अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 44/ मन्त्र 2
यो ह॑रि॒मा जा॒यान्यो॑ऽङ्गभे॒दो वि॒सल्प॑कः। सर्वं॑ ते॒ यक्ष्म॒मङ्गे॑भ्यो ब॒हिर्निर्ह॒न्त्वाञ्ज॑नम् ॥
स्वर सहित पद पाठयः। ह॒रि॒मा। जा॒यान्यः॑। अ॒ङ्ग॒ऽभे॒दः। वि॒ऽसल्प॑कः। सर्व॑म्। ते॒। यक्ष्म॑म्। अङ्गे॑भ्यः। ब॒हिः। निः। ह॒न्तु॒। आ॒ऽअञ्ज॑नम् ॥४४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यो हरिमा जायान्योऽङ्गभेदो विसल्पकः। सर्वं ते यक्ष्ममङ्गेभ्यो बहिर्निर्हन्त्वाञ्जनम् ॥
स्वर रहित पद पाठयः। हरिमा। जायान्यः। अङ्गऽभेदः। विऽसल्पकः। सर्वम्। ते। यक्ष्मम्। अङ्गेभ्यः। बहिः। निः। हन्तु। आऽअञ्जनम् ॥४४.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ब्रह्म की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (यः) जो (हरिमा) पीलिया रोग (जायान्यः) क्षयरोग, और (अङ्गभेदः) अङ्गों का तोड़नेवाला (विसल्पकः) विसल्पक [शरीर में फूटनेवाली हड़फूटन] है। (सर्वम्) सब (यक्ष्मम्) राजरोग को (ते) तेरे (अङ्गेभ्यः) अङ्गों से (आञ्जनम्) आञ्जन [संसार का प्रकट करनेवाला ब्रह्म] (बहिः) बाहिर (निः हन्तु) निकार मारे ॥२॥
भावार्थ
परमेश्वर के नियम पर चलनेवाला धर्मात्मा पुरुष शारीरिक और आत्मिक रोगों से ज्ञान द्वारा पृथक् रहे ॥२॥
टिप्पणी
२−(यः) (हरिमा) अ०१।२२।१। हरित-इमनिच् भावे। पाण्डुरोगः (जायान्यः) अ०७।७६।३। वदेरान्यः। उ०३।१०४। जै क्षये-आन्य। क्षयरोगः (अङ्गभेदः) अङ्गानां भेदकः (विसल्पकः) अ०६।१२७।१। वि+सृप सर्पणे-अच्, कन्, रस्य लः। शरीरे विसर्पणशीलो विसर्परोगः (सर्वम्) (ते) तव (यक्ष्मम्) राजरोगम् (अङ्गेभ्यः) शरीरावयवसकाशात् (बहिः) पृथक् (निः) नितराम् (हन्तु) नाशयतु (आञ्जनम्) म०१। संसारस्य व्यक्तिकारकं ब्रह्म। प्रलेपः ॥
भाषार्थ
(यः) जो (हरिमा) विषयों द्वारा इन्द्रियों का अपहरण है, (जायान्यः) जो जाया को जीवन का साधन समझना है, (अङ्गभेदः) जो अनुष्ठित योगाङ्गों में त्रुटि आ गई है, (विसल्पकः) जो चित्त का विविध विषयों में सर्पण करना है, इन (सर्वम्) सब (यक्ष्मम्) यक्ष्मरोग के समान त्रुटियों को (ते अङ्गेभ्यः) तेरे अङ्गों अर्थात् शरीरावयवों=इन्द्रियों तथा मन से (आञ्जनम्) परमेश्वर (बहिः निर्हन्तु) बाहिर निकाल फैंके। जायान्यः=जाया+अन्यः। अन्यः=अनिति जीवयतीति (उणा० ४.११०) बाहुलकात्।
टिप्पणी
[तथा—सुरमापक्ष में हरिमा अर्थात् पीलिया रोग; जायान्य अर्थात् जाया के सम्पर्क से उत्पन्न रोग; अङ्गभेद अर्थात् ज्वर या वातरोग के कारण अङ्गों का टूटना, विसल्पक अर्थात् विस्तारी अन्य रोग, तथा यक्ष्मरोग को आञ्जन अर्थात् सुरमा अलग करता है। जायान्यः= “यज्जायाभ्योऽविन्दत्” (तै० सं० २.३.५)। सायण इसकी व्याख्या करता है—“स च जायासम्बन्धेन प्राप्नोति। निरन्तरजायासम्भोगेन जायमानः।” जायान्यः= जायाजन्यः।]
विषय
हरिमा, जायान्य, अङ्गभेद, विसल्पक
पदार्थ
१. (यः) = जो (हरिमा) = हरिद् [पीले-से] वर्ण का पाण्डु नामक रोग है। (जायान्यः) = [जै क्षये] क्षीणता की ओर ले-जानेवाला क्षयरोग है। (अङ्गभेदः) = वातविकार से अंगों का टूटना है। (विसल्पक:) = विविध रूप से सरणशील व्रणविशेष [ऐग्जिमा] है। (आञ्जनम्) = यह वीर्यमणि (सर्व यक्ष्मम्) = सब रोगों को (ते अङ्गेभ्य:) = तेरे अंगों से (बहिः निर्हन्तु) = बाहर निकाल दे।
भावार्थ
सुरक्षित वीर्य पीलिया, क्षय, अंगभेद व त्वनोगों को विनष्ट करनेवाला है।
इंग्लिश (4)
Subject
Bhaishajyam
Meaning
whatever ailment of body, mind and sense as Harima, jaundice of body or mind, Jay any a, problems of sex relations, disorientation of the parts of body and the mind system, shooting pains, all these ailments, O man, let Anjana eliminate from all parts of your personality system.
Translation
What jaundice, venerabile disease, aching of limbs, and herpes are there - all those wasting diseases, may this ointment strike out of your limbs.
Translation
This ointment (of eye) is the strengthening of life and it is said to be a universal cure. Let this comfort-giving ointment give comfort and let relief-giving one give pleasure and it has been made danger less.
Translation
Whatever there is the jaundice, the diseases, caused by the contact with women aching of body, the Eczema, the consumption, let the Anjana drive out all these diseases from thy organs.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(यः) (हरिमा) अ०१।२२।१। हरित-इमनिच् भावे। पाण्डुरोगः (जायान्यः) अ०७।७६।३। वदेरान्यः। उ०३।१०४। जै क्षये-आन्य। क्षयरोगः (अङ्गभेदः) अङ्गानां भेदकः (विसल्पकः) अ०६।१२७।१। वि+सृप सर्पणे-अच्, कन्, रस्य लः। शरीरे विसर्पणशीलो विसर्परोगः (सर्वम्) (ते) तव (यक्ष्मम्) राजरोगम् (अङ्गेभ्यः) शरीरावयवसकाशात् (बहिः) पृथक् (निः) नितराम् (हन्तु) नाशयतु (आञ्जनम्) म०१। संसारस्य व्यक्तिकारकं ब्रह्म। प्रलेपः ॥
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