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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 39/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अङ्गिराः देवता - जातवेदाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सन्नति सूक्त
    1

    हृ॒दा पू॒तं मन॑सा जातवेदो॒ विश्वा॑नि देव व॒युना॑नि वि॒द्वान्। स॒प्तास्या॑नि॒ तव॑ जातवेद॒स्तेभ्यो॑ जुहोमि॒ स जु॑षस्व ह॒व्यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हृ॒दा । पू॒तम् । मन॑सा । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । विश्वा॑नि । दे॒व॒ । व॒युना॑नि । वि॒द्वान् । स॒प्त । आ॒स्या᳡नि । तव॑ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । तेभ्य॑: । जु॒हो॒मि॒ । स: । जु॒ष॒स्व॒ । ह॒व्यम् ॥३९.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हृदा पूतं मनसा जातवेदो विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। सप्तास्यानि तव जातवेदस्तेभ्यो जुहोमि स जुषस्व हव्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हृदा । पूतम् । मनसा । जातऽवेद: । विश्वानि । देव । वयुनानि । विद्वान् । सप्त । आस्यानि । तव । जातऽवेद: । तेभ्य: । जुहोमि । स: । जुषस्व । हव्यम् ॥३९.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 39; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (जातवेदः) हे ज्ञानवान् ! (देव) हे प्रकाशवान् परमेश्वर ! तू (विश्वानि) सब (वयुनानि) ज्ञानों को (विद्वान्) जाननेवाला है। (जातवेदः) हे बड़े धनवाले ! [मेरी] (सप्त) सात (आस्यानि) [मस्तक की] गोलकें (तव) तेरी [तेरे तत्पर हों]। (तेभ्यः) उनके हित के लिये (हृदा) हृदय और (मनसा) मन से (पूतम्) शोधे हुए कर्म को (जुहोमि) समर्पण करता हूँ। (सः) सो तू [मेरे] (हव्यम्) आवाहन को (जुषस्व) स्वीकार कर ॥१०॥

    भावार्थ

    मनुष्य अपनी सब इन्द्रियों को उस सर्वशक्तिमान् की आज्ञा में लगा कर सदा आनन्द भोगें। मस्तक की सात इन्द्रियों के जीतने में ही सब प्राणी आनन्द पाते हैं, जैसा (कः सप्त खानि वि ततर्द शीर्षणि.....) अ० १०।२।६। में वर्णन है ॥ (सप्त आस्यानि) पद की व्याख्या में (सप्त ऋषयः) पद अ० ४।११।९। में देखो ॥१०॥ इस मन्त्र का दूसरा पाद (विश्वानि देव.... विद्वान्) य० ४०।१६। में है ॥

    टिप्पणी

    १०−(हृदा) हृदयेन (पूतम्) शोधितं कर्म (मनसा) अन्तःकरणेन (जातवेदः) अ० १।७।२। हे जातप्रज्ञान परमेश्वर (विश्वानि) सर्वाणि (देव) हे प्रकाशमान (वयुनानि) अ० २।२८।२। ज्ञानानि (विद्वान्) जानन् सन् वर्त्तसे (सप्त) सप्तसंख्याकानि (आस्यानि) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति असु क्षेपणे, यद्वा आस उपवेशने-ण्यत्। अस्यन्ते क्षिप्यन्ते, यद्वा, आसते तिष्ठन्ति विषया यत्र तानि। शीर्षण्यानि खानि इन्द्रियाणि मम प्राणिनः (तव) तव परमेश्वरस्य, तत्पराणि भवन्तु-इत्यर्थः (जातवेदः) हे जातधन (तेभ्यः) तादर्थ्ये चतुर्थी। तेषामास्यानां हिताय (जुहोमि) समर्पयामि (सः) स त्वम् (जुषस्व) सेवस्व। स्वीकुरु (हव्यम्) ह्वेञ्-यत्। आह्वानम् ॥

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    विषय

    पवित्र यज्ञ

    पदार्थ

    १. हे (जातवेदः) = अग्ने! मैं (हृदा) = हदय से श्रद्धा से तथा (मनसा) = मन से-ज्ञानपूर्वक (पूतम्) = पवित्र हवि को (जुहोमि) = आहुत करता हूँ। हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! आप (विश्वानि) = सब (वयुनानि) = प्रज्ञानों को (विद्वान्) = जानते हैं। आपके स्मरण से मैं सदा पवित्र कर्मों को ही करनेवाला बनें। हे (जातवेदः) ! (तव) = तेरे (सप्त आस्यानि) = 'काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, सुधम्रवर्णा, स्फुलिंगिनी, विश्वरुची' इन नामोंवाली सात जिह्माएँ [मुख] हैं। मैं (तेभ्यः) = उनके लिए इस हविलक्षण अन्न को आहुत करता हूँ। (स:) = वह तू (हव्यम्) = इस होतव्य पदार्थ का (जुषस्व) = प्रीतिपूर्वक सेवन कर।

    भावार्थ

    प्रभु हमारे सब विचारों को जानते हैं। हम प्रभु-स्मरण करते हुए सदा यज्ञादि पवित्र कर्मों को करनेवाले बनें।

    विशेष

    प्रभु-स्मरणपूर्वक पवित्र कर्मों को करता हुआ यह व्यक्ति वासना-विनाश द्वारा शरीर में शक्ति की ऊर्ध्वगतिवाला होता है। यह सब शत्रुओं को नष्ट करनेवाला शक्तिशाली 'शुक्र' बनता है। यह शुक्र ही अगले सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (जातवेदः) हे सब उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान ! तथा उनके ज्ञाता परमेश्वर (देव) देव! तू (विश्वानि) सब (वयुनानि) प्रज्ञानों को (विद्वान्) जानता है, (हृदा, मनसा) हमारी हार्दिक भावना द्वारा तथा मानसिक विचार द्वारा (पूतम्) पवित्र किये (हव्यम्) आहुति-योग्य पदार्थ को (सः) वह तू (जुषस्व) प्रीतिपूर्वक सेवित कर। (जातवेदः) हे सब उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान! तथा उनके ज्ञाता! (तव) तेरे (सप्त आस्यानि) सात मुख हैं, (तेभ्यः) उनके लिए (जुहोमि) मैं आहुतियाँ देता हूँ।

    टिप्पणी

    [आहुतियाँ अग्नि में दी जाती हैं। अग्नि के मुख सात हैं। यथा— काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा। स्फुल्लिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः॥ मुण्डक उप० १।२।४॥ अग्नि की ये सात जिह्वा हैं, एक एक जिह्वा एक एक मुख में, अतः अग्नि के सात आस्य हैं, सात मुख हैं। उन सात आस्यों में दी गई आहुतियाँ परमेश्वर के सात आस्यों में दी गई जाननी चाहिएँ। परमेश्वर ही सप्तजिह्व या सप्तास्य अग्नि में विद्यमान हुआ आहुतियों को ग्रहण करता है। मन्त्र ९ में कहा है कि "अग्नावग्निः चरति प्रविष्टः" कि यज्ञिय अग्नि में परमेश्वराग्नि ही प्रविष्ट है, अत: वस्तुत: परमेश्वराग्नि में ही आहुतियाँ जाननी चाहिएँ। वयुनानि= प्रज्ञानानि (निरुक्त ८।३।२०)। मन्त्र ९ और १० का सम्बन्ध सूक्त ३९ के अवशिष्ट मन्त्रों के साथ क्या है-यह विचारणीय है। अथवा सूक्त के मन्त्र १ और २ में अग्नि का वर्णन होने से, उस अग्नि में विचरनेवाले परमेश्वराग्नि को सूचित कर समग्र सूक्त में आध्यात्मिकता निर्दिष्ट की है। इसी प्रकार वायु में वायुनाम से तथा आदित्य में आदित्य नाम से और चन्द्र में चन्द्र नाम से परमेश्वर का प्रवेश सूचित किया है। इसलिए कहा है कि "तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः" (यजु ३२।१)।]

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    विषय

    विभूतियों और समृद्धियों को प्राप्त करने की साधना।

    भावार्थ

    ईश्वरोपासना और सदाचार के बाद आत्मा का उपदेश करते हैं। हे (जातवेदः) समस्त पदार्थों के जानने हारे ! हे (देव) प्रकाशस्वरूप देव ! तू (विश्वानि वयुनानि) समस्त ज्ञानों को (विद्वान्) जानने हारा है। तुझे (मनसा) मननपूर्वक (हृदा) हृदय से (पूतं) पवित्र किये (हव्यं) स्तुति को (जुहोमि) तेरे लिये अर्पित करता हूं। और हे (जातवेदः) ज्ञान को प्राप्त करने हारे, ज्ञानी आत्मन् जीव ! (तव सप्त आस्यानि) तेरे सात मुख हैं। दो आंख, दो कान, दो नासिका, एक मुख, (तेभ्यः) इन में भी (मनसा) मनन और (हृदा) हृदय से (पूतं हव्यं) पवित्र किये समाधि योग से प्राप्त ज्ञान और अन्न की (जुहोमि) आहुति देता हूं । अथवा—

    टिप्पणी

    काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा। स्फुलिङ्गिनी विश्वरुचीति चैता लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः॥ ये आत्मा की सात शक्तियां योग बल से जागृत होती हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अंगिरा ऋषिः। संनतिर्देवता। १, ३, ५, ७ त्रिपदा महाबृहत्यः, २, ४, ६, ८ संस्तारपंक्तयः, ९, १० त्रिष्टुभौ। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Prosperity

    Meaning

    O Jataveda, lord omnipresent in the world of existence, O lord self-refulgent and omnificent, omniscient of all the laws of Rtam and paths and ways of things born, O light and fire of life, seven are your flames of fire, seven are your mouths for the evolution and involution of creation, i.e., five elements, senses and mind. For them and through all five senses, mind and intelligence of mine, I come, surrender and join you with homage of the self, purified and sanctified at heart with faith. Pray accept this homage and bless me.

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    Translation

    O knower of all beings, O Lord, you know all the actions and conducts (of men). O knower of all, sevén are your mouths. To them, I offer oblations purified with heart and mind. As such, may you be pleased with and enjoy this oblation.

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    Translation

    This Jatvedas, fire present in all the objects is a refulgent Element and it pervades all the worldly objects. I offer the oblation of pure materials in the Yajna fire with heart and spirit. This fire has seven mouths (the seven zones of fire) and all the oblations, I offer, are meant for them. Let it obtain this libation.

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    Translation

    Knower of all objects, O Refulgent God, Thou knowest all sorts of knowledge. O wise soul thou hath got seven mouths. To them I offer the knowledge purified through heart and cleansed through yoga. Do thou accept my libation!

    Footnote

    Seven mouths: Two eyes, two ears, two noses and mouth. Seven mouths may also mean the seven tongues (forces) of the soul that are developed through Yoga (l) Kali (Z) Karali (3) Manojivi (4) Sulohita (5) Sudhumoavarni (6) Suphulingni (7) Lelayamana.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(हृदा) हृदयेन (पूतम्) शोधितं कर्म (मनसा) अन्तःकरणेन (जातवेदः) अ० १।७।२। हे जातप्रज्ञान परमेश्वर (विश्वानि) सर्वाणि (देव) हे प्रकाशमान (वयुनानि) अ० २।२८।२। ज्ञानानि (विद्वान्) जानन् सन् वर्त्तसे (सप्त) सप्तसंख्याकानि (आस्यानि) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति असु क्षेपणे, यद्वा आस उपवेशने-ण्यत्। अस्यन्ते क्षिप्यन्ते, यद्वा, आसते तिष्ठन्ति विषया यत्र तानि। शीर्षण्यानि खानि इन्द्रियाणि मम प्राणिनः (तव) तव परमेश्वरस्य, तत्पराणि भवन्तु-इत्यर्थः (जातवेदः) हे जातधन (तेभ्यः) तादर्थ्ये चतुर्थी। तेषामास्यानां हिताय (जुहोमि) समर्पयामि (सः) स त्वम् (जुषस्व) सेवस्व। स्वीकुरु (हव्यम्) ह्वेञ्-यत्। आह्वानम् ॥

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