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अथर्ववेद के काण्ड - 16 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 33
    ऋषिः - दुःस्वप्ननासन देवता - त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप् छन्दः - यम सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
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    तस्ये॒दंवर्च॒स्तेजः॑ प्रा॒णमायु॒र्नि वे॑ष्टयामी॒दमे॑नमध॒राञ्चं॑ पादयामि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्य॑ । इ॒दम् । वर्च॑: । तेज॑: । प्रा॒णम् ।वायु॑: । नि । वे॒ष्ट॒या॒मि॒ । इ॒दम् । ए॒न॒म् । अ॒ध॒राञ्च॑म् । पा॒द॒या॒मि॒ ॥८.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्येदंवर्चस्तेजः प्राणमायुर्नि वेष्टयामीदमेनमधराञ्चं पादयामि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्य । इदम् । वर्च: । तेज: । प्राणम् ।वायु: । नि । वेष्टयामि । इदम् । एनम् । अधराञ्चम् । पादयामि ॥८.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 8; मन्त्र » 33
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    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रु के नाश करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (तस्य) उस [कुमार्गी]के (इदम्) अब (वर्चः) प्रताप, (तेजः) तेज, (प्राणम्) प्राण और (आयुः) जीवन को (नि वेष्टयामि) मैं लपेटे लेता हूँ, (इदम्) अब (एनम्) इस [कुमार्गी] को (अधराञ्चम्) नीचे (पादयामि) लतियाता हूँ−[म० ४] ॥३३॥

    भावार्थ

    विद्वान् धर्मवीर राजासुवर्ण आदि धन और सब सम्पत्ति का सुन्दर प्रयोग करे और अपने प्रजागण और वीरों कोसदा प्रसन्न रख कर कुमार्गियों को कष्ट देकर नाश करे॥३३॥

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    विषय

    शारीर 'रोगरूप' शत्रुओं का प्रतीकार

    पदार्थ

    १. हम विजय आदि दशों रत्नों को प्राप्त करें। इसी उद्देश्य से शरीर में उत्पन्न हो जानेवाले रोगरूप शत्रुओं को नष्ट करें। (सः) = वह रोगरूप शत्रु (वनस्पतीनां) = वनस्पतियों के (पाशात्) = पाशों से (मा मोचि) = मत मुक्त हो, अर्थात् बनस्पतियों का प्रयोग इन रोगों के नाश का कारण बने। (सः) = वह रोग (वानस्पत्यानाम्) = वनस्पति से प्राप्त पदार्थों के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्क हो, अर्थात् वानस्पत्य भोजनों को करते हुए हम रोगों का शिकार न हों। २. (सः) = वह रोग (ऋतूनाम्) = ऋतुओं के (पाशात्) = पाश से (मा मोचि) = मत मुक्त हो। ऋतुचर्या का ठीक से पालन हमें रोगाक्रान्त होने से बचाए। (सः) = बह रोग (आर्तवानाम्) = उस-उस ऋतु में होनेवाले पदार्थों के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। हम ऋतु के पदार्थों का प्रयोग करते हुए नीरोग बने रहें। ३. (सः) = वह व्याधि (मासानां) = मासों के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। इसीप्रकार (सः) = वह (अर्थमासानां) = अर्धमासों [पक्षों] के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। उस उस मास व पक्ष के अनुसार अपनी चर्या को करते हुए हम नौरोग बनें। ४. (सः) = यह रोग (अहोरात्र्यो:) = दिन-रात के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। (सः) = वह संयतो (अह्नो:) = [be formed in rows] क्रम में स्थित दिनों के (पाशात्) = पाश से (मा मोचि) = मत मुक्त हो। 'दिन के बाद रात और रात के बाद दिन' इसप्रकार दिन-रात चलते ही रहते हैं। दिन कार्य के लिए है और रात्रि आराम के लिए। इनके व्यवहार के ठीक होने पर रोगों से बचाव रहता है। यह 'काम और आराम' का क्रम टूटते ही रोग आने लगते हैं। 'रात्री जागरणं रूक्षं स्निग्धं प्रस्वपनं दिवा'। ५. (सः) = वह रोग (द्यावापृथिव्यो:) = द्यावापृथिवी के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। 'द्यावा' मस्तिष्क है, 'पृथिवी' शरीर है। हम इन्हें क्रमशः दीप्त व दृढ़ बनाएँ और इसप्रकार नीरोग जीवनवाले हों। (सः) = वह रोग (इन्द्राग्न्यो:) = इन्द्र और अग्नि के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। 'इन्द्र' जितेन्द्रियता का प्रतीक है, 'अग्नि' प्रगति का। जितेन्द्रियता व प्रगतिशीलता हमें नीरोग बनाएँ। (सः) = वह (मित्रावरुणयो:) = मित्र और वरुण के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। हम मित्र-स्नेहवाले व वरुण-निष बनकर रोगों के शिकार होने से बचें। (सः) = वह रोग राज्ञः वरुणस्य-राजा वरुण के (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। 'राजा' का भाव है-व्यवस्थित जीवनवाला [well regulated] और अतएव वरुण-श्रेष्ठ व्यक्ति रोगों का शिकार नहीं होता। ६. (सः) = वह रोग (मृत्यो पड्बीशात्) = मृत्यु के पादबन्धनरूप (पाशात् मा मोचि) = पाश से मत मुक्त हो। जब हम इस बात को भूलते नहीं कि 'यस्त्वा मृत्युरभ्यधत्त जायमानं सुपाशया'। हमें पैदा होने के साथ ही मृत्यु उत्तम पाशों से जकड़ लेती है तो हम युक्ताहार-विहार करते हुए स्वस्थ बने रहते हैं और उन्नतिपथ पर आगे बढ़ते हैं।

    भावार्थ

    नीरोग बनने का मार्ग यह है कि [क] हम वानस्पतिक पदार्थों का ही सेवन करें। [ख] ऋतुचर्या का ध्यान करें। [ग] प्रत्येक मास व पक्ष का ध्यान करते हुए हमारा खान पान हो। [घ] दिन में सोएँ नहीं, रात्रि में जागें नहीं। [ङ] मस्तिष्क और शरीर दोनों का ध्यान करें। [च] जितेन्द्रिय व प्रगतिशील हों। [छ] स्नेह व निषता को अपनाएँ। [ज] व्यवस्थित जीवनवाले हों। [झ] मृत्यु को न भूल जाएँ।

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    भाषार्थ

    अर्थ पूर्ववत् (मन्त्र ४)

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    विषय

    विजयोत्तर शत्रुदमन।

    भावार्थ

    (जितम्० इत्यादि) पूर्ववत्। (तस्मादमुम्० इत्यादि) पूर्ववत् (सः मृत्योः) वह मृत्यु के (पड्वीशात्) चरण में पड़ने वाले (पाशात्) पाश से (मा मोचि) छूटने न पावे। (तस्य इदं वर्च० इत्यादि) पूर्ववत् ऋचा १-४॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-२७ (प्र०) एकपदा यजुर्बाह्मनुष्टुभः, १-२७ (द्वि०) निचृद् गायत्र्यः, १ तृ० प्राजापत्या गायत्री, १-२७ (च०) त्रिपदाः प्राजापत्या स्त्रिष्टुभः, १-४, ९, १७, १९, २४ आसुरीजगत्य:, ५, ७, ८, १०, ११, १३, १८ (तृ०) आसुरीत्रिष्टुभः, ६, १२, १४, १६, २०, २३, २६ आसुरीपंक्तयः, २४, २६ (तृ०) आसुरीबृहत्यौ, त्रयस्त्रिशदृचमष्टमं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    And here now I arrest, delimit and freeze his honour and lustre, pranic energy, and life and age, and thus I cut him down to size and put him down at the lowest.

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    Translation

    Now I wrap up his lustre, brilliance, vital breath and lifespan. Here I make him fall down below.

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    Translation

    I bind up his splendours, energy, his vital breath and his life. and cast him down beneath me.

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    Translation

    I bind up his splendor, his energy, his vital breath, his life, and cast him down beneath me.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

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