अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 28/ मन्त्र 13
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्न्यादयः
छन्दः - पुरउष्णिक्
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
ऋ॒तुभि॑ष्ट्वार्त॒वैरायु॑षे॒ वर्च॑से त्वा। सं॑वत्स॒रस्य॒ तेज॑सा॒ तेन॒ संह॑नु कृण्मसि ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तुऽभि॑: । त्वा॒ । आ॒र्त॒वै: । आयु॑षे । वर्च॑से । त्वा॒। स॒म्ऽव॒त्स॒रस्य॑। तेज॑सा । तेन॑ । सम्ऽह॑नु । कृ॒ण्म॒सि॒ ॥२८.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतुभिष्ट्वार्तवैरायुषे वर्चसे त्वा। संवत्सरस्य तेजसा तेन संहनु कृण्मसि ॥
स्वर रहित पद पाठऋतुऽभि: । त्वा । आर्तवै: । आयुषे । वर्चसे । त्वा। सम्ऽवत्सरस्य। तेजसा । तेन । सम्ऽहनु । कृण्मसि ॥२८.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 28; मन्त्र » 13
विषय - आयुषे वर्चसे
पदार्थ -
१. (ऋतुभिः आर्तवै:) = ऋतुओं व ऋतुओं में होनेवाली वनस्पतियों द्वारा (त्वा) = तुझ-'अर्यमा, पूषा, बृहस्पति' [मन्त्र १२] को (आयुषे) = आयु के लिए तथा (वर्चसे) = वर्चस् [भास्वर शक्ति] के लिए (कृण्मसि) = करते हैं। २. संवत्सरस्य सम्पूर्ण वर्ष के तेन तेजसा उस तेज से-सम्पूर्ण वर्ष नीरोगता व तेजस्विता से (त्वा) = तुझे (संहनु) = संगत [हन् गती] करते हैं।
भावार्थ -
समयानुसार उस-उस ऋतु में उत्पन्न होनेवाली वनस्पतियों के प्रयोग से हम दीर्घायु व वर्चस्वी हों, सम्पूर्ण वर्ष तेजस्वी व नीरोग बनें।
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