रजापतिः) वह ब्रह्मचारी प्रजामात्र के अध्यापन से प्रजापति होता है आचार्य पद की अपेक्षा से ऊँचे पद वाला हो जाता है जैसे- बृहदारण्यक उपनिषद् में देवमनुष्य असुरों का अध्यापक प्रजापति कहा गया है । (प्रजापतिः- विराजति) प्रजापति पद वाला होकर। बिना प्रतिबन्ध के अपने शिष्यों को और जो अपने शिष्य भी नहीं हैं उनको भी ज्ञान प्रदान करके विराट् पद भागी महार्षि बनता है, सबके हृदयों में विराजमान होने से सम्मान पाने से । (पुनः-विराट्-इन्द्रः-वशी-अभवत्) वह विराट पदभागी सर्वत्र भ्रमण करके सर्वहित उपदेश प्रदान द्वारा सबको वश में अर्थात् अनुकूल बना करके इन्द्र ईश्वर की भांति परम ऋषि हो जाता है । इस प्रकार यह ब्राह्मण के पदों का विवेचन मन्त्र में आया ॥१६॥
टिप्पणी
यहाँ से २१ मन्त्र तक ब्रह्मचारी शब्द केवल ब्रह्मचर्य व्रती जन के लिए ही अभीष्ट है अतः उसी के सम्बन्ध में मन्त्र व्याख्या की जाती है-
विशेष
ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-
इंग्लिश (4)
Subject
Brahmacharya
Meaning
The Acharya ought to be a Brahmachari, dedicated to Brahma and divine discipline of austerity. Prajapati, ruler, protector and sustainer of the people, too, ought to be a Brahmachari. Then only the ruler shines and rules. The brilliant alone rises to be Indra, really powerful, and it is the powerful alone can rule.
Translation
The teacher (is) the Vedic student; the Vedic student (is) Prajapati; bears rule (vi-raj); the viraj became the controlling Indra.
Translation
The preceptor is continent and continent is lord of the house. Through this continence the man in house-holding life shines throughout and the shining soul, the master of organs becomes powerful to subdue all passions.
Translation
A teacher should be a Brahmchari, a state official who protects the subjects must also be a Brahmchari. Such an official shines eminently. A self-controlled person, refulgent with his knowledge becomes an ideal teacher.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(आचार्यः) म० १ (ब्रह्मचारी) म० १ (प्रजापतिः) प्रजापालकः पुरुषः (वि) विविधम् (राजति) शासको भवति (विराट्) विविधं शासकः अधिराजः (इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्तः (वशी) वशयिता। शासकः। अन्यद् गतम् ॥
बंगाली (1)
পদার্থ
আচার্য়ো ব্রহ্মচারী ব্রহ্মচারী প্রজাপতিঃ।
প্রজাপতির্বিরাজতি বিরাডিন্দ্রোঽভবদ্বশী ।।৮৫।।
(অথর্ব ১১।৫।১৬)
পদার্থঃ (আচার্য়ঃ) বেদশাস্ত্রজ্ঞাতা আচার্য (ব্রহ্মচারী) ব্রহ্মচারী হবেন। (প্রজা পতিঃ) প্রজাপালক রাজাও (ব্রহ্মচারী) ব্রহ্মচারী হয়ে (প্রজাপতিঃ) প্রজাপালন করবেন ও (বিরাজতি) বিবিধ প্রকারে রাজত্ব করবেন । (বিরাট্) বিরাট রাজাগণ (বশী) প্রজাদের নিয়ন্ত্রণে এনেই (ইন্দ্রঃ) মহৎ ও ঐশ্বর্যবান (অভবৎ) হয়ে থাকেন ।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ পরম দয়ালু পরমেশ্বর আমাদের উপদেশ দেন যে, পাঠশালার অধ্যাপক ব্রহ্মচারী হবেন এবং প্রজাশাসক রাজা, ও রাজপুরুষ ব্রহ্মচারী হবেন। যদি এই দুজন ব্যভিচারী হন, তো বিদ্যার অধ্যয়ন বা রাজ্য ব্যবস্থা ঠিকঠাক চলা অসম্ভব। প্রজাপালক রাজা নিজের প্রজার ওপর ঠিকভাবে শাসন করে মহান রাজা তথা ইন্দ্র হয়ে যান ।।৮৫।।
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