अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 28/ मन्त्र 8
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्न्यादयः
छन्दः - पञ्चपदातिशक्वरी
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
त्रयः॑ सुप॒र्णास्त्रि॒वृता॒ यदाय॑न्नेकाक्ष॒रम॑भिसं॒भूय॑ श॒क्राः। प्रत्यौ॑हन्मृ॒त्युम॒मृते॑न सा॒कम॑न्त॒र्दधा॑ना दुरि॒तानि॒ विश्वा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्रय॑: । सु॒ऽप॒र्णा: । त्रि॒ऽवृता॑ । यत् । आय॑न् । ए॒क॒ऽअ॒क्ष॒रम् । अ॒भि॒ऽसं॒भूय॑ । श॒क्रा: । प्रति॑ । औ॒ह॒न् । मृ॒त्युम् ।अ॒मृते॑न । सा॒कम् । अ॒न्त॒:ऽदधा॑ना: । दु॒:ऽइ॒तानि॑ । विश्वा॑ ॥२८.८॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रयः सुपर्णास्त्रिवृता यदायन्नेकाक्षरमभिसंभूय शक्राः। प्रत्यौहन्मृत्युममृतेन साकमन्तर्दधाना दुरितानि विश्वा ॥
स्वर रहित पद पाठत्रय: । सुऽपर्णा: । त्रिऽवृता । यत् । आयन् । एकऽअक्षरम् । अभिऽसंभूय । शक्रा: । प्रति । औहन् । मृत्युम् ।अमृतेन । साकम् । अन्त:ऽदधाना: । दु:ऽइतानि । विश्वा ॥२८.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 28; मन्त्र » 8
विषय - शक्राः
पदार्थ -
१. (त्रयः सुपर्णा:) = मन्त्र छह में वर्णित उत्तमता से पालन करनेवाले तीनों हिरण्य 'स्वर्णभस्म, सोमरस व वीर्य' (त्रिवृता) = 'हरित, रजत व अयस' में विष्ठित त्रिकों के साथ (यदा आयन्) = जब प्राप्त होते हैं तब ये उपासक (एकाक्षरम् अभिसंभूय) = उस अद्वितीय, अविनाशी प्रभु की ओर गतिवाले होकर-प्रभु-प्रवण होकर (शक्रा:) = वस्तुतः शक्तिशाली बनते हैं। २. ये अमृतेन साकम अमृतत्व के साधनभूत वीर्य से रक्षण के साथ (मृत्युम्) = मृत्यु को (प्रत्यौहन्) = [अहिर् अर्दन] अपने से दूर पीड़ित करते हैं तथा (विश्वा दुरितानि) = सब दुरितों को दुर्गमनों को (अन्तर्दधाना:) = अन्तर्हित करते हैं।
भावार्थ -
'स्वर्ण, सोमरस व वीर्य' को प्राप्त करके प्रभु-प्रवण होते हुए हम शक्तिशाली बनें, मृत्यु को अपने से दूर करें, वीर्यरक्षण से सब पापों को अपने से तिरोहित कर दें-दूर भगा दें।
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