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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 6
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अदिति छन्दः - द्विपदा प्राजापत्या बृहती सूक्तम् - नवशाला सूक्त
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    एयम॑गन्ब॒र्हिषा॒ प्रोक्ष॑णीभिर्य॒ज्ञं त॑न्वा॒नादि॑तिः॒ स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒यम् । अ॒ग॒न् । ब॒र्हिषा॑ । प्र॒ऽउक्ष॑णीभि: । य॒ज्ञम् । त॒न्वा॒ना । अदि॑ति: । स्वाहा॑ ॥२६.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एयमगन्बर्हिषा प्रोक्षणीभिर्यज्ञं तन्वानादितिः स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इयम् । अगन् । बर्हिषा । प्रऽउक्षणीभि: । यज्ञम् । तन्वाना । अदिति: । स्वाहा ॥२६.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 26; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    समाज की वृद्धि करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (इयम्) यह (अदितिः) अखण्ड नीति (स्वाहा) सुन्दर वाणी के साथ (बर्हिषा) उद्यम से और (प्रोक्षणीभिः) अच्छी-अच्छी वृद्धियों से (यज्ञम्) आपस में मिलाप (तन्वाना) फैलाती हुई (आ अगन्) आई है ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वरदत्त वेदविद्या को पुरुषार्थपूर्वक विचार कर परस्पर उन्नति करें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(इयम्) प्रसिद्धा वैदिकी (आ अगन्) आगमत् (बर्हिषा) बर्ह उद्यमने−इसि। उद्यमेन (प्रोक्षणीभिः) प्र+उक्ष सेचने वृद्धौ च−ल्युट्, ङीप्। प्रकृष्टवृद्धिभिः। उक्षण उक्षतेर्वृद्धिकर्मण उक्षन्त्युदकेनेति वा−निरु० १२।९। (यज्ञम्) संगमम् (तन्वाना) तनु विस्तारे−शानच्। विस्तारयन्ती सती (अदितिः) अ० २।२८।४। वाङ्नाम−निघ० १।११। अखण्डनीतिः (स्वाहा) सुवाण्या ॥

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    विषय

    अदिति

    पदार्थ

    १. (इयम् अदिति:) = यह [अ+दिति] स्वास्थ्य की देवता (आ अगन्) = हमें प्राप्त हुई है। (बर्हिषा) = वासनाओं को जिसमें से उखाड़ दिया गया है, उस हृदय के साथ तथा (प्रोक्षणीभिः) = [उक्ष सेचने] शरीर में शक्तियों के सेचन के साथ (यज्ञं तन्वाना) = यज्ञों का यह विस्तार कर रही है, (स्वाहा) = मैं इस अदिति के प्रति अपना अर्पण करूँ।

    भावार्थ

    हम स्वस्थ बनकर पवित्र हदय व शक्ति के रक्षण के साथ यज्ञों का विस्तार करें, इन्हीं के प्रति अपना अर्पण करें।



     

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    भाषार्थ

    (यज्ञम्, तन्वाना) यज्ञ का विस्तार करती हुई (इयम् अदितिः) यह अखण्डितव्रता [यजमान-पत्नी], (बर्हिषा) बर्हिः तथा (प्रोक्षणीभिः) सेचन-जल के साथ (आ अगत्) आई है।

    टिप्पणी

    [ बर्हिः= वेदी के आस्तरण और हविष्पात्रों के स्थापनार्थ कुशा घास। आ अगन्=आ अगमत्, आगता, अगन् = "गमेर्लुङि, ('मन्त्रे घसह्वरणश', अष्टा० २।४।८०, इति) च्लेर्लुकि, संयोगान्तलोपे, 'मो नो धातौ:' (अष्टा० ८।२।६४ इति) नत्वम् (सायण)।" अदितिःथ अ + 'दो' अवखण्डने+ क्तिन् । यज्ञार्थ, यजमान के सदृश उसकी पत्नी भी व्रत ग्रहण करती है। यज्ञ की समाप्ति तक वह अखण्डित-व्रता रहती है। बर्हिः और प्रोक्षणी: यज्ञाङ्ग हैं।]

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    विषय

    योग साधना।

    भावार्थ

    (इयम्) यह (अदितिः) अखण्ड चितिशक्ति, प्रकाश-स्वरूप विवेक ख्याति (प्रोक्षणीभिः) प्रोक्षण-दिव्य-जलों द्वारा आनन्द-धाराओं और ज्ञानों द्वारा और (बर्हिषा) बढ़ने वाले ब्रह्मज्ञान से (यज्ञं तन्वाना) यज्ञमय देव का साक्षात् कराती हुई (आ अगन्) प्रकट होती है। (स्वाहा) इसमें मग्न होना ही परम आहुति है। दिव्याः आपः प्रोक्षणयः ॥ तै० २। १। ५। १ ॥ धर्ममेध समाधि में आत्मभूमि में वर्षने वाला सोमविन्दु रस ही ‘प्रोक्षणी’ है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। वास्तोष्पत्यादयो मन्त्रोक्ता देवताः। १, ५ द्विपदार्च्युष्णिहौ। २, ४, ६, ७, ८, १०, ११ द्विपदाप्राजापत्या बृहत्यः। ३ त्रिपदा पिपीलिकामध्या पुरोष्णिक्। १-११ एंकावसानाः। १२ प्रातिशक्वरी चतुष्पदा जगती। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yajna in the New Home

    Meaning

    May inviolable mother Aditi with yajna sanctities and fragrances come and join us extending this yajna with her showers of blessings. This is my prayer and submission in all sincerity.

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    Translation

    This mother, eternity (aditi) has come here extending the sacrifice with sacred grass and sprinklings. (of water). Svaha.

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    Translation

    Let this dexter woman accomplishing the yajna with samagri and prokshani, be present in the yajna. Whatever is uttered herein is correct.

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    Translation

    This power of discernment, appears, making us visualize God, through divine knowledge and flow of joy. This sort of concentration is the best oblation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(इयम्) प्रसिद्धा वैदिकी (आ अगन्) आगमत् (बर्हिषा) बर्ह उद्यमने−इसि। उद्यमेन (प्रोक्षणीभिः) प्र+उक्ष सेचने वृद्धौ च−ल्युट्, ङीप्। प्रकृष्टवृद्धिभिः। उक्षण उक्षतेर्वृद्धिकर्मण उक्षन्त्युदकेनेति वा−निरु० १२।९। (यज्ञम्) संगमम् (तन्वाना) तनु विस्तारे−शानच्। विस्तारयन्ती सती (अदितिः) अ० २।२८।४। वाङ्नाम−निघ० १।११। अखण्डनीतिः (स्वाहा) सुवाण्या ॥

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