अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 39/ मन्त्र 3
ऋषिः - अङ्गिराः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिपदा महाबृहती
सूक्तम् - सन्नति सूक्त
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अ॒न्तरि॑क्षे वा॒यवे॒ सम॑नम॒न्त्स आ॑र्ध्नोत्। यथा॒न्तरि॑क्षे वा॒यवे॑ स॒मन॑मन्ने॒वा मह्यं॑ सं॒नमः॒ सं न॑मन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्तरि॑क्षे । वा॒यवे॑ । सम् । अ॒न॒म॒न् । स: । आ॒र्ध्नो॒त् । यथा॑ । अ॒न्तरि॑क्षे । वा॒यवे॑ । स॒म्ऽअन॑मन् । ए॒व । मह्म॑म् । स॒म्ऽनम॑: । सम् । न॒म॒न्तु॒ ॥३९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तरिक्षे वायवे समनमन्त्स आर्ध्नोत्। यथान्तरिक्षे वायवे समनमन्नेवा मह्यं संनमः सं नमन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठअन्तरिक्षे । वायवे । सम् । अनमन् । स: । आर्ध्नोत् । यथा । अन्तरिक्षे । वायवे । सम्ऽअनमन् । एव । मह्मम् । सम्ऽनम: । सम् । नमन्तु ॥३९.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(अन्तरिक्षे) मध्यलोक में (वायवे) वायु को वे [ऋषि लोग] (सम्) यथाविधि (अनमन्) नमे हैं, (सः) उसने [उन्हें] (आर्ध्नोत्) बढ़ाया है। (यथा) जैसे (अन्तरिक्षे) मध्यलोक में (वायवे) वायु को (सम् अनमन्) वे यथावत् नमे हैं, (एव) वैसे ही (मह्यम्) मुझको (सन्नमः) सब सम्पत्तियाँ (सम्) यथावत् (नमन्तु) नमें ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य पूर्वज ऋषियों के समान सब में वर्तमान वायु से उपकार लेकर आनन्द भोगें ॥३॥
टिप्पणी
३−(अन्तरिक्षे) मध्यलोके (वायवे) पवनाय। अन्यत् पूर्ववत्। म० १ ॥
विषय
अन्तरिक्ष में वायु
पदार्थ
१. (अन्तरिक्षे) = इस हृदयरूप अन्तरिक्ष में (वायवे) = वायुतत्त्व के लिए-निरन्तर क्रियाशीलता के संकल्प के लिए (समनमन्) = सब प्राणी संनत होते हैं। (सः आप्नोंत्) = यह वायुतत्व ही क्रियाशीलता का संकल्प ही [हत्सु क्रतुम्] उन्हें सफल बनाता है। २. (यथा) = जैसे (अन्तरिक्षे) = हृदयान्तरिक्ष में (वायवे) = क्रियाशीलता के संकल्प के लिए (समनमन्) = संनत होते हैं, (एव) = इसीप्रकार (महाम्) = मेरे लिए (संनम:) = अभिलषित फलों की प्रातियाँ (संनमन्तु) = संनत हों।
भावार्थ
हृदयान्तरिक्ष में वायु ही मुख्य देव है। इसके होने पर अन्य सब देवों की उपस्थिति होती ही है। क्रियाशीलता सब अभिलषितों को सिद्ध करती है।
भाषार्थ
(अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (वायवे) वायु के लिए (समनमन्) सब प्रह्वीभूत हुए, झुके, (सः) वह वायु (आर्ध्नोत्) ऋद्धि अर्थात् समृद्धि को प्राप्त हुई; (यथा) जिस प्रकार (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (वायवे) वायु के लिए (समनमन्) सब प्रह्वीभूत हुए, (एव) इसी प्रकार (मह्यम्) मेरे लिए (संनमः) अभिलषित पदार्थों के झुकाव (सं नमन्तु) संनत हों, झुकें अर्थात् मुझे प्राप्त हों।
टिप्पणी
[वायु देवता है, अधिपति है, अन्तरिक्ष में। इसलिए अन्तरिक्षस्थ सब पदार्थ इस अधिपति के लिए झुकते हैं, इसे प्राप्त होते हैं। वे पदार्थ हैं अन्तरिक्षस्थ जल, मेघ तथा विद्युत् आदि; विद्युत् जोकि अन्तरिक्ष में व्याप्त है, और जो वर्षा-ऋतु में मेघों मे चमकती है।]
विषय
विभूतियों और समृद्धियों को प्राप्त करने की साधना।
भावार्थ
(अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष अर्थात् पृथिवी के समीप के आकाश भाग में (वायवे समनमन्) वायु के प्रति समस्त प्राणि कार्यों की सिद्धि के निमित्त नत या प्रवृत्त होते है क्योंकि (सः आर्ध्नोत्) वही सब से बलवान् और समृद्धिमान् है। तब (यथा अन्तरिक्षे वायवे समनमन्) जिस प्रकार अन्तरिक्ष में वायु के प्रति सब नत होते हैं (एवा) उसी प्रकार (संनमः) सम्पदाएं और विनीत प्रजाएं (मह्यं सं नमन्तु) मेरी ओर झुकें और मेरे आगे नमन करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अंगिरा ऋषिः। संनतिर्देवता। १, ३, ५, ७ त्रिपदा महाबृहत्यः, २, ४, ६, ८ संस्तारपंक्तयः, ९, १० त्रिष्टुभौ। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Prosperity
Meaning
People honour and adore Vayu energy in the firmament. The energy and generosity of Vayu from the sky blesses them with prosperity. Just as people adore Vayu in the sky, so may favours of Vayu come to me and lead me to prosperity and humility.
Translation
In the midspace all the being bow in homage to the wind. Thus he thrives. As in the midspace, they bow in homage to the wind, so may the attainments (of my heart’s desires) bow’ down to me.
Translation
In the firmament is this air. People bow down to its power and it is accomplished with all energies. As people bow down to the powers of air in firmament so let all the prosperities bow down to me.
Translation
Sages have paid homage to air in the atmosphere, and air has made them great. Just as they have bowed before air in the atmosphere, so let these persons who have come to honor me, bow before me.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(अन्तरिक्षे) मध्यलोके (वायवे) पवनाय। अन्यत् पूर्ववत्। म० १ ॥
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