अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 28/ मन्त्र 12
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्न्यादयः
छन्दः - ककुम्मत्यनुष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
आ त्वा॑ चृतत्वर्य॒मा पू॒षा बृह॒स्पतिः॑। अह॑र्जातस्य॒ यन्नाम॒ तेन॒ त्वाति॑ चृतामसि ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । चृ॒त॒तु॒ । अ॒र्य॒मा । आ । पू॒षा । आ । बृह॒स्पति॑: । अह॑:ऽजातस्य । यत् । नाम॑ । तेन॑ । त्वा॒ । अति॑ । घृ॒ता॒म॒सि॒ ॥२८.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा चृतत्वर्यमा पूषा बृहस्पतिः। अहर्जातस्य यन्नाम तेन त्वाति चृतामसि ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । चृततु । अर्यमा । आ । पूषा । आ । बृहस्पति: । अह:ऽजातस्य । यत् । नाम । तेन । त्वा । अति । घृतामसि ॥२८.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 28; मन्त्र » 12
विषय - अर्यमा, पूषा, बृहस्पति
पदार्थ -
१. (अर्यमा) = [अरीन् यच्छति] शत्रुओं का नियमन करनेवाला साधक (त्वा) = तुझे-'मुख, त्वचा व हाथ' के त्रिक को (आवृततु) = सब ओर से बाँधे [चती हिंसासंग्रन्थनयोः] अथवा सब ओर से मार ले-वश में कर ले। (पूषा) = पोषण करनेवाला यह साधक 'पायु, उपस्थ व पाद् के त्रिक को वशीभूत करे। बृहस्पतिः-ज्ञान का रक्षक व स्वामी बननेवाला यह साधक आँख, नाक ब कान' के त्रिक को ज्ञान-प्राप्ति में संग्रथित करे। २. (अहः) = सम्पूर्ण दिन (जातस्य) = सदा से प्रादुर्भूत उस स्वयम्भू प्रभु का (यत् नाम) = जो नाम-स्मरण है-नाम का जप है, (तेन) = उसके द्वारा (त्वा) = तुझ इन्द्रिय-त्रिक को (अतिचतामसि) = अतिशयेन बन्धन में-संयमन में-करते हैं। प्रभु-नामस्मरण इन्द्रिय-संयम में हमारा सहायक होता है
भावार्थ -
इन्द्रिय-संयम के लिए प्रभु नाम-स्मरण को अपनाते हुए हम 'अर्यमा, पूषा व बृहस्पति' बनते हैं।
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