अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 39/ मन्त्र 9
अ॒ग्नाव॒ग्निश्च॑रति॒ प्रवि॑ष्ट॒ ऋषी॑णां पु॒त्रो अ॑भिशस्ति॒पा उ॑। न॑मस्का॒रेण॒ नम॑सा ते जुहोमि॒ मा दे॒वानां॑ मिथु॒या क॑र्म भा॒गम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नौ । अ॒ग्नि: । च॒र॒ति॒ । प्रऽवि॑ष्ट: । ऋषी॑णाम् । पु॒त्र: । अ॒भि॒श॒स्ति॒ऽपा: । ऊं॒ इति॑ । न॒म॒:ऽका॒रेण॑ । नम॑सा । ते॒ । जु॒हो॒मि॒ । मा । दे॒वाना॑म् । मि॒थु॒या । क॒र्म॒ । भा॒गम् ॥३९.९॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नावग्निश्चरति प्रविष्ट ऋषीणां पुत्रो अभिशस्तिपा उ। नमस्कारेण नमसा ते जुहोमि मा देवानां मिथुया कर्म भागम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नौ । अग्नि: । चरति । प्रऽविष्ट: । ऋषीणाम् । पुत्र: । अभिशस्तिऽपा: । ऊं इति । नम:ऽकारेण । नमसा । ते । जुहोमि । मा । देवानाम् । मिथुया । कर्म । भागम् ॥३९.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(ऋषीणाम्) धर्म साक्षात् करनेवाले मुनियों वा विषय देखनेवाली इन्द्रियों का (पुत्रः) शुद्ध करनेवाला, (अभिशस्तिपाः) हिंसा के भय से बचानेवाला (अग्निः) सर्वव्यापक परमेश्वर (उ) निश्चय करके (अग्नौ) सूर्य, अग्नि आदि तेज में (प्रविष्ट) प्रवेश किये हुए (चरति) चलता है। (ते) [उस] तुझको (नमस्कारेण) नमस्कार और (नमसा) आदर के साथ (जुहोमि) मैं आत्मदान करता हूँ। (देवानाम्) महात्माओं के (भागम्) ऐश्वर्य वा सेवनीय कर्म को (मिथुया=मिथुना) दुष्टता से (मा कर्म) हम नष्ट न करें ॥९॥
भावार्थ
सब मनुष्य परब्रह्म जगदीश्वर को पूर्ण भक्ति से सर्वत्र व्यापक जानकर महात्माओं के समान शुभ कर्म करके सदा ऐश्वर्यवान् होवें ॥९॥
टिप्पणी
९−(अग्नौ) सूर्यादितेजसि (अग्निः) सर्वव्यापकः परमेश्वरः (चरति) व्याप्नोति (प्रविष्टः) अन्तर्गतः (ऋषीणाम्) अ० २।६।१। साक्षात्कृतधर्मणां मुनीनाम्, विषयद्रष्टॄणामिन्द्रियाणां वा (पुत्रः) अ० १।११।५। पुनातीति पुत्रः। पविता शोधकः (अभिशस्तिपाः) अ० २।१३।३। हिंसाभयाद्ररक्षकः (उ) निश्चयेन (नमस्कारेण) सत्कारेण (नमसा) नमनेन, आदरेण (ते) तथाविधाय तुभ्यम् (जुहोमि) आत्मदानं करोमि (देवानाम्) महात्मनां (मिथुया) अ० ४।२९।७। मिथुना हिंसनेन दुष्कर्मणा (मा कर्म) कृञ् हिंसायाम्-माङि लुङि। मन्त्रे घसह्वर०। पा० २।४।८०। इति च्लेर्लुक्। मा कार्ष्म मा हिंसिष्म (भागम्) भग-अण्। ऐश्वर्याणां समूहम्। यद्वा, भज-घञ्। भजनीयं कर्म ॥
विषय
प्रभ-स्मरण
पदार्थ
१. (अग्रौ) = प्रगतिशील जीव में (प्रविष्ट:) = प्रविष्ट हुआ-हुआ (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु [तत्सृष्ट्रा तदेवानुप्राविशन्] (चरति) = सब क्रियाओं को करता है। एक ज्ञानी पुरुष सब कार्यों को अन्त:स्थित प्रभु की शक्ति से होता हुआ जानता है। यह प्रभु (ऋषीणां पुत्र:) = इन तत्वद्रष्टा पुरुषों को पवित्र करनेवाला [पुनाति] व त्राण करनेवाला [त्रायते] है। तत्त्वद्रष्टा पुरुष अन्त:स्थित प्रभु को देखते हैं। यह प्रभु-दर्शन उन्हें पवित्र हृदयवाला व नीरोग शरीरवाला बनाता है। (उ) = निश्चय से ये प्रभु (अभिशस्तिपा:) = हिंसन से बचानेवाले हैं। प्रभु को देखनेवाला ऋषि पापों व रोगों से आक्रान्त नहीं होता। २.हे प्रभो! मैं (ते) = तेरे प्रति (नमस्कारेण) = नमस्कार के साथ (नमसा) = हविलक्षण अन्न के द्वारा (जुहोमि) = अग्निहोत्र करता हूँ। हम (देवानां भागम्) = वायु आदि देवों के भजनीय इस हविलक्षण अन्न को कभी मिथुया मा कर्म-मिथ्या न करें-अग्निहोत्र की सारी प्रक्रिया को पवित्रता से करें।
भावार्थ
ऋषि सब कार्यों को अन्त:स्थित प्रभु की शक्ति से होते हुए देखता है। यह भावना इन्हें विनाश से बचाती है। प्रभु के प्रति नमन करते हुए हम सदा पवित्रता के साथ अग्निहोत्र करनेवाले बनें।
भाषार्थ
(अग्नौ) याज्ञिक अग्नि में (अग्निः) परमेश्वराग्नि (प्रविष्टः) प्रविष्ट हुआ (चरति) विचरता है, (ऋषीणाम् पुत्रः) ऋषियों को वह पुत्र के सदृश प्रिय है। (उ) निश्चय से (अभि शस्तिपाः) हिंसा से वह रक्षा करता है [ऋषियों तथा अन्यों की]। (नमस्कारेण) नमस्कार द्वारा (नमसा) और यज्ञिय-अन्न द्वारा, (ते) तेरे लिए (जुहोमि) मैं आहुतियाँ देता हूँ, (देवानाम्, भागम्) ताकि देवों के भाग को (मिथुया) मिथ्या (मा कर्म) मैं न करूँ।
टिप्पणी
[परमेश्वर का वाचक अग्नि पद भी है (देखा यजुः० ३२।१), यथा "तदेवाग्निस्तदादित्यः" आदि। यज्ञ द्वारा, वायु आदि देवों के प्रति यज्ञधूम जाकर, शुद्धिकार्य करता है। जीवन में इस दिव्य कर्तव्य से मैं विमुख न होऊँ यह अभिप्राय है। अग्नि में परमेश्वर अग्नि नाम से, वायु में वायु नाम से, आदित्य में आदित्य नाम से प्रविष्ट है, इत्यादि। इस द्वारा मन्त्रों में आधिदैविक और आध्यात्मिक उभयविध अर्थ अनुस्यूत हैं, यह दर्शाया है। नमसा=नम: अन्ननाम (निघं० २।७)।]
विषय
विभूतियों और समृद्धियों को प्राप्त करने की साधना।
भावार्थ
(अग्नौ) उपरोक्त अग्नि आदि पदार्थों में (अग्निः) ज्ञानस्वरूप, सर्वप्रकाशक परमात्मा (प्रविष्टः चरति) भीतर अन्तर्यामी होकर व्यापक है। और वही (ऋषीणां पुत्रः) समस्त मन्त्रद्रष्टा ऋषियों को शरीर और मानस दुःखों से बचाने वाला है। वही (अभिशस्तिपा उ) सब पाप और निन्दा से रक्षा करता है। हे परमात्मन् ! (ते) तुझे मैं (नमसा) बड़े आदर से झुक कर (नमस्कारेण) ‘नमः’ इस प्रकार के आदर सूचक पद उच्चारण करके (जुहोमि) अपने को तेरे समर्पण करता हूँ। हे पुरुषो ! हम लोग (देवानां भागं) विद्वान् लोगों के सेवन करने योग्य उपदेश को (मिथुया) मिथ्या रूप से (मा कर्म) न करें। अर्थात् अनादर या दिखावा बना कर उत्तम काम न करें, प्रत्युत सत्य भाव से उत्तम कामों को करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अंगिरा ऋषिः। संनतिर्देवता। १, ३, ५, ७ त्रिपदा महाबृहत्यः, २, ४, ६, ८ संस्तारपंक्तयः, ९, १० त्रिष्टुभौ। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Prosperity
Meaning
Agni, light of life and entire existence, vibrates omnipresent, pervading all forms of nature’s energy. Experienced through the vibrancy of Rshi pranas, revealed by the sages, sanctifier of mind and senses, it is our saviour against sin, evil and malignity. O lord of universal energy and humanity, I come to you with self surrender, salutations and homage in all sincerity. O celebrants, let us never, with insincerity and hypocrisy, pollute and desecrate what is due to the divinities in gratefulness to their favours.
Translation
The fire-divine moves about, enters into the sacrificial fire. He is the son of seers and also protector from ignomy. I offer oblations to you with food and reverence. May we never deprive the enlightened ones of their due share.
Translation
The igneous substance pervading in the fire moves throughout. It is the offshort of the material elements and which guards from evils. I offer oblations in the fire with ghee and cerials in the spirit of reverence. Let us not offer the shares of the devas of yajua with hypocrisy.
Translation
Soul moves having entered into God. It purifies the organs, and saves us from sin. O God I dedicate myself to Thee with humble homage. Let none mar the teaching of the learned!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(अग्नौ) सूर्यादितेजसि (अग्निः) सर्वव्यापकः परमेश्वरः (चरति) व्याप्नोति (प्रविष्टः) अन्तर्गतः (ऋषीणाम्) अ० २।६।१। साक्षात्कृतधर्मणां मुनीनाम्, विषयद्रष्टॄणामिन्द्रियाणां वा (पुत्रः) अ० १।११।५। पुनातीति पुत्रः। पविता शोधकः (अभिशस्तिपाः) अ० २।१३।३। हिंसाभयाद्ररक्षकः (उ) निश्चयेन (नमस्कारेण) सत्कारेण (नमसा) नमनेन, आदरेण (ते) तथाविधाय तुभ्यम् (जुहोमि) आत्मदानं करोमि (देवानाम्) महात्मनां (मिथुया) अ० ४।२९।७। मिथुना हिंसनेन दुष्कर्मणा (मा कर्म) कृञ् हिंसायाम्-माङि लुङि। मन्त्रे घसह्वर०। पा० २।४।८०। इति च्लेर्लुक्। मा कार्ष्म मा हिंसिष्म (भागम्) भग-अण्। ऐश्वर्याणां समूहम्। यद्वा, भज-घञ्। भजनीयं कर्म ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal