अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 11
ऋषिः - दुःस्वप्ननासन
देवता - आसुरी त्रिष्टुप्,त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्,यजुर्ब्राह्मी एकपदा अनुष्टुप्,त्रिपदा निचृत गायत्री
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
0
जि॒तम॒स्माक॒मुद्भि॑न्नम॒स्माक॑मृ॒तम॒स्माकं॒ तेजो॒ऽस्माकं॒ ब्रह्मा॒स्माकं॒स्वर॒स्माकं॑य॒ज्ञो॒ऽस्माकं॑ प॒शवो॒ऽस्माकं॑ प्र॒जा अ॒स्माकं॑ वी॒राअ॒स्माक॑म् । तस्मा॑द॒मुं निर्भ॑जामो॒ऽमुमा॑मुष्याय॒णम॒मुष्याः॑ पु॒त्रम॒सौ यः। स प्र॒जाप॑तेः॒ पाशा॒न्मा मो॑चि । तस्येदं वर्च॒स्तेजः॑ प्रा॒णमायु॒र्निवे॑ष्टयामी॒दमे॑नमध॒राञ्चं॑ पादयामि ॥
स्वर सहित पद पाठजि॒तम् । अ॒स्माक॑म् । उ॒त्ऽभि॑न्नम् । अ॒स्माक॑म् । ऋ॒तम् । अ॒स्माक॑म् । तेज॑: । अ॒स्माक॑म् । ब्रह्म॑ । अ॒स्माक॑म् । स्व᳡: । अ॒स्माक॑म् । य॒ज्ञ: । अ॒स्माक॑म् । प॒शव॑: । अ॒स्माक॑म् । प्र॒ऽजा: । अ॒स्माक॑म् । वी॒रा: । अ॒स्माक॑म् । तस्मा॑त् । अ॒मुम् । नि: । भ॒जा॒म॒: । अ॒मुम् । आ॒मु॒ष्या॒य॒णम् । अ॒मुष्या॑: । पु॒त्रम् । अ॒सौ । य: । स: । प्र॒जाऽप॑ते: । पाशा॑त् । मा । मो॒चि॒ ॥८.११॥
स्वर रहित मन्त्र
जितमस्माकमुद्भिन्नमस्माकमृतमस्माकं तेजोऽस्माकं ब्रह्मास्माकंस्वरस्माकंयज्ञोऽस्माकं पशवोऽस्माकं प्रजा अस्माकं वीराअस्माकम् । तस्मादमुं निर्भजामोऽमुमामुष्यायणममुष्याः पुत्रमसौ यः। स प्रजापतेः पाशान्मा मोचि । तस्येदं वर्चस्तेजः प्राणमायुर्निवेष्टयामीदमेनमधराञ्चं पादयामि ॥
स्वर रहित पद पाठजितम् । अस्माकम् । उत्ऽभिन्नम् । अस्माकम् । ऋतम् । अस्माकम् । तेज: । अस्माकम् । ब्रह्म । अस्माकम् । स्व: । अस्माकम् । यज्ञ: । अस्माकम् । पशव: । अस्माकम् । प्रऽजा: । अस्माकम् । वीरा: । अस्माकम् । तस्मात् । अमुम् । नि: । भजाम: । अमुम् । आमुष्यायणम् । अमुष्या: । पुत्रम् । असौ । य: । स: । प्रजाऽपते: । पाशात् । मा । मोचि ॥८.११॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रु के नाश करने का उपदेश।
पदार्थ
(जितम्) जय कियाहुआ.... [म० १, २]। (सः) वह [कुमार्गी] (प्रजापतेः) प्रजापतिः [प्रजापालकसेनापति] के (पाशात्) बन्धन से (मा मोचि) न छूटे।.... [म० ४] ॥११॥
भावार्थ
विद्वान् धर्मवीर राजासुवर्ण आदि धन और सब सम्पत्ति का सुन्दर प्रयोग करे और अपने प्रजागण और वीरों कोसदा प्रसन्न रख कर कुमार्गियों को कष्ट देकर नाश करे॥११॥
टिप्पणी
११−(प्रजापतेः)प्रजापालकस्य सेनापतेः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
अध्यात्म शत्रुओं का प्रतीकार
पदार्थ
१. हम विजय आदि दशों रत्नों को प्राप्त करें। उसके लिए हम काम-क्रोधादि आध्यात्म शत्रुओं को जीतनेबाले बनें। (स:) = वह 'काम'-रूप शत्रु (बृहस्पते पाशात् मा मोचि) = बृहस्पति के पाश से मुक्त न हो। इम इस कामरूप शत्रु के वीर्य, बल, प्राण व आयु को घेरकर उसे परास्त करने में समर्थ हों। बृहस्पति ज्ञान का स्वामी है। बृहस्पति के पाश में जकड़ने का भाव है 'ज्ञान की रुचिवाला' बनना। ज्ञान की रुचिवाला बनते ही वह पुरुष काम का विध्वंस कर पाता है। २. इसीप्रकार क्रोधरूप शत्रु है। (स:) = वह (प्रजापतेः पाशात्) = प्रजापति के पाश से (मा मोचि) = मत छोड़ा जाए। 'प्रजापति' में सन्तानों के रक्षण की भावना है। इस भावना के प्रबल होने पर हम क्रोध से ऊपर उठते हैं। क्रोध विनाश का कारण बनता है न कि पालन का। ३. तीसरा शत्रु लोभ है। (स:) = वह (ऋषीणाम्) = ऋषियों के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। ऋषियों के पाश में हम अपने को जकड़ते हैं, तो लोभ विनष्ट हो जाता है। ऋषि मन्त्रद्रष्टा हैं-विचारशील हैं। 'कस्य स्विद्धनम्' इस बात का विचार करने पर लोभ स्वतः ही नष्ट हो जाता है। (स:) = वह लोभरूप शत्रु (आर्षेयाणाम्) = ऋषिकृत ग्रन्थों के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। ऋषिकृतग्रन्थों का अध्ययन हमें लोभ से ऊपर उठाता ही है। ४. चौथा 'मोह' रूप शत्रु है। (सः) = वह (अङ्गिरसाम्) = [प्राणो वा अङ्गिरसा:-श०६.१.२.२८] प्राणों के पाशात् (मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। प्राणसाधना करते हुए हम मोह से ऊपर उठें। प्राणसाधना वैचित्य को [मुह वैचित्ये] दूर करती ही है। एवं, प्राणसाधक वस्तुओं को ठीकरूप में देखता हुआ मोह में नहीं फँसता। (सः) = वह मोहरूप शत्रु (आङ्गिरसानाम्) = [स वा एष आंगिरसा: 'अन्नाद्यम्' अतो हीमान्यंगानि रसं लभन्ते। तस्मादांगिरस:-जै० ३.२.११.९] आद्य अन्नों के (पाशात् मा मोचि) = बन्धन से मत मुक्त हो। यदि हम खाने योग्य सात्विक अन्नों का ही प्रयोग करेंगे तो हमारा मन भी सात्त्विक भावना से ओत-प्रोत होने से मोह में न फंसेगा। एवं मोह से ऊपर उठने के लिए 'अङ्गिरा व आङ्गिरसों के पाश में हमें अपने को जकड़ना चाहिए। प्राणसाधना करें व आध अन्न का सेवन करें तभी हमारा मोह [वैचित्य-'अज्ञान'] नष्ट होगा। ५. पाँचवाँ "मद' हमारा शत्रु है। (स:) = वह (अथर्वणाम्) = [अथ अर्वा] आत्मनिरीक्षण करनेवालों के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। यदि हम आत्मनिरीक्षण करनेवाले बनेंगे तो कभी मदवाले न होंगे। दूसरों को देखते रहने पर ही अपने दोष नहीं दिखते और अभिमान [मद] की उत्पत्ति होती है। इसीप्रकार 'मत्सर' शत्रु है। (स:) = वह (आथर्वणानाम्) = आथर्वणों के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। [अ+थ to go, move] आधर्वण, अर्थात् स्थिरवृत्ति के बनकर हम मत्सर से ऊपर उठें। हमें औरों की सम्पत्ति को देखकर जलन न हो।
भावार्थ
ज्ञानरुचिता हमें 'कामवासना' पर विजयी बनाए। प्रजापतित्व की भावना हमें क्रोध से ऊपर उठाकर प्रेममय बनाए। तत्त्वद्रष्टा बनते हुए व तत्त्वदर्शी पुरुषों के ग्रन्थों को पढ़ते हुए हम लोभ से ऊपर उठें। प्राणसाधना द्वारा हमारा मोह विनष्ट हो। इसके विनाश के लिए ही हम सात्त्विक अन्नों का प्रयोग करें। आत्मनिरीक्षण करते हुए हम 'मद' को नष्ट करें तथा स्थिरवृत्ति के बनकर मत्सर से आक्रान्त न हों।
भाषार्थ
(जितमस्माकमुद्भिन्नमस्माकमृतमस्माकं तेजोऽस्माकं ब्रह्मास्माकंस्वरस्माकंयज्ञोऽस्माकं पशवोऽस्माकं प्रजा अस्माकं वीराअस्माकम्) अर्थ पूर्ववत् (मन्त्र १)। (तस्मादमुं निर्भजामोऽमुमामुष्यायणममुष्याः पुत्रमसौ यः) अर्थ पूर्ववत् (मन्त्र २)। (सः) वह (प्रजापतेः) प्रजाओं के पति अर्थात् राजा के सम्बन्धी दण्ड विधान रूपी (पाशात्) फंदे से (मोचि, मा) मुक्त न हो। (तस्येदं वर्चस्तेजः प्राणमायुर्निवेष्टयामीदमेनमधराञ्चं पादयामि) अर्थ पूर्ववत् (मन्त्र ४)।
टिप्पणी
[प्रजापतेः = प्रजापति का अभिप्राय है, राजा। यथा "सभा च मा समितिश्चावतां प्रजापतेर्दुहितरौ संविदाने" (अथर्व० ७।१२।१)। विजयी राष्ट्र में, पराजित परराष्ट्र के राजा के साथ व्यवहार करने के जो नियम निर्धारित हैं, तदनुसार पराजित राजा को दण्ड देने का विधान मन्त्र में हुआ है]
विषय
विजयोत्तर शत्रुदमन।
भावार्थ
(सः) वह (दैव जामीनाम्) देव विद्वानों की सहज शक्तियों, (बृहस्पतेः) बृहस्पति, (प्रजापतेः) प्रजापति, (ऋषीणाम्) ऋषियों, (आर्षेयाणाम्) ऋषि सन्तानों (अंगिरसाम्) विशेष आंगिरस वेद के विद्वानों और (आंगिरसानां) उनके शिष्यों, (अथर्वणाम्) अथर्व वेद के ज्ञाताओं और (आथर्वणानाम्) अथर्वाओं के शिष्यों के (पाशात् मा मोचि) पाश से न छूट पावें॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-२७ (प्र०) एकपदा यजुर्बाह्मनुष्टुभः, १-२७ (द्वि०) निचृद् गायत्र्यः, १ तृ० प्राजापत्या गायत्री, १-२७ (च०) त्रिपदाः प्राजापत्या स्त्रिष्टुभः, १-४, ९, १७, १९, २४ आसुरीजगत्य:, ५, ७, ८, १०, ११, १३, १८ (तृ०) आसुरीत्रिष्टुभः, ६, १२, १४, १६, २०, २३, २६ आसुरीपंक्तयः, २४, २६ (तृ०) आसुरीबृहत्यौ, त्रयस्त्रिशदृचमष्टमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
What we have won is ours, what we have recovered is ours. Law and truth is ours, splendour is ours, Vedic knowledge is ours, peace and joy is ours, yajna is ours, wealth and cattle is ours, people are ours, brave heroes are ours. For this reason now, from all that, we alienate that evil dreamer who is son of such and such father and such and such mother. Let him never be free from the fetters of Prajapati, lord ruler and protector of the people. And here now I arrest and freeze his honour, lustre, pranic energy, and his life and age, and thus I place him down at the lowest.
Translation
Ours be the conquest ours the rise up; ours the righteousness; ours the brilliance; ours the knowledge, ours the bliss; ours the sacrifice; ours the cattle; ours the progeny; ours be the heroic sons. From sharing that we exclude so and so, the descendant of so and so, the son of so and so mother, that yonder one. May he not be released from the noose of the Lord of creatures. Now I wrap up his lustre, brilliance, vital breath and life-span. Here I make him fall down below.
Translation
May......... noose of Parjapati, the ruler of the sabject......... beneath me.
Translation
Let us be victorious. Let us be prosperous. Let us be truthful. Let us be energetic. Let us be learned. Let our soul advance. Let our sacrifice be fruitful. Let us own cattle. Let our progeny progress. Let us have brave Soldiers. We banish him from the country, for his aggression, who belongs to such a family, is the son of such a woman, and is the enemy of the country. Let him not be freed from the noose of the king, the rearer of his subjects. I bind up his splendor, his energy, his vital breath, his life, and cast him down beneath me.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११−(प्रजापतेः)प्रजापालकस्य सेनापतेः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal