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अथर्ववेद के काण्ड - 16 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 4
    ऋषिः - दुःस्वप्ननासन देवता - त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप् छन्दः - यम सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
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    तस्ये॒दंवर्च॒स्तेजः॑ प्रा॒णमायु॒र्नि वे॑ष्टयामी॒दमे॑नमध॒राञ्चं॑ पादयामि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्य॑ । इ॒दम् । वर्च॑: । तेज॑: । प्रा॒णम् । आयु॑: । नि । वे॒ष्ट॒या॒मि॒ । इ॒दम् । ए॒न॒म् । अ॒ध॒राञ्च॑म् । पा॒द॒या॒मि॒ ॥८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्येदंवर्चस्तेजः प्राणमायुर्नि वेष्टयामीदमेनमधराञ्चं पादयामि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्य । इदम् । वर्च: । तेज: । प्राणम् । आयु: । नि । वेष्टयामि । इदम् । एनम् । अधराञ्चम् । पादयामि ॥८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 8; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रु के नाश करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (तस्य) उस [कुमार्गी]के (इदम्) अब (वर्चः) प्रताप, (तेजः) तेज, (प्राणम्) प्राण और (आयुः) जीवन को (नि वेष्टयामि) मैं लपेटे लेता हूँ, (इदम्) अब (एनम्) इस [कुमार्गी] को (अधराञ्चम्) नीचे (पादयामि) लतियाता हूँ ॥४॥

    भावार्थ

    विद्वान् धर्मवीर राजासुवर्ण आदि धन और सब सम्पत्ति का सुन्दर प्रयोग करे और अपने प्रजागण और वीरों कोसदा प्रसन्न रख कर कुमार्गियों को कष्ट देकर नाश करे ॥१-४॥

    टिप्पणी

    १−आगे के सब मन्त्रोंका भावार्थ इस भावार्थ के समान है ॥ २−मन्त्र १, २, ४ कुछ भेद आ चुके हैं-अ०१०।५।३६ ॥४−(तस्य) कुमार्गणः पुरुषस्य (इदम्) इदानीम् (वर्चः) प्रतापम् (तेजः)प्रकाशम् (प्राणम्) श्वासव्यापारम् (आयुः) जीवनम् (नि) नितराम् (वेष्टयामि)आच्छादयामि (इदम्) इदानीम् (एनम्) कुमार्गिणम् (अधराञ्चम्) अधोगतम् (पादयामि)पादेन प्रहरामि ॥

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    विषय

    जितम् उद्भिन्नम् मृतम्

    पदार्थ

    १. [क] (अस्माकं जितम्) = हमारी विजय हो-हम अन्त: व बाह्य शत्रुओं को जीतनेवाले बनें। इन शत्रुओं को जीतकर (उद्भिन्नम् अस्माकम्) = हमारा उत्थान हो। जिस प्रकार पृथिवी को विदीर्ण करके अंकुर ऊपर आ जाता है, उसी प्रकार हम शत्रुओं को विदीर्ण करके ऊपर उठनेवाले हों। (ऋतम् अस्माकम्) = शत्रुओं को पराजित करके हम ऋत को प्राप्त करें। हम अपनी सब भौतिक क्रियाओं में सूर्य-चन्द्र की भाँति ऋत का पालन करें। असमय में भोजनादि करने से रोगों के कारण हम मृत्यु का शिकार न हो जाएँ। [ख] (तेजः अस्माकम्, ब्रह्म अस्माकम्) = शत्रु-विजय के परिणामस्वरूप ही हमारा तेज हो और हमारा ज्ञान हो। यह शत्रु-विजय हमें शरीर में तेजस्वी बनाए और मस्तिष्क में ज्ञानदीप्त। [ग] तेजस्वी व ज्ञानदीप्त बनने पर (स्वः अस्माकम, यज्ञः अस्माकम्) = हमारे हृदय में आत्मप्रकाश हो तथा हमारे हाथों में यज्ञ हों। जहाँ हृदय में हम आत्मप्रकाश को देखें, वहाँ हाथों से सदा यज्ञों में प्रवृत्त रहें। [घ] अब इन यज्ञों के होने पर (अस्माकं पशवः, अस्माकं प्रजाः, अस्माकं वीरा:) = हमारे पास उत्तम पशु हों, हमारी सन्ताने उत्तम हों और हमारे सब पुरुष वीर हों। २. (तस्मात्) = अपनी प्रजाओं व वीरों को उत्तम बनाने के द्वारा (अमुम् निर्भजामः) = हम उस शत्रु को दूर भगा देते हैं, (आमुष्यायणम्) = जो अमुक गोत्र का है, (अमुष्या पुत्रम्) = अमुक का पुत्र है, (असौ य:) = जो वह है। ३. (स:) = वह हमारा शत्रु (ग्राह्या: पाशात्) = जकड़ लेनेवाले रोग के पाश से (मा मोचि) = मत छूटे। यह शत्रुता का भाव ही उसके इन रोगों का कारण बने। ४. (तस्य) = उसके (इदम्) = इस (वर्चः तेजः प्राणं आयु:) = वीर्य, बल, प्राणशक्ति व आयु को (निवेष्टयामि) = मैं वेष्टित किये लेता हूँ-घेर लेता हूँ और (इदम्) = [इदानीम्] अब (एनम्) = इसको (अधराञ्चं पादयामि) = नीचे गिरा देता हूँ-पाँव तले रौंद डालता हूँ। शत्रुओं को जीतकर ही सब प्रकार की उन्नति सम्भव है।

    भावार्थ

    इस जीवन में विजय व उन्नति को प्राप्त होते हुए हम ऋत का पालन करें। शरीर में तेजस्वी हों, मस्तिष्क में ज्ञानपूर्ण, हृदय में आत्मप्रकाशवाले व हार्थों में यज्ञोंवाले बनें। हमारे पशु, प्राण व वीर सब उत्तम हों। शत्रुओं को हम पराजित कर दूर भगा दें। वे शत्रु शत्रुता के कारण ही रोगों का शिकार हो जाएँ। उनके वीर्य, बल, प्राण व आयु को हम नष्ट कर सकें। उन्हें पराजित करके उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ें।

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    भाषार्थ

    (तस्य) उस के (इदम्) इस (वर्चः) दीप्ति को, (तेजः) तेज को, (प्राणम्) प्राण या जीवनीय अन्न को, (आयुः) आयु को (नि वेष्टयामि) कारागार के घेरे में घेर देता हूँ, (इदम्) अब (अधराञ्चम्, एनम्) इस नीचगति वाले को (पादयामि) निज पादतले करता हूं।

    टिप्पणी

    [विजयी राजा पराजित राष्ट्र के मुख्य-मुख्य अधिकारियों के लिये दण्ड विधान करता है:— १. पराजित राजा की राष्ट्र सम्पत्तियों पर स्वाधिकार करना, २. पराजित राज्य के अधिकारियों को उन के निज देश निवास से वञ्चित कर देना; ३. पाशों अर्थात् हथकड़ी आदि फन्दों में जकड़ देना; ४. उन की शान आदि को कम कर देना, अर्थात् उनका साधारण रहन-सहन कर देना; ५. उन्हें जेल में रखना; ६. उन के खान-पान में नियन्त्रण; ७. कइयों को आयु भर जेल में रखना; ८. उन्हें अपने पैरों तले बिठाना, अर्थात् अपने समक्ष उच्चासन न देना। तेजः=martial or heroic lustre; majestic lustre (आप्टे) वेष्टयामि, वेष्टन = To surround, enclose, Fencing (आप्टे)। प्राणम् = अन्नं वै प्राणिनां प्राणः। कैदियों के अन्न पर विशेष निगरानी चाहिये, ताकि वे अवाञ्छित का ग्रहण न कर सकें। वर्चः, तेजः= हाथी में वर्चस् होता है, और शेर में तेजस्]

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    विषय

    विजयोत्तर शत्रुदमन।

    भावार्थ

    (अस्माकम् जितम्) हमारा विजय है। (अस्माकम् उद्भिन्नम्) हमारा ही यह फल उत्पन्न हुआ है। (ऋतम् अस्माकम्) यह अन्न और राष्ट्र हमारा है। (तेजः अस्माकम्) यह तेज, क्षात्रबल हमारा है। (ब्रह्म अस्माकम्) यह समस्त वेद और वेद के विद्वान् ब्राह्मण हमारे हैं (स्वः अस्माकम्) यह समस्त सुखकारक पदार्थ और आकाश भाग भी हमारा है (यज्ञः अस्माकम्) यह यज्ञ, परस्पर सत्संग और दान और राष्ट्र आदि के समस्त कार्य हमारे अधीन हैं। (पशवः अस्माकम्) ये समस्त पशु हमारे हैं। (प्रजाः अस्माकम्) ये समस्त प्रजाएं हमारी हैं और (वीराः अस्माकम्) ये सब वीर सैनिक भी हमारे हैं। (तस्मात् अमुम् निर्भजामः) इसलिये उस शत्रु को हम इस राष्ट्र से निकालते हैं (अमुष्यायणम् अमुष्याः पुत्रम् यः असौ) अमुक वंश के, अमुक स्त्री के पुत्र और वह जो हमारा शत्रु है उसको हम राष्ट्र से निकालते, बेदखल करते हैं। (सः) वह (ग्राह्याः) अपराधी लोगों को पकड़ लेने वाली शक्ति के (पाशात्) पाश, दण्ड धारा से (मा माचि) न छुटने पावे। (तस्य) उसका (इदं-वर्चः) यह बल (तेजः) वीर्य (प्राणम् आयुः) प्राण आयु सब को (नि वेष्टयामि) वांध लेता हूं, काबू कर लेता हूं। (इदम्) यह अब मैं (एनम्) उसको (अधराञ्चं पादयामि) नीचे गिराता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-२७ (प्र०) एकपदा यजुर्बाह्मनुष्टुभः, १-२७ (द्वि०) निचृद् गायत्र्यः, १ तृ० प्राजापत्या गायत्री, १-२७ (च०) त्रिपदाः प्राजापत्या स्त्रिष्टुभः, १-४, ९, १७, १९, २४ आसुरीजगत्य:, ५, ७, ८, १०, ११, १३, १८ (तृ०) आसुरीत्रिष्टुभः, ६, १२, १४, १६, २०, २३, २६ आसुरीपंक्तयः, २४, २६ (तृ०) आसुरीबृहत्यौ, त्रयस्त्रिशदृचमष्टमं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    And here I arrest and freeze his honour, lustre, pranic energy and his life and age, and here I place him down at the lowest.

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    Translation

    Now I wrap up his lustre, brilliance, vital breath and lifespan. Here I make him fall down below.

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    Translation

    I bind up his splendor, energy, his vital breath and his life and cast him down beneath me.

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    Translation

    I bind up his splendor, his energy, his vital breath, his life, and cast him down beneath me.

    Footnote

    I: A king.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−आगे के सब मन्त्रोंका भावार्थ इस भावार्थ के समान है ॥ २−मन्त्र १, २, ४ कुछ भेद आ चुके हैं-अ०१०।५।३६ ॥४−(तस्य) कुमार्गणः पुरुषस्य (इदम्) इदानीम् (वर्चः) प्रतापम् (तेजः)प्रकाशम् (प्राणम्) श्वासव्यापारम् (आयुः) जीवनम् (नि) नितराम् (वेष्टयामि)आच्छादयामि (इदम्) इदानीम् (एनम्) कुमार्गिणम् (अधराञ्चम्) अधोगतम् (पादयामि)पादेन प्रहरामि ॥

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