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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 12
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अश्विनीकुमारः, बृहस्पतिः छन्दः - त्रिपदा पिपीलिकमध्या पुरउष्णिक् सूक्तम् - नवशाला सूक्त
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    अश्वि॑ना॒ ब्रह्म॒णा या॑तम॒र्वाञ्चौ॑ वषट्का॒रेण॑ य॒ज्ञं व॒र्धय॑न्तौ। बृह॑स्पते॒ ब्रह्म॒णा या॑ह्य॒र्वाङ् य॒ज्ञो अ॒यं स्व॑रि॒दं यज॑मानाय॒ स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्वि॑ना । ब्रह्म॑णा । आ । या॒त॒म् । अ॒र्वाञ्चौ॑ । व॒ष॒ट्ऽका॒रेण॑ । य॒ज्ञम् । व॒र्धय॑न्तौ । बृह॑स्पते । ब्रह्म॑णा । आ । या॒हि॒ । अ॒वाङ् । य॒ज्ञ: । अ॒यम् । स्व᳡: । इ॒दम् । यज॑मानाय । स्वाहा॑ ॥२६.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्विना ब्रह्मणा यातमर्वाञ्चौ वषट्कारेण यज्ञं वर्धयन्तौ। बृहस्पते ब्रह्मणा याह्यर्वाङ् यज्ञो अयं स्वरिदं यजमानाय स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्विना । ब्रह्मणा । आ । यातम् । अर्वाञ्चौ । वषट्ऽकारेण । यज्ञम् । वर्धयन्तौ । बृहस्पते । ब्रह्मणा । आ । याहि । अवाङ् । यज्ञ: । अयम् । स्व: । इदम् । यजमानाय । स्वाहा ॥२६.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 26; मन्त्र » 12
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    समाज की वृद्धि करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (अश्विना) हे कर्मकुशल स्त्री-पुरुषो ! (ब्रह्मणा) वेदज्ञान से, और (वषट्कारेण) दान कर्म से (यज्ञम्) समाज को (वर्धयन्तौ) बढ़ाते हुए (अर्वाञ्चौ) सन्मुख होते हुए (आयातम्) तुम दोदों आवो। (बृहस्पते) हे बड़े-बड़े लोकों के रक्षक परमात्मन् ! (ब्रह्मणा) वृद्धिसाधन के साथ (अर्वाङ्) हमारे सन्मुख (आ याहि) तू आ। (अयम्) यह (यज्ञः) समाज (यजमानाय) संगतिशील पुरुष के लिये (इदम्) ऐश्वर्य देनेवाला (स्वः) सुख होवे, (स्वाहा) यह सुन्दर वाणी है ॥१२॥

    भावार्थ

    विद्वान् स्त्री-पुरुष वेदज्ञान से समाज की उन्नति करते हुए आगे बढ़ें, और परमेश्वर को साक्षी और सहायक जानकर सदा सुखी रहें ॥१२॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    १२−(अश्विना) अ० २।२९।६। अश्वो व्याप्तिः−इनि। अश्वी च अश्विनी च। पुमान् स्त्रिया। पा० १।२।६७। इत्येकशेषः। कार्येषु व्याप्तिशीलौ स्त्रीपुरुषौ (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (आ यातम्) आ गच्छतम् (अर्वाञ्चौ) अ० म० ३।२।३। अस्मदभिमुखौ (वषट्कारेण) अ० १।११।१। वह प्रापणे−उषटि। दानकर्मणा (वर्धयन्तौ) समर्धयन्तौ सन्तौ (बृहस्पते) बृहतां लोकानां रक्षक जगदीश्वर (ब्रह्मणा) अस्माकं वृद्धिसाधनेन सह (आ याहि) आ गच्छ। साक्षाद् भव (अर्वाङ्) अ० ३।२।३। अभिमुखः सन् (यज्ञः) संगमः। समाजः (अयम्) दृश्यमानः (स्वः) सुखम् (इदम्) इन्देः कमिन्नलोपश्च। उ० ४।१५७। इति इदि परमैश्वर्ये−कमिन्। ऐश्वर्यकरम् (यजमानाय) संगतिशीलाय (स्वाहा) सुवाणी भवतु ॥

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    विषय

    ब्रह्मणा, वषट्कारेण

    पदार्थ

    १. (अश्विना) = प्राणापानो! आप (ब्राह्मणा) = ज्ञान से तथा (वषट्कारेण) = दान से, त्याग से (यज्ञं वर्धयन्तौ) =  यज्ञ को, श्रेष्ठतम कर्म को बढ़ाते हुए (अर्वाञ्चौ यातम्) = हमें आभिमुख्येन प्राप्त होओ। प्राणसाधना करते हुए हम ज्ञान व त्याग के साथ अपने जीवन में यज्ञों का वर्धन करें। २. हे (बृहस्पते) = ज्ञान के स्वामी प्रभो! आप (ब्रह्मणा) = ज्ञान के साथ (अर्वाड याहि) = हमें हृदयदेश में प्राप्त होओ। इस (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष को (अयम्) = यह (यज्ञः) = यज्ञ प्राप्त हो तथा (इदं स्वः) = यह सुख व प्रकाश प्राप्त हो। (स्वाहा) = हम यज्ञ के प्रति अपना अर्पण करें।

    भावार्थ

    प्राणसाधना द्वारा हम ज्ञान व दान के साथ अपने अन्दर यज्ञों का वर्धन करें। ज्ञान के द्वारा हृदय में प्रभु का दर्शन करें। हमारा जीवन यज्ञमय व सुखी हो।

    अगले सूक्त का ऋषि भी 'ब्रह्मा' ही है।

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    भाषार्थ

    (अश्विना) हे [दो] अश्विनी ! तुम (ब्रह्मणा) वेदमन्त्र के साथ और (वरषट्कारेण) वोषट् शब्द के उच्चारण के साथ (यज्ञम् वर्धयन्तो) यज्ञ की वृद्धि अर्थात् समृद्धि करते हुए, (अर्वाञ्चौ) 'अर्वाक्' अर्थात् इधर [यज्ञ की ओर] 'अञ्चौ' प्रस्थान करते हुए, (आ यातम्) आओ या आया करो। (बृहस्पते) हे बृहस्पति ! तू भी (ब्रह्मणा) वेदमन्त्र के साथ (अर्वाङ्) अर्थात् इधर [यज्ञ की ओर] (आ याहि ) आया कर। (अयम् यज्ञः ) यह यज्ञ (यजमानाय) यज्ञकर्ता के लिए (स्व:) सुखदायक, या [जीवन के लिए] स्वर्गीय है, (इदम् स्वाहा) यह [यज्ञ में] आहुति प्रदान हो।

    टिप्पणी

    [अश्विनौ='राजानौ पुण्यकृतौ' (निरुक्त १२।१।१), अर्थात् पुण्य कर्मों के करनेवाले राजा और राणी, या राजा और प्रधानमन्त्री। इन्हें यज्ञ की ओर प्रस्थान करने के लिए कहा है। इसी प्रकार बृहस्पति है 'बृहती [साम्राज्य] सेना का अधिपति' (यजु:० १७।४०)। अश्विनो और बृहस्पति 'ब्रह्मणा' अर्थात् मन्त्रोच्चारणपूर्वक 'वषट्कार' अर्थात् वौषट् शब्द का उच्चारण कर, यज्ञ में आहुतियाँ देते हैं, मानो यजमान बनकर यज्ञविधि को पूर्ण करते हैं। मन्त्र ११ और १२ में राज्याधिकारियों के सहयोग का वर्णन हुआ है, यज्ञकर्मों में ।]

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    विषय

    योग साधना।

    भावार्थ

    हे (अश्विनौ) प्राण और उदान ! तुम दोनो (अर्वाञ्चौ) साक्षात् होकर या शरीर के सब गुह्य स्थानों में प्रविष्ट होते हुए, (वषट्-कारेण) वषट्कार = मुख्य प्राण के बल से (यज्ञं) यज्ञरूप आत्मा की शक्ति को (वर्धयन्तौ) बढ़ाते हुए (ब्रह्मणा) ब्रह्म, परमात्मा के बल से (यातम्) गमन करो। हे (बृहस्पते) बृहती वाणी या ब्रह्मविद्या के पालक योगिन् ! तू भी (ब्रह्मणा) ब्रह्मज्ञान से (अर्वाङ्) साक्षात् आत्मरूप को (याहि) प्राप्त कर। (अयं यज्ञः स्वः) यही आत्मा का ‘स्व’ स्वरूप साक्षात् स्वः- सुखमय मोक्षधाम है। (इदं) यह साक्षात् ब्रह्म (यजमानाय) देवोपासना करने वाले आत्मा के लिये (स्वाहा) सब से श्रेष्ठ आहुति होने का विषय है।

    टिप्पणी

    प्राणो वै वषट्कारः ॥ श० ४। २। १। २९ ॥ एते एव वषट्कारस्य प्रियतमे तनू यदोजश्च सहश्च ॥ कौ० ३। ५ ॥ तस्य वा एतस्य ब्रह्मयज्ञस्य चत्वारो वषट्काराः यद् वातो वाति, यद्विद्योतते, यत्स्तनयति, यदवस्फूर्जयति॥ श० ११। ५। ६। ९॥ त्रयो वै वषट्कारा वज्रो धामच्छद्रिक्तः। स यदेवोच्चैर्बलं वषट्करोति स वज्रः। अथ यः संततो निर्हाणच्छत् स धामच्छत् अथ येनैव वषट् परार्ध्नोति स रिक्तः ॥ मे० उ० ३। ३॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। वास्तोष्पत्यादयो मन्त्रोक्ता देवताः। १, ५ द्विपदार्च्युष्णिहौ। २, ४, ६, ७, ८, १०, ११ द्विपदाप्राजापत्या बृहत्यः। ३ त्रिपदा पिपीलिकामध्या पुरोष्णिक्। १-११ एंकावसानाः। १२ प्रातिशक्वरी चतुष्पदा जगती। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yajna in the New Home

    Meaning

    O Ashvins, complementarities of natural dynamics, dynamic men and women, come straight with divine knowledge and promote the yajna with ever new and more productive holy inputs. O Brhaspati, Spirit of Infinity, O scholar of divine knowledge, come straight with the universal knowledge and possibilities revealed in the Veda. May this yajna be rising high to the regions of light and bliss for the yajamana and his new home. This is my prayer and submission in right earnest.

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    Translation

    O two healers (asvinau), may you come hitherward with knowledge, augmenting this sacrifice with (vasat) utterance. O Lord supreme, may you come hither with knowledge. May this sacrifice be a heaven for this sacrificer. Svaha

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    Translation

    O teacher and preacher! you spreading and accomplishing our yajna with knowledge and munificence come near us, master of Vedic speeches! please grace our yajna with Your presence and with the knowledge of veda and the great Brahman, the Supreme Being. May this yajna be source of knowledge, splendor and Prosperity for yajmana, the performer of yajna. [N.B. I should be born in mind that there are two kinds of Devas who are concerned with the yajna performed by a yajmana, according the vedas. The first category of Devas consist the learned priests employed in vaya and other learned men accomplishing yajna. They are Satisfied with the food, water and Dakshina, the remuneration. These Devas have been described in the hymn XXVI translated above. The translation rendered covers the devas of this first category. The second category of Devas of yajna consist those physical forces for whose sake the oblations are offered in the fire of pajna, They are deemed Satisfied with oblation burnt by yajnafire through which they receive. Their Satisfaction is merely chemical one. These Devas of second category ara also described in the above hymn by the names of Agni, Savitar, Indra etc.]

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    Translation

    O man and woman doers of noble acts exalting the soul, through Vedic knowledge and charity, come hitherward. O God, the Protector of vast worlds, came unto us with Vedic knowledge. May this soul be a source of joyand dignity for this learned person. This is a nice saying.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(अश्विना) अ० २।२९।६। अश्वो व्याप्तिः−इनि। अश्वी च अश्विनी च। पुमान् स्त्रिया। पा० १।२।६७। इत्येकशेषः। कार्येषु व्याप्तिशीलौ स्त्रीपुरुषौ (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (आ यातम्) आ गच्छतम् (अर्वाञ्चौ) अ० म० ३।२।३। अस्मदभिमुखौ (वषट्कारेण) अ० १।११।१। वह प्रापणे−उषटि। दानकर्मणा (वर्धयन्तौ) समर्धयन्तौ सन्तौ (बृहस्पते) बृहतां लोकानां रक्षक जगदीश्वर (ब्रह्मणा) अस्माकं वृद्धिसाधनेन सह (आ याहि) आ गच्छ। साक्षाद् भव (अर्वाङ्) अ० ३।२।३। अभिमुखः सन् (यज्ञः) संगमः। समाजः (अयम्) दृश्यमानः (स्वः) सुखम् (इदम्) इन्देः कमिन्नलोपश्च। उ० ४।१५७। इति इदि परमैश्वर्ये−कमिन्। ऐश्वर्यकरम् (यजमानाय) संगतिशीलाय (स्वाहा) सुवाणी भवतु ॥

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