अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 28/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्न्यादयः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
इ॒ममा॑दित्या॒ वसु॑ना॒ समु॑क्षते॒मम॑ग्ने वर्धय वावृधा॒नः। इ॒ममि॑न्द्र॒ सं सृ॑ज वी॒र्ये॑णा॒स्मिन्त्रि॒वृच्छ्र॑यतां पोषयि॒ष्णु ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । आ॒दि॒त्या॒: । वसु॑ना । सम् । उ॒क्ष॒त॒ । इ॒मम् । अ॒ग्ने॒ । वर्ध॒य॒ । व॒वृ॒धा॒न:। इ॒मम् । इ॒न्द्र॒ । सम् । सृ॒ज॒ । वी॒र्ये᳡ण । अ॒स्मिन् । त्रि॒ऽवृत् । श्र॒य॒ता॒म् । पो॒ष॒यि॒ष्णु ॥२८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इममादित्या वसुना समुक्षतेममग्ने वर्धय वावृधानः। इममिन्द्र सं सृज वीर्येणास्मिन्त्रिवृच्छ्रयतां पोषयिष्णु ॥
स्वर रहित पद पाठइमम् । आदित्या: । वसुना । सम् । उक्षत । इमम् । अग्ने । वर्धय । ववृधान:। इमम् । इन्द्र । सम् । सृज । वीर्येण । अस्मिन् । त्रिऽवृत् । श्रयताम् । पोषयिष्णु ॥२८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 28; मन्त्र » 4
विषय - आदित्य, अनि, इन्द्र
पदार्थ -
१. हे (आदित्या:) = आदित्य विद्वानो! प्रकृति, जीव, परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करनेवाले विद्वानो! (इमम्) = इसे (वसुना) = निवास के लिए साधनभूत ज्ञान-धन से (समुक्षत) = सिक्त कर दो-इसे जीवन को उत्तम बनानेवाले ज्ञान से परिपूर्ण का दो। हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (वावृधानाः) = स्तुतियों के द्वारा बढ़ाये जाते हुए आप (इमम्) = इस स्तोता को (वर्धय) = बढ़ाइए। प्रभु-स्तवन से प्रभु की भावना हममें बढ़े और हम वृद्धि को प्राप्त हों। २. हे (इन्द्र) = शत्रु-विद्रावक प्रभो! (इमम्) = इस उपासक को (वीर्येण संसूज) = वीर्य से संसृष्ट करो। (अस्मिन्) = इस उपासक में (पोषयिष्णु) = पोषण को प्राप्त कराता हुआ (त्रिवृत्) = प्रथम मन्त्र में विर्णत 'हरित, रजत व अयस्' में विष्ठित इन्द्रिय-त्रिक (श्रयताम्) = आश्रय करें।
भावार्थ -
आदित्यों की कृपा से हमें ज्ञान-धन प्राप्त हो। अग्निरूप प्रभु हमारा वर्धन करें। शत्रु-विद्रावक प्रभु हमें वीर्य-संसृष्ट करें।
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