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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 44/ मन्त्र 7
    ऋषिः - भृगुः देवता - आञ्जनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भैषज्य सूक्त
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    वी॒दं मध्य॒मवा॑सृपद्रक्षो॒हामी॑व॒चात॑नः। अमी॑वाः॒ सर्वा॑श्चा॒तय॑न्ना॒शय॑दभि॒भा इ॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि। इ॒दम्। मध्य॑म्। अव॑। अ॒सृ॒प॒त्। र॒क्षः॒ऽहा। अ॒मी॒व॒ऽचात॑नः। अमी॑वाः। सर्वाः॑। चा॒तय॑त्। ना॒शय॑त्। अ॒भि॒ऽभाः। इ॒तः ॥४४.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वीदं मध्यमवासृपद्रक्षोहामीवचातनः। अमीवाः सर्वाश्चातयन्नाशयदभिभा इतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि। इदम्। मध्यम्। अव। असृपत्। रक्षःऽहा। अमीवऽचातनः। अमीवाः। सर्वाः। चातयत्। नाशयत्। अभिऽभाः। इतः ॥४४.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 44; मन्त्र » 7
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्म की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (रक्षोहा) राक्षसों का मारनेवाला, (अमीवचातनः) रोगनाशक [परमात्मा] (इदम्) इस (मध्यम्) मध्यस्थान में (वि अव असृपत्) सरक आया है। (इतः) यहाँ से (सर्वाः) सब (अमीवाः) पीड़ाओं को (चातयत्) हटाता हुआ, और (अभिभाः) विपत्तियों को (नाशयत्) नाश करता हुआ [ब्रह्म वर्तमान है] ॥७॥

    भावार्थ

    सर्वव्यापक परमात्मा को साक्षात् करके मनुष्य सब विघ्नों को हटावे ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(वि) विविधम् (इदम्) दृश्यमानम् (मध्यम्) मध्यस्थानम् (अव असृपत्) सर्पणेन व्याप्तवान् (रक्षोहा) राक्षसानां हन्ता (अमीवचातनः) रोगनाशकः परमात्मा (अमीवाः) रोगान् (सर्वाः) (चातयत्) नाशयत् (नाशयत्) दूरीकुर्वत् (अभिभाः) अ०११।२।११। विपत्तीः (इतः) अस्मात् स्थानात् ॥

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    भाषार्थ

    (इदम्) यह परमेश्वररूप भेषज (मध्यम्) हृदयमध्य में जब (वि अवासृपद्) हृदय के विशिष्ट-स्थान में निजप्रकाशरूप में फैल जाता है, तब परमेश्वर (रक्षोहा) राक्षसी भावों का हनन करता, और (अमीवचातनः) रोगोत्पादक दुष्परिणामी अमीवानामक क्रिमियों को दूर करता है। (इतः) यहाँ से (सर्वाः) सब (अमीवाः) अमीवा क्रिमियों को (चातयन्) दूर करता हुआ, और (अभिभाः) आक्रमणकारी अन्य रोगक्रिमियों का (नाशयत्) नाश करता हुआ परमेश्वर निज प्रकाशरूप में फैल जाता है।

    टिप्पणी

    [परमेश्वर भेषज है (मन्त्र १, तथा ६)। तथा परमेश्वर को “सुभिषक्तमः” अर्थात् सर्वश्रेष्ठ चिकित्सक भी कहा है। यथा— “यश्चकार स निष्करत् स एव सुभिषक्तमः। स एव तुभ्यं भेषजानि कृणवद् भिषजा शुचिः” (अथर्व० २.९.५)। तथा— “हे जगदीश्वर! आप (भेषजम्) शरीर अन्तःकरण इन्द्रिय और गाय आदि पशुओं के रोग नाश करनेवाले (असि) हैं” (यजुः० ३.५९) दयानन्दभाष्य। मध्यम्= हृदय के भीतर परम व्योमात्मक ब्रह्मनाद है, जो कि तुरीय स्थान अर्थात् तुरीय-ब्रह्म के प्रकाश का स्थान है” (योग० १.३६) पर वाचस्पति टीका। अमीवाः=दुर्णामा क्रिमि, अर्थात् दुष्परिणामों को पैदा करनेवाला क्रिमि। यथा— “यस्ते गर्भममीवा दुर्णामा योनिमाशये। अग्निष्टं ब्रह्मणा सह निष्क्रव्यादमनीनशत्” (ऋ० १०.१६२.२)। “दुर्णामा क्रिमीर्भवति पापनामा” (निरु० ६.३.१२)। मन्त्र ऋ० १०.१६२.२ में अमीवा क्रिमि को योनि का क्रिमि कहा है। और इसके नाश के दो साधक कहे हैं, अग्नि (अग्निहोत्र?) तथा ब्रह्म (परमेश्वर)। आञ्जन-भेषज (सुरमा) के सम्बन्ध में मन्त्रार्थ स्पष्ट है। इस संबंध में “मध्यम्” का अर्थ है शरीर का मध्यभाग, अर्थात् उदर और छाती में जब यह भेषज “वि असृपत्” विशेषतया फैल जाता है, तब यह रोगों का विनाश करता है। सब रोगों का उद्गमस्थान शरीर का मध्य स्थान ही है। पेट, हृदय और फेफड़ों के स्वस्थ रहते रोग आक्रमण नहीं करते।]

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    विषय

    'अमीवा:-अभिभाः' [नाशयत्]

    पदार्थ

    १. (इदम्) = यह शरीर को तेजस्विता से दीप्त करनेवाली 'आञ्जन-[वीर्य]-मणि' (मध्यं वि अवसृपत्) = शरीर के मध्यभाग में विशेषरूप से गतिवाली होती है। यह रक्षोहा रोगकृमियों का हनन करती है, (अमीवचातन:) = रोगों को विनष्ट करती है। २. यह (सर्वाः अमीवाः चातयन्) = सब रोगों का विनाश करती हुई (इत:) = यहाँ से (अभिभा:) = हमें अभिभूत करनेवाले विषय-विकारों को (नाशयत्) = नष्ट करे। शरीर से रोगों को दूर करे, मन से वासनाओं को।

    भावार्थ

    शरीर में ही गतिवाला होता हुआ वीर्य शरीर के रोगों की भाँति मानस विकारों को भी नष्ट करता है।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Bhaishajyam

    Meaning

    Devanjana, the divine light, is come, pervades and vibrates here in this heart core of the soul. Destroyer of destroyers, eliminator of diseases, removing all ailments, may, we pray, uproot all ominous negativities from here.

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    Translation

    Killer of harmful germs and expeller of disease, this (ointment) has come down in our midst, driving away all the diseases and making impending calamities vanish.

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    Translation

    Let this wondrous ointment protect me, who assumes three Organ groups : eyes, ears and nose from all sides. All these medicines which arc applied externally and which are available from mountaing do not surpass It.

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    Translation

    This very Anjana, the killer of gems, the remover of diseases has filtered into the middle of diseased part. Effacing all the ailments, let it put an end to all feelings of depression from me (i.e. the patient).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(वि) विविधम् (इदम्) दृश्यमानम् (मध्यम्) मध्यस्थानम् (अव असृपत्) सर्पणेन व्याप्तवान् (रक्षोहा) राक्षसानां हन्ता (अमीवचातनः) रोगनाशकः परमात्मा (अमीवाः) रोगान् (सर्वाः) (चातयत्) नाशयत् (नाशयत्) दूरीकुर्वत् (अभिभाः) अ०११।२।११। विपत्तीः (इतः) अस्मात् स्थानात् ॥

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