अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 28/ मन्त्र 14
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्न्यादयः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
घृ॒तादुल्लु॑प्तं॒ मधु॑ना॒ सम॑क्तं भूमिदृं॒हमच्यु॑तं पारयि॒ष्णु। भि॒न्दन्त्स॒पत्ना॒नध॑रांश्च कृ॒ण्वदा मा॑ रोह मह॒ते सौभ॑गाय ॥
स्वर सहित पद पाठघृ॒तात्। उत्ऽलु॑प्तम् । मधु॑ना । सम्ऽअ॑क्तम् । भू॒मि॒ऽदृं॒हम् । अच्यु॑तम् । पा॒र॒यि॒ष्णु । भि॒न्दत् । स॒ऽपत्ना॑न् । अध॑रान् । च॒ । कृ॒ण्वत् । आ । मा॒ । रो॒ह॒ । म॒ह॒ते । सौभ॑गाय ॥२८.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
घृतादुल्लुप्तं मधुना समक्तं भूमिदृंहमच्युतं पारयिष्णु। भिन्दन्त्सपत्नानधरांश्च कृण्वदा मा रोह महते सौभगाय ॥
स्वर रहित पद पाठघृतात्। उत्ऽलुप्तम् । मधुना । सम्ऽअक्तम् । भूमिऽदृंहम् । अच्युतम् । पारयिष्णु । भिन्दत् । सऽपत्नान् । अधरान् । च । कृण्वत् । आ । मा । रोह । महते । सौभगाय ॥२८.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 28; मन्त्र » 14
विषय - घृतादुल्लुस मधुना समक्तम्
पदार्थ -
१. गतमन्त्र में वर्णित 'तेजस्' को सम्बोधित करते हुए साधक कहता है कि यह तेजस् (घृतात्) = दीसि-ज्ञानदीप्ति के हेतु से (उत् लुसम्) = ऊर्ध्वगतिवाला किया जाकर अदृष्ट किया जाता है। वीर्य की ऊर्ध्व गति करनेवाला 'ऊर्ध्वरेतस्' पुरुष अपनी ज्ञानाग्नि को दीप्त करनेवाला होता है। यह वीर्य (मधना) = माधुर्य के हेतु से (समक्तम्) = शरीर में संगत किया गया है। सुरक्षित हुआ हुआ वीर्य जीवन को मधुर बनाता है। (भूमिदृहम्) = यह शरीररूप भूमि को दृढ़ बनाता है, (अच्युतम्) = हमें शरीर से च्युत नहीं होने देता, अर्थात् दीर्घजीवन का कारण बनता है। पारयिष्णु-हमें सब रोगों से पार ले-जानेवाला है। २. (सपत्नान्) = रोगरूप शत्रुओं को (भिन्दन) = विदीर्ण करता हुआ (च) = तथा (अधरान् कृण्वत्) = उन्हें पाव तले रौंदता हुआ हे वीर्य! तू (महते सौभगाय) = मेरे महान् सौभाग्य के लिए (मा आरोह) = मेरे शरीर में आरोहण कर-ऊर्ध्वगतिवाला हो। शरीर में सुरक्षित हुआ यह वीर्य हमारे सब प्रकार के उत्थान का कारण बनता है।
भावार्थ -
'ज्ञानदीति तथा माधुर्य' के हेतु से वीर्य को शरीर में सुरक्षित व ऊर्ध्वगतिवाला किया जाता है। यह शरीर को दृढ़ बनाता है, हमें सब रोगों से पार ले-जाता है, रोगरूप शत्रुओं को कुचलता हुआ यह हमारे महान् सौभाग्य के लिए हो।
विशेष -
वीर्यरक्षा द्वारा रोगरूप शत्रुओं का विनाश करनेवाला व्यक्ति 'चातन' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -