अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 29
ऋषिः - दुःस्वप्ननासन
देवता - यजुर्ब्राह्मी एकपदा अनुष्टुप्,आसुरी बृहती,त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्,त्रिपदा निचृत गायत्री
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
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जि॒तम॒स्माक॒मुद्भि॑न्नम॒स्माक॑मृ॒तम॒स्माकं॒ तेजो॒ऽस्माकं॒ ब्रह्मा॒स्माकं॒स्वर॒स्माकं॑य॒ज्ञो॒ऽस्माकं॑ प॒शवो॒ऽस्माकं॑ प्र॒जा अ॒स्माकं॑ वी॒राअ॒स्माक॑म् । तस्मा॑द॒मुं निर्भ॑जामो॒ऽमुमा॑मुष्याय॒णम॒मुष्या॑ह्पु॒त्रम॒सौ यः। स राज्ञो॒ वरु॑णस्य॒ पाशा॒न्मा मो॑चि । तस्येदं वर्च॒स्तेजः॑ प्रा॒णमायु॒र्निवे॑ष्टयामी॒दमे॑नमध॒राञ्चं॑ पादयामि ॥
स्वर सहित पद पाठजि॒तम् । अ॒स्माक॑म् । उ॒त्ऽभि॑न्नम् । अ॒स्माक॑म् । ऋ॒तम् । अ॒स्माक॑म् । तेज॑: । अ॒स्माक॑म् । ब्रह्म॑ । अ॒स्माक॑म् । स्व᳡: । अ॒स्माक॑म् । य॒ज्ञ: । अ॒स्माक॑म् । प॒शव॑: । अ॒स्माक॑म् । प्र॒ऽजा: । अ॒स्माक॑म् । वी॒रा: । अ॒स्माक॑म् । तस्मा॑त् । अ॒मुम् । नि: । भ॒जा॒म॒: । अ॒मुम् । आ॒मु॒ष्या॒य॒णम् । अ॒मुष्या॑: । पु॒त्रम् । अ॒सौ । य: । स: । राज्ञ॑: । वरु॑णस्य । पाशा॑त् । मा । मो॒चि॒ ॥८.२९॥
स्वर रहित मन्त्र
जितमस्माकमुद्भिन्नमस्माकमृतमस्माकं तेजोऽस्माकं ब्रह्मास्माकंस्वरस्माकंयज्ञोऽस्माकं पशवोऽस्माकं प्रजा अस्माकं वीराअस्माकम् । तस्मादमुं निर्भजामोऽमुमामुष्यायणममुष्याह्पुत्रमसौ यः। स राज्ञो वरुणस्य पाशान्मा मोचि । तस्येदं वर्चस्तेजः प्राणमायुर्निवेष्टयामीदमेनमधराञ्चं पादयामि ॥
स्वर रहित पद पाठजितम् । अस्माकम् । उत्ऽभिन्नम् । अस्माकम् । ऋतम् । अस्माकम् । तेज: । अस्माकम् । ब्रह्म । अस्माकम् । स्व: । अस्माकम् । यज्ञ: । अस्माकम् । पशव: । अस्माकम् । प्रऽजा: । अस्माकम् । वीरा: । अस्माकम् । तस्मात् । अमुम् । नि: । भजाम: । अमुम् । आमुष्यायणम् । अमुष्या: । पुत्रम् । असौ । य: । स: । राज्ञ: । वरुणस्य । पाशात् । मा । मोचि ॥८.२९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रु के नाश करने का उपदेश।
पदार्थ
(जितम्) जय कियाहुआ.... [म० १, २]। (सः) वह [कुमार्गी] (वरुणस्य) श्रेष्ठ (राज्ञः) राजा के (पाशात्) बन्धन से (मा मोचि) न छूटे।.... [म० ४] ॥२९॥
भावार्थ
विद्वान् धर्मवीर राजासुवर्ण आदि धन और सब सम्पत्ति का सुन्दर प्रयोग करे और अपने प्रजागण और वीरों कोसदा प्रसन्न रख कर कुमार्गियों को कष्ट देकर नाश करे॥२९॥
टिप्पणी
२९−(राज्ञः) भूपतेः (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
शारीर 'रोगरूप' शत्रुओं का प्रतीकार
पदार्थ
१. हम विजय आदि दशों रत्नों को प्राप्त करें। इसी उद्देश्य से शरीर में उत्पन्न हो जानेवाले रोगरूप शत्रुओं को नष्ट करें। (सः) = वह रोगरूप शत्रु (वनस्पतीनां) = वनस्पतियों के (पाशात्) = पाशों से (मा मोचि) = मत मुक्त हो, अर्थात् बनस्पतियों का प्रयोग इन रोगों के नाश का कारण बने। (सः) = वह रोग (वानस्पत्यानाम्) = वनस्पति से प्राप्त पदार्थों के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्क हो, अर्थात् वानस्पत्य भोजनों को करते हुए हम रोगों का शिकार न हों। २. (सः) = वह रोग (ऋतूनाम्) = ऋतुओं के (पाशात्) = पाश से (मा मोचि) = मत मुक्त हो। ऋतुचर्या का ठीक से पालन हमें रोगाक्रान्त होने से बचाए। (सः) = बह रोग (आर्तवानाम्) = उस-उस ऋतु में होनेवाले पदार्थों के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। हम ऋतु के पदार्थों का प्रयोग करते हुए नीरोग बने रहें। ३. (सः) = वह व्याधि (मासानां) = मासों के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। इसीप्रकार (सः) = वह (अर्थमासानां) = अर्धमासों [पक्षों] के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। उस उस मास व पक्ष के अनुसार अपनी चर्या को करते हुए हम नौरोग बनें। ४. (सः) = यह रोग (अहोरात्र्यो:) = दिन-रात के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। (सः) = वह संयतो (अह्नो:) = [be formed in rows] क्रम में स्थित दिनों के (पाशात्) = पाश से (मा मोचि) = मत मुक्त हो। 'दिन के बाद रात और रात के बाद दिन' इसप्रकार दिन-रात चलते ही रहते हैं। दिन कार्य के लिए है और रात्रि आराम के लिए। इनके व्यवहार के ठीक होने पर रोगों से बचाव रहता है। यह 'काम और आराम' का क्रम टूटते ही रोग आने लगते हैं। 'रात्री जागरणं रूक्षं स्निग्धं प्रस्वपनं दिवा'। ५. (सः) = वह रोग (द्यावापृथिव्यो:) = द्यावापृथिवी के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। 'द्यावा' मस्तिष्क है, 'पृथिवी' शरीर है। हम इन्हें क्रमशः दीप्त व दृढ़ बनाएँ और इसप्रकार नीरोग जीवनवाले हों। (सः) = वह रोग (इन्द्राग्न्यो:) = इन्द्र और अग्नि के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। 'इन्द्र' जितेन्द्रियता का प्रतीक है, 'अग्नि' प्रगति का। जितेन्द्रियता व प्रगतिशीलता हमें नीरोग बनाएँ। (सः) = वह (मित्रावरुणयो:) = मित्र और वरुण के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। हम मित्र-स्नेहवाले व वरुण-निष बनकर रोगों के शिकार होने से बचें। (सः) = वह रोग राज्ञः वरुणस्य-राजा वरुण के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। 'राजा' का भाव है-व्यवस्थित जीवनवाला [well regulated] और अतएव वरुण-श्रेष्ठ व्यक्ति रोगों का शिकार नहीं होता। ६. (सः) = वह रोग (मृत्यो पड्बीशात्) = मृत्यु के पादबन्धनरूप (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। जब हम इस बात को भूलते नहीं कि 'यस्त्वा मृत्युरभ्यधत्त जायमानं सुपाशया'। हमें पैदा होने के साथ ही मृत्यु उत्तम पाशों से जकड़ लेती है तो हम युक्ताहार-विहार करते हुए स्वस्थ बने रहते हैं और उन्नतिपथ पर आगे बढ़ते हैं।
भावार्थ
नीरोग बनने का मार्ग यह है कि [क] हम वानस्पतिक पदार्थों का ही सेवन करें। [ख] ऋतुचर्या का ध्यान करें। [ग] प्रत्येक मास व पक्ष का ध्यान करते हुए हमारा खान पान हो। [घ] दिन में सोएँ नहीं, रात्रि में जागें नहीं। [ङ] मस्तिष्क और शरीर दोनों का ध्यान करें। [च] जितेन्द्रिय व प्रगतिशील हों। [छ] स्नेह व निषता को अपनाएँ। [ज] व्यवस्थित जीवनवाले हों। [झ] मृत्यु को न भूल जाएँ।
भाषार्थ
(जितमस्माकमुद्भिन्नमस्माकमृतमस्माकं तेजोऽस्माकं ब्रह्मास्माकंस्वरस्माकंयज्ञोऽस्माकं पशवोऽस्माकं प्रजा अस्माकं वीराअस्माकम्) अर्थ पूर्ववत् (मन्त्र १)। (तस्मादमुं निर्भजामोऽमुमामुष्यायणममुष्याः पुत्रमसौ यः) अर्थ पूर्ववत् (मन्त्र २)। (सः) वह अपराधी (वरुणस्य) सर्वश्रेष्ठ, वरणीय (राज्ञः) ब्रह्माण्ड के राजा परमेश्वर के (पाशात्) पाश अर्थात् बन्धन से (मोचि, मा) मुक्त न हो। (तस्येदं वर्चस्तेजः प्राणमायुर्निवेष्टयामीदमेनमधराञ्चं पादयामि) अर्थ पूर्ववत् (मन्त्र ४)।
टिप्पणी
[मन्त्र २८ में मित्र के साथ वरुण का कथन हुआ है, और मन्त्र २९ में “राज्ञः, वरुणस्य" का कथन हुआ है। इस लिये दो मन्त्रों में पठति "वरुण" के भिन्न भिन्न अर्थ होने चाहियें। अथर्ववेद ४।१६।१-९ के "द्वौ निषद्य यन्मन्त्रयेते राजा तद् वेद वरुणस्तृतीयः” (मन्त्र २) में, तथा उतेयं भूमिः वरुणस्य राज्ञ उतासौ द्यौर्बृहती दूरे-अन्ता" (मन्त्र ३) में, तथा "न स मुच्यातै वरुणस्य राज्ञः (मन्त्र ४) में, तथा "सर्व तद् राजा वरुणो विचष्टे (मन्त्र ५) में राजा-वरुण का वर्णन हुआ है, जो कि परमेश्वर है। अथर्व सूक्त ४।१६ के ४, ६, ७ मन्त्रों में राजा वरुण के पाशों का वर्णन हुआ है। इन पाशों के सम्बन्ध में कहा है कि ये पाश "दिव्य स्पश" अर्थात् दिव्य गुप्तचर हैं, जो कि सहस्राक्ष है, भूमि को दूर तक देख रहे हैं (मन्त्र ४); तथा वरुण के पाश अनृतवादी को तो छिन्न-भिन्न करते हैं, और सत्यवादी को छिन्न-भिन्न नहीं करते (मन्त्र ६); तथा हे वरुण ! तू सेंकड़ों पाशों द्वारा इन अनृतवादी को बान्ध, अनृतवादी तेरे पाशों से छूटा न रहे (मन्त्र ७)। परराष्ट्र को पराधीन करने तथा उस की सम्पत्ति को हथियाने के लिये युद्ध करना स्वयं अनृत व्यवहार है। अतः ऐसे अनृतवादी तथा अनृत व्यवहारी लोग, वरुण-राजा के पाशों से मुक्त नहीं हो सकते। वैदिक राष्ट्र यदि पर राष्ट्र पर आक्रमण करता है, तो वह परराज्य तथा उस की सम्पत्ति के लोभ से प्रेरित हो कर नहीं करता, अपितु उन के चित्तों को सत्यमार्ग पर लाने के लिये ही आक्रमण करता है। यथा “जहि प्रतीचो अनूचः पराचो विष्वक्सत्यं कृणुहि चित्तमेषाम्" (अथर्व० ३।१।४)। इस लिये राजा वरुण के पाशों से वैदिक राष्ट्र उन्मुक्त रहता है। जैसे कि कहा है कि "यः सत्यवादी, अति तं सृजन्तु" (अथर्व० ४।१६।६)। अति सृजन्तु = छोड़ दें]
विषय
विजयोत्तर शत्रुदमन।
भावार्थ
(सः) वह (संयतोः अन्होः) गुजरते हुए दो दिनों के, (द्यावापृथिव्योः) द्यौ और पृथिवी के, (इन्द्राग्न्योः) इन्द्र और अग्नि के, (मित्रावरुणयोः) मित्र और वरुण के और (राज्ञः वरुणस्य) राजा वरुण के (पाशात् मा मोचि) पाशसे मुक्त न हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-२७ (प्र०) एकपदा यजुर्बाह्मनुष्टुभः, १-२७ (द्वि०) निचृद् गायत्र्यः, १ तृ० प्राजापत्या गायत्री, १-२७ (च०) त्रिपदाः प्राजापत्या स्त्रिष्टुभः, १-४, ९, १७, १९, २४ आसुरीजगत्य:, ५, ७, ८, १०, ११, १३, १८ (तृ०) आसुरीत्रिष्टुभः, ६, १२, १४, १६, २०, २३, २६ आसुरीपंक्तयः, २४, २६ (तृ०) आसुरीबृहत्यौ, त्रयस्त्रिशदृचमष्टमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
What is won is ours, what is uncovered and recovered is ours, Rtam, universal truth and law is ours, splendour and brilliance is ours, Brahma, universal knowledge of the Veda, is ours, Svah, universal peace and divine joy is ours, yajna is ours, wealth and cattle is ours, people are ours, heroic brave are ours. For this reason now, from all that, we alienate that dreamer of evil dreams who is the son of such and such father and such and such mother. Let him never be released from the bonds and chains of the law of ruling Varuna, enlightened ruler of the world. And here now I arrest, delimit and freeze his honour and lustre, pranic energy, and life and age, and thus I put him down at the lowest.
Translation
Ours be the conquest, ours the rise up; ours the righteousness; ours the brilliance; ours the knowledge: ours the bliss; ours the-sacrifice; ours the cattle; outs the progeny; ours be the heroic sons. From sharing that we exclude so and so, the descendant of so and so, the son of so and so mother, that yonder one. May he not be released from the noose of the venerable king. Now I wrap up his lustre, brilliance, vital breath and life-span. Here I make him fall down below.
Translation
May----noose of resplendent watery substance- beneath me.
Translation
Let us be victorious. Let us be prosperous. Let us be truthful. Let us be energetic. Let us be learned. Let our soul advance. Let our sacrifice be fruitful. Let us own cattle. Let our progeny progress. Let us have brave/ soldiers. We banish him from the country, for his aggression, who belongs to such a family, is the son of such a woman, and is the enemy of the country. Let him not be freed from the control of the excellent King. I bind up his splendor, his energy, his vital breath, his life, and cast him down beneath me.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२९−(राज्ञः) भूपतेः (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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