अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 31
ऋषिः - दुःस्वप्ननासन
देवता - त्रिपदा निचृत गायत्री
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
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तस्मा॑द॒मुंनिर्भ॑जामो॒ऽमुमा॑मुष्याय॒णम॒मुष्याः॑ पु॒त्रम॒सौ यः ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मा॑त् । अ॒मुम् । नि: । भ॒जा॒म॒: । अ॒मुम् । आ॒मु॒ष्या॒य॒णम् । अ॒मुष्या॑: । पु॒त्रम् । अ॒सौ । य: ॥८.३१॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्मादमुंनिर्भजामोऽमुमामुष्यायणममुष्याः पुत्रमसौ यः ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मात् । अमुम् । नि: । भजाम: । अमुम् । आमुष्यायणम् । अमुष्या: । पुत्रम् । असौ । य: ॥८.३१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रु के नाश करने का उपदेश।
पदार्थ
(तस्मात्) उस [पद] से (अमुम्) अमुक (अमुम्) अमुक पुरुष (आमुष्यायणम्) अमुक पुरुष के सन्तान, (अमुष्याः) अमुक स्त्री के (पुत्रम्) पुत्र को (निः भजामः) हम भागरहित करतेहैं, (असौ यः) वह जो [कुमार्गी] है−[म० २] ॥३१॥
भावार्थ
विद्वान् धर्मवीर राजासुवर्ण आदि धन और सब सम्पत्ति का सुन्दर प्रयोग करे और अपने प्रजागण और वीरों कोसदा प्रसन्न रख कर कुमार्गियों को कष्ट देकर नाश करे॥३१॥
विषय
शारीर 'रोगरूप' शत्रुओं का प्रतीकार
पदार्थ
१. हम विजय आदि दशों रत्नों को प्राप्त करें। इसी उद्देश्य से शरीर में उत्पन्न हो जानेवाले रोगरूप शत्रुओं को नष्ट करें। (सः) = वह रोगरूप शत्रु (वनस्पतीनां) = वनस्पतियों के (पाशात्) = पाशों से (मा मोचि) = मत मुक्त हो, अर्थात् बनस्पतियों का प्रयोग इन रोगों के नाश का कारण बने। (सः) = वह रोग (वानस्पत्यानाम्) = वनस्पति से प्राप्त पदार्थों के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्क हो, अर्थात् वानस्पत्य भोजनों को करते हुए हम रोगों का शिकार न हों। २. (सः) = वह रोग (ऋतूनाम्) = ऋतुओं के (पाशात्) = पाश से (मा मोचि) = मत मुक्त हो। ऋतुचर्या का ठीक से पालन हमें रोगाक्रान्त होने से बचाए। (सः) = बह रोग (आर्तवानाम्) = उस-उस ऋतु में होनेवाले पदार्थों के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। हम ऋतु के पदार्थों का प्रयोग करते हुए नीरोग बने रहें। ३. (सः) = वह व्याधि (मासानां) = मासों के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। इसीप्रकार (सः) = वह (अर्थमासानां) = अर्धमासों [पक्षों] के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। उस उस मास व पक्ष के अनुसार अपनी चर्या को करते हुए हम नौरोग बनें। ४. (सः) = यह रोग (अहोरात्र्यो:) = दिन-रात के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। (सः) = वह संयतो (अह्नो:) = [be formed in rows] क्रम में स्थित दिनों के (पाशात्) = पाश से (मा मोचि) = मत मुक्त हो। 'दिन के बाद रात और रात के बाद दिन' इसप्रकार दिन-रात चलते ही रहते हैं। दिन कार्य के लिए है और रात्रि आराम के लिए। इनके व्यवहार के ठीक होने पर रोगों से बचाव रहता है। यह 'काम और आराम' का क्रम टूटते ही रोग आने लगते हैं। 'रात्री जागरणं रूक्षं स्निग्धं प्रस्वपनं दिवा'। ५. (सः) = वह रोग (द्यावापृथिव्यो:) = द्यावापृथिवी के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। 'द्यावा' मस्तिष्क है, 'पृथिवी' शरीर है। हम इन्हें क्रमशः दीप्त व दृढ़ बनाएँ और इसप्रकार नीरोग जीवनवाले हों। (सः) = वह रोग (इन्द्राग्न्यो:) = इन्द्र और अग्नि के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। 'इन्द्र' जितेन्द्रियता का प्रतीक है, 'अग्नि' प्रगति का। जितेन्द्रियता व प्रगतिशीलता हमें नीरोग बनाएँ। (सः) = वह (मित्रावरुणयो:) = मित्र और वरुण के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। हम मित्र-स्नेहवाले व वरुण-निष बनकर रोगों के शिकार होने से बचें। (सः) = वह रोग राज्ञः वरुणस्य-राजा वरुण के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। 'राजा' का भाव है-व्यवस्थित जीवनवाला [well regulated] और अतएव वरुण-श्रेष्ठ व्यक्ति रोगों का शिकार नहीं होता। ६. (सः) = वह रोग (मृत्यो पड्बीशात्) = मृत्यु के पादबन्धनरूप (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। जब हम इस बात को भूलते नहीं कि 'यस्त्वा मृत्युरभ्यधत्त जायमानं सुपाशया'। हमें पैदा होने के साथ ही मृत्यु उत्तम पाशों से जकड़ लेती है तो हम युक्ताहार-विहार करते हुए स्वस्थ बने रहते हैं और उन्नतिपथ पर आगे बढ़ते हैं।
भावार्थ
नीरोग बनने का मार्ग यह है कि [क] हम वानस्पतिक पदार्थों का ही सेवन करें। [ख] ऋतुचर्या का ध्यान करें। [ग] प्रत्येक मास व पक्ष का ध्यान करते हुए हमारा खान पान हो। [घ] दिन में सोएँ नहीं, रात्रि में जागें नहीं। [ङ] मस्तिष्क और शरीर दोनों का ध्यान करें। [च] जितेन्द्रिय व प्रगतिशील हों। [छ] स्नेह व निषता को अपनाएँ। [ज] व्यवस्थित जीवनवाले हों। [झ] मृत्यु को न भूल जाएँ।
भाषार्थ
अर्थ पूर्ववत् (मन्त्र २)।
विषय
विजयोत्तर शत्रुदमन।
भावार्थ
(जितम्० इत्यादि) पूर्ववत्। (तस्मादमुम्० इत्यादि) पूर्ववत् (सः मृत्योः) वह मृत्यु के (पड्वीशात्) चरण में पड़ने वाले (पाशात्) पाश से (मा मोचि) छूटने न पावे। (तस्य इदं वर्च० इत्यादि) पूर्ववत् ऋचा १-४॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-२७ (प्र०) एकपदा यजुर्बाह्मनुष्टुभः, १-२७ (द्वि०) निचृद् गायत्र्यः, १ तृ० प्राजापत्या गायत्री, १-२७ (च०) त्रिपदाः प्राजापत्या स्त्रिष्टुभः, १-४, ९, १७, १९, २४ आसुरीजगत्य:, ५, ७, ८, १०, ११, १३, १८ (तृ०) आसुरीत्रिष्टुभः, ६, १२, १४, १६, २०, २३, २६ आसुरीपंक्तयः, २४, २६ (तृ०) आसुरीबृहत्यौ, त्रयस्त्रिशदृचमष्टमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
For this reason, now that we are free and all is ours, we alienate that dreamer of evil dreams (who had deprived us of our identity and freedom), scion of such and such lineage, son of such and such mother, from all that he had grabbed.
Translation
From sharing that we exclude so and so, the descendant of So and so, the son of so and so mother, that yonder one.
Translation
Therefore, I drive away that who is such-a-one descendant of such-a-one and son of such a woman.
Translation
We banish him from the country, for his aggression, who belongs to such a family, is the son of such a woman, and is the enemy of the country.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
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