ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 10
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यदूव॑ध्यमु॒दर॑स्याप॒वाति॒ य आ॒मस्य॑ क्र॒विषो॑ ग॒न्धो अस्ति॑। सु॒कृ॒ता तच्छ॑मि॒तार॑: कृण्वन्तू॒त मेधं॑ शृत॒पाकं॑ पचन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ऊव॑ध्यम् । उ॒दर॑स्य । अ॒प॒ऽवाति॑ । यः । आ॒मस्य॑ । क्र॒विषः॑ । ग॒न्धः । अस्ति॑ । सु॒ऽकृ॒ता । तत् । श॒मि॒तारः॑ । कृ॒ण्व॒न्तु॒ । उ॒त । मेध॑म् । शृ॒त॒ऽपाक॑म् । प॒च॒न्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदूवध्यमुदरस्यापवाति य आमस्य क्रविषो गन्धो अस्ति। सुकृता तच्छमितार: कृण्वन्तूत मेधं शृतपाकं पचन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। ऊवध्यम्। उदरस्य। अपऽवाति। यः। आमस्य। क्रविषः। गन्धः। अस्ति। सुऽकृता। तत्। शमितारः। कृण्वन्तु। उत। मेधम्। शृतऽपाकम्। पचन्तु ॥ १.१६२.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 10
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वांसः शमितारो भवन्तो य उदरस्योदरस्थस्यामस्य क्रविषो गन्धोऽपवाति यदूवध्यमस्ति वा तत्तानि कृण्वन्तु। उतापि मेधं शृतपाकं पचन्त्वेवं विधाय सुकृता भुञ्जताम् ॥ १० ॥
पदार्थः
(यत्) (ऊवध्यम्) वधितुं ताडितुमर्हम् (उदरस्य) (अपवाति) अपगतं वाति गच्छति (यः) (आमस्य) अपक्वस्य (क्रविषः) क्रमितुं योग्यस्याऽन्नस्य (गन्धः) (अस्ति) (सुकृता) सुष्ठुकृतानि निष्पादितानि (तत्) तानि (शमितारः) संगतान्नस्य निष्पादितारः (कृण्वन्तु) हिंसन्तु (उत) (मेधम्) संगतम् (शृतपाकम्) शृतश्चासौ पाकश्च तम्। पुनरुक्तमतिसंस्कारद्योतनार्थम्। (पचन्तु) परिपक्वं कुर्वन्तु ॥ १० ॥
भावार्थः
ये मनुष्या उदररोगनिवारणाय सुसंस्कृतान्यन्नान्यौषधानि च भुञ्जते ते सुखिनो जायन्ते ॥ १० ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वानो ! (शमितारः) प्राप्त हुए अन्न को सिद्ध करने बनानेवाले आप (यः) जो (उदरस्य) उदर में ठहरे हुए (आमस्य) कच्चे (क्रविषः) क्रम से निकलने योग्य अन्न का (गन्धः) गन्ध (अपवाति) अपान वायु के द्वारा जाता निकलता है वा (यत्) जो (ऊवध्यम्) ताड़ने के योग्य (अस्ति) है तत् उसको (कृण्वन्तु) काटो (उत) और (मेधम्) प्राप्त हुए (शृतपाकम्) परिपक्व पदार्थ को (पचन्तु) पकाओ, ऐसे उसे सिद्ध कर (सुकृता) सुन्दरता से बनाये हुए पदार्थों को खाओ ॥ १० ॥
भावार्थ
जो मनुष्य उदररोग निवारने के लिये अच्छे बनाये अन्न और ओषधियों को खाते हैं, वे सुखी होते हैं ॥ १० ॥
विषय
सात्त्विक व ठीक परिपक्व भोजन
पदार्थ
१. गतमन्त्र में दिव्य गुणों की प्राप्ति का उल्लेख था। इसके लिए स्वास्थ्य का ठीक होना भी अत्यन्त आवश्यक है। स्वास्थ्य का सम्बन्ध भोजन से है। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए ठीक परिपक्व भोजन चाहिए और मानस- स्वास्थ्य के लिए उसका सात्त्विक होना भी आवश्यक है । इसी विषय को प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि (यत्) = जो (ऊवध्यम्) = [भक्षितं अपक्वम् आमाशयस्थम्म०] खाया हुआ अन्न ठीक से पचता नहीं वह (उदरस्य अपवाति) = पेट में दुर्गन्ध का कारण बनता है (गन्धायते - उ०) या वमन आदि द्वारा बाहर हो जाता है ( अपगच्छति- म०) और इस प्रकार वातिक रोगों का कारण बनता है। २. भोजन में (यः) = जो (आमस्य) = कच्चेपन का (गन्धः) = लेश अस्ति है और परिणामतः इसके पूर्ण परिपाक न होने से कफजनित रोग उत्पन्न हो जाते हैं। ३. अथवा भोजन में जो (क्रविष:) = पैत्तिक विकार के द्वारा हिंसा करने के दोष का (गन्धः अस्ति) = सम्बन्ध है (तत्) = उस दोष को (शमितार:) = सब दोषों को दूर करके शान्ति करनेवाले (सुकृता कृण्वन्तु) = भोजनों को सुसंस्कृत कर दें, अर्थात् भोजनों में से दोषों को पूर्णतया दूर कर दें (उत) = और (मेधम्) = पवित्र सात्त्विक वस्तु को (शृतपाकं पचन्तु) = ठीक परिपाकवाला पकाएँ। उसे न ईषत्पक्व और नहीं अतिपक्व होने दें। ईषत्पक्व कफ-सम्बन्धी विकारों का कारण बनता है और अतिपक्व पित्त-विकारों का कारण होता है। पेट में जाकर ठीक पचन न होने पर वातिक विकार कष्ट देते हैं, अतः भोजन सात्त्विक भी हो और उचित रूप में पका हुआ भी हो ।
भावार्थ
भावार्थ - हम सात्त्विक पदार्थों का ही सेवन करें तथा वही भोजन करें जिसका ठीक से परिपाक हुआ है। फलों में भी कच्चे व गले सड़े फलों का प्रयोग न करें।
विषय
वध किये अश्व के मांसादि की नाना कल्पना आदि अयुक्त अर्थों का खण्डन । शरीर की व्यवस्थावत् राष्ट्र की सुव्यवस्था । अश्वमेध के अश्व के मांस पकाने आदि का खण्डन ।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! ( यत् ) जो ( ऊवध्यं ) विनाश करने योग्य, चिकित्सनीय, ( उदरस्य ) पेट का वायु अपान आदि पेट से (अप वाति) अनपच, वमन आदि के द्वारा निकल जाता है और ( यः ) जो (आमस्य) कच्चे ( क्रविषः ) खाने योग्य अन्न का ( गन्धः अस्ति ) बुरा गन्ध हो ( तत् ) उन सब दोषों को ( शमितारः ) शान्तिजनक, अन्न के पकाने वाले जन दूर करके (सुकृता कृण्वन्तु) सुखजनक कर दें । और ( मेधं ) अन्न को ( श्रृतपाकं पचन्तु ) खूब अच्छी प्रकार परिपक्व करें । ( २ ) राष्ट्र पक्ष में—( यत् ) जो भी ( ऊवध्यम् ) उच्छेद करने योग्य या मलिन कार्य करने वाला राष्ट्र का भाग ( उदरस्य ) पेट के भीतर पड़े अधकचे अन्न के समान उपद्रवियों को समूल नाश करने वाले दुष्ट दलनकारी विभाग के हाथ से ( अप वाति ) निकल भागे और (यः) नो ( आमस्य ) रोगकारी हिंसक जन्तुओं का ( गन्धः ) परपीड़न का कार्य (अस्ति) है ( शमितारः ) उपद्रव और देवी और मानुषी विपत्तियों को शान्त करने वाले विद्वान् और वीर पुरुष ( सुकृता ) उत्तम उपाय से ( तत् ) उसको ( कृण्वन्तु ) विनाश करें । ( उत ) और ( मेधं ) हिंसाकारी वर्ग को ( श्रृतपाकं पचन्तु ) खूब परिपक्व अर्थात् सन्तप्त करें । जिससे वह दुष्टता त्याग सौम्य हो जाय । विशेष देखो यजु० २५ । ३३ ॥ इत्यष्टमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः देवताः ॥ छन्दः- १, २, ९, १०, १७, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३ निचृज्जगती। ४,७,८,१८ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ११, २१ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ स्वराट् त्रिष्टुप् । १३, १४ भुरित् पङ्क्तिः । १५, १९, २२ स्वराट् पङ्क्तिः। १६ विराट् पङ्क्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे उदररोग निवारण करण्यासाठी संस्कारित केलेले अन्न व औषधी खातात ती सुखी असतात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Whatever the gaseous exudations or wastes from consumption in the national economy, whatever discharges from the bio-economic circulation of raw materials towards the output of finished products, all these wastes and by-products should be positively recycled by the expert managers of the economy who must also season whatever is ripe and ready for further refinement and sophistication.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The rightly cooked meals and well prepared medicines are sources of happiness.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Food undigested that comes out of the bowels, and the bad odour rising in the intestines from the said half cooked food should be non-existent in a menu prepared by the skilled cooks.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men enjoy happiness and health, who take well cooked food and medicines for the cure of stomach and abdominal diseases.
Foot Notes
(ऋविष:) ऋमितुं योग्यस्य अन्नस्य: = Of the food that is to be undigested and disposed to come out. ( शमितार: ) संगतस्य अन्नस्य निष्पादितार: Cooks who prepare well-cooked food. ( कृण्वन्तु) हिंसन्तु = May destroy.
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