अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 28/ मन्त्र 10
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्न्यादयः
छन्दः - पञ्चपदातिशक्वरी
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
इ॒मास्ति॒स्रो दे॑वपु॒रास्तास्त्वा॑ रक्षन्तु स॒र्वतः॑। तास्त्वं बिभ्र॑द्वर्च॒स्व्युत्त॑रो द्विष॒तां भ॑व ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मा: । ति॒स्र: । दे॒व॒ऽपु॒रा: । ता: । त्वा॒। र॒क्ष॒न्तु॒ । स॒र्वत॑: । ता: । त्वम् । बिभ्र॑त् । व॒र्च॒स्वी । उत्त॑र: । द्वि॒ष॒ताम् । भ॒व॒ ॥२८.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
इमास्तिस्रो देवपुरास्तास्त्वा रक्षन्तु सर्वतः। तास्त्वं बिभ्रद्वर्चस्व्युत्तरो द्विषतां भव ॥
स्वर रहित पद पाठइमा: । तिस्र: । देवऽपुरा: । ता: । त्वा। रक्षन्तु । सर्वत: । ता: । त्वम् । बिभ्रत् । वर्चस्वी । उत्तर: । द्विषताम् । भव ॥२८.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 28; मन्त्र » 10
विषय - वर्चस्वी, द्विषताम् उत्तरः
पदार्थ -
१. (इमाः ये तिस्त्र:) = तीन (देवपुरा:) = देवों की अग्रगतियाँ हैं। देव 'आँख, नाक, कान' के यथोचित व्यापार से ज्ञानवृद्धि करते हैं, 'मुख, त्वचा व हाथ' के यथोचित व्यवहार से उचित आनन्द का अर्जन करते हुए 'हदय व उदर' को ठीक रखते हैं, 'पायु, उपस्थ व पाद्' की संयत गति से शरीर को सुदृढ़ बनाते हैं। (ता:) = उन तीन देवों की अग्रगतियाँ (त्वा) = तुझे (सर्वत: रक्षन्तु) = सब ओर से रक्षित करनेवाली हों। इनके द्वारा तू अपना पूर्ण रक्षण कर। २. (त्वम्) = तू (ता:) = उन्हें (बिभ्रत्) = धारण करता हुआ (वर्चस्वी) = प्रशस्त (वर्चस्) = [Vitality]-वाला व (द्विषताम् उत्तरः) = शत्रुओं का विजेता (भव) = हो।
भावार्थ -
देवों के अग्रगमनों को अपनाकर हम वर्चस्वी व शत्रु-विजेता बनें।
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