अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 44/ मन्त्र 6
देवा॑ञ्जन॒ त्रैक॑कुदं॒ परि॑ मा पाहि वि॒श्वतः॑। न त्वा॑ तर॒न्त्योष॑धयो॒ बाह्याः॑ पर्व॒तीया॑ उ॒त ॥
स्वर सहित पद पाठदेव॑ऽआञ्जन॑। त्रैक॑कुदम्। परि॑। मा॒। पा॒हि॒। वि॒श्वतः॑। न। त्वा॒। त॒र॒न्ति॒। ओष॑धयः। बाह्याः॑। प॒र्व॒तीयाः॑। उ॒त ॥४४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
देवाञ्जन त्रैककुदं परि मा पाहि विश्वतः। न त्वा तरन्त्योषधयो बाह्याः पर्वतीया उत ॥
स्वर रहित पद पाठदेवऽआञ्जन। त्रैककुदम्। परि। मा। पाहि। विश्वतः। न। त्वा। तरन्ति। ओषधयः। बाह्याः। पर्वतीयाः। उत ॥४४.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ब्रह्म की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
(देवाञ्जन) हे देवाञ्जन ! [दिव्यस्वरूप, संसार के प्रकट करनेवाले ब्रह्म] (त्रैककुदम्) तीन [आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक] सुखों का पहुँचानेवाला तू (मा) मुझे (विश्वतः) सब ओर (परिपाहि) बचाता रहे। (बाह्याः) बाहिरी [पर्वतों से भिन्न स्थानों में उत्पन्न] (उत) और (पर्वतीयाः) पहाड़ी (ओषधयः) ओषधियाँ (त्वा) तुझसे (न) नहीं (तरन्ति) बढ़कर होती हैं ॥६॥
भावार्थ
जो मनुष्य परमात्मा के नियमों पर चलते हैं, उन्हें भौतिक ओषधियों की आवश्यकता नहीं होती ॥६॥
टिप्पणी
६−(देवाञ्जन) हे दिव्य, हे संसारस्य व्यक्तिकारक ब्रह्म (त्रैककुदम्) अ०४।९।९-१०। त्रि+क+कुत्-अण्। कं सुखम्-निघ०३।६। कवते गतिकर्मा-निघ०२।१४। कुङ् गतिशोषणयोः-क्विप्, तुक् च, अन्तर्गतण्यर्थः तस्य दः आध्यात्मिकादीनि त्रीणि कानि सुखानि कावयति गमयतीति त्रिककुत्, स्वार्थे अण्, त्रिककुदमेव त्रिककुत्। त्रयाणां सुखानां प्रापकम् (परि) (मा) माम् (पाहि) रक्ष (विश्वतः) सर्वतः (न) निषेधे (त्वा) त्वाम् (तरन्ति) लङ्घयन्ति (ओषधयः) औषधानि (बाह्याः) बहिस्-ष्यञ्। बहिर्भवाः। पर्वतव्यतिरेकस्थलेषूत्पन्नाः (पर्वतीयाः) पर्वत-छ प्रत्ययः पर्वतेषु भवाः (उत) अपि च ॥
भाषार्थ
(देवाञ्जन) जगत् को अभिव्यक्त करनेवाले हे देव! (त्रैककुदम्) तीन श्रेष्ठ लोकों, अर्थात् भूलोक अन्तरिक्षलोक और द्युलोक की (पाहि) आप रक्षा करते हैं। (मा) मेरी भी (विश्वतः) सब ओर से, और (परि) सब प्रकार से (पाहि) आप रक्षा कीजिये। (बाह्याः) बाहिर की (उत) तथा (पर्वतीयाः) पर्वतोत्पन्न (ओषधयः) ओषधियाँ (त्वा) आप से (तरन्ति न) बढ़ कर नहीं हैं।
टिप्पणी
[बाह्याः= पर्वतों से बाहिर की, अर्थात् समतल भूमि और जलों में उत्पन्न। ककुदम्=सर्वश्रेष्ठ या सर्वोच्च।]
विषय
'त्रै-ककुदम्
पदार्थ
१. हे (देवाञ्जन) = दिव्य गुण-सम्पन्न बौर्यमणे! अथवा प्रभु को हृदयदेश में प्रकाशित करनेवाले आञ्जन! तू (त्रै-ककुदम्) = तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ मणि है। मुझे तीनों लोकों के शिखर पर पहुँचानेवाला है। पृथिवीरूप शरीर में मुझे स्वस्थ, अन्तरिक्षरूप हृदय में मुझे पवित्र तथा द्युलोकरूप मस्तिष्क में मुझे दीत बनाता है। तू (मा) = मुझे (विश्वतः परिपाहि) = सब ओर से रक्षित कर। २. (त्वा) = तुझे यह (बाह्यः) = बाहर की ओषधियाँ (उत) = और (पर्वतीया:) = पर्वतों पर होनेवाली ओषधयः ओषधियाँ भी (न तरन्ति) = नहीं लाँघ सकती, अर्थात् तू ही सर्वोत्तम औषध है।
भावार्थ
शरीर में सुरक्षित वीर्य हदय में प्रभु को प्रकाशित करनेवाला है। यह त्रिलोकी में सर्वश्रेष्ठ वस्तु है। यही सर्वोत्तम औषध है। कोई भी बाह्य औषध इसकी तुलना नहीं कर सकती।
इंग्लिश (4)
Subject
Bhaishajyam
Meaning
O Devanjana, lord of light, beauty and beatitude, protect and promote the three summit seats of life and bliss for humanity, i.e., the earth, the firmament, and the heavens. Protect and promote me too from all sides against all misfortunes. No herbs and sanatives whether from mountains or from elsewhere outside can ever excel and surpass you.
Translation
O ointment divine, brought from the three-humped (Trikakut) mountain, may you guard me from all (sides). Medicinal plants, whether of foreign lands or of the mountains, can never surpass you.
Translation
This ointment as an eye remedy is the container of fluid substance, it is the Puspa, the flower of electricity, air, the vital breath, sun, eye and the milk of heaven (for men having eye disease).
Translation
O Anjana of divine qualities, thou art the best of all in three worlds. Latest thou protect me from all sides. None of the medicines, acquired from the mountains or from other parts in the plains, can surpass thee in efficacy.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(देवाञ्जन) हे दिव्य, हे संसारस्य व्यक्तिकारक ब्रह्म (त्रैककुदम्) अ०४।९।९-१०। त्रि+क+कुत्-अण्। कं सुखम्-निघ०३।६। कवते गतिकर्मा-निघ०२।१४। कुङ् गतिशोषणयोः-क्विप्, तुक् च, अन्तर्गतण्यर्थः तस्य दः आध्यात्मिकादीनि त्रीणि कानि सुखानि कावयति गमयतीति त्रिककुत्, स्वार्थे अण्, त्रिककुदमेव त्रिककुत्। त्रयाणां सुखानां प्रापकम् (परि) (मा) माम् (पाहि) रक्ष (विश्वतः) सर्वतः (न) निषेधे (त्वा) त्वाम् (तरन्ति) लङ्घयन्ति (ओषधयः) औषधानि (बाह्याः) बहिस्-ष्यञ्। बहिर्भवाः। पर्वतव्यतिरेकस्थलेषूत्पन्नाः (पर्वतीयाः) पर्वत-छ प्रत्ययः पर्वतेषु भवाः (उत) अपि च ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal