ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 17
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यत्ते॑ सा॒दे मह॑सा॒ शूकृ॑तस्य॒ पार्ष्ण्या॑ वा॒ कश॑या वा तु॒तोद॑। स्रु॒चेव॒ ता ह॒विषो॑ अध्व॒रेषु॒ सर्वा॒ ता ते॒ ब्रह्म॑णा सूदयामि ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ते॒ । सा॒दे । मह॑सा । शूकृ॑तस्य । पार्ष्ण्या॑ । वा॒ । कश॑या । वा॒ । तु॒तोद॑ । स्रु॒चाऽइ॑व । ता । ह॒विषः॑ । अ॒ध्व॒रेषु॑ । सर्वा॑ । ता । ते॒ । ब्रह्म॑णा । सू॒द॒या॒मि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते सादे महसा शूकृतस्य पार्ष्ण्या वा कशया वा तुतोद। स्रुचेव ता हविषो अध्वरेषु सर्वा ता ते ब्रह्मणा सूदयामि ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। ते। सादे। महसा। शूकृतस्य। पार्ष्ण्या। वा। कशया। वा। तुतोद। स्रुचाऽइव। ता। हविषः। अध्वरेषु। सर्वा। ता। ते। ब्रह्मणा। सूदयामि ॥ १.१६२.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 17
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वन् यद्यस्ते सादे महसा बलेन शूकृतस्य पार्ष्ण्या वा कशयाऽश्वं तुतोद वाऽध्वरेषु हविषः स्रुचेव ता तानि तुतोद ता सर्वा ते ब्रह्मणाऽहं सूदयामि ॥ १७ ॥
पदार्थः
(यत्) यः (ते) तव (सादे) स्थितौ (महसा) महता (शूकृतस्य) शीघ्रं निष्पादितस्य (पार्ष्ण्या) स्पर्शकारकेन (वा) (कशया) प्रेरकया (वा) (तुतोद) तुद्यात् प्रेरयेत् (स्रुचेव) (ता) तानि (हविषः) होतव्यस्य (अध्वरेषु) अहिंसनीयेषु यज्ञेषु (सर्वा) सर्वाणि (ता) तानि (ते) तव (ब्रह्मणा) धनेन (सूदयामि) क्षरयामि ॥ १७ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसः कशया वेत्रेणाश्वं प्रतोदेन वृषभान् अंकुशेन हस्तिनं प्रातड्य सद्यो गमयन्ति तथैव कलायन्त्रैरग्निं प्रचाल्य विमानादि यानानि शीघ्रं गमयेयुः ॥ १७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वान् ! (यत्) जो (ते) तेरे (सादे) स्थित होने में (महसा) अत्यन्त बल से (शूकृतस्य) शीघ्र उत्पन्न किये हुए पदार्थों के (पार्ष्ण्या) छूनेवाले पदार्थ से (वा) वा (कशया) जिससे प्रेरणा दी जाती उस कोड़ा से घोड़े को (तुतोद) प्रेरणा देवे (वा) वा (अध्वरेषु) न नष्ट करने योग्य यज्ञों में (हविषः) होमने योग्य वस्तु के (स्रुचेव) जैसे स्रुचा से काम बनें वैसे (ता) उन कामों को प्रेरणा देवे (ता) उन (सर्वा) सब (ते) तेरे कामों को (ब्रह्मणा) धन से मैं (सूदयामि) अलग अलग करता हूँ ॥ १७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् जन कोड़ा वा बेंत से घोड़े को, पनेड़ी से बैलों को, अंकुश से हाथी को अच्छी ताड़ना दे उनको शीघ्र चलाते हैं, वैसे ही कलायन्त्रों से अग्नि को अच्छे प्रकार चलाकर विमान आदि यानों को शीघ्र चलावें ॥ १७ ॥
विषय
'सामृत' पाणि से दिया गया दण्ड
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार विद्यार्थी आचार्य से अनुशिष्ट होकर इन्द्रियाश्वों का अधिष्ठाता बनता है। आचार्य ने अपने 'महस्' तेज से विद्यार्थी को यथासम्भव शीघ्र ही शिक्षित करने का प्रयत्न किया है। शूकृतस्य - [शीघ्रशिक्षितस्य - द०]। इस कार्य में उसे कभी-कभी विद्यार्थी को दण्ड भी देना पड़ता है। यह दण्ड हाथ-पाँव के प्रहार से भी हो सकता है [पार्ष्या - heel से], वाणी के द्वारा झिड़कने से भी [कशया] । आचार्य कहते हैं कि इन दण्डों को तुम ऐसा समझना जैसे (स्रुच्) = चम्मच से यज्ञों में हवि डालता हो । आचार्य ज्ञान देकर उन दण्डों के कष्टों को विस्मारित कर देते हैं । २. आचार्य विद्यार्थी से कहते हैं कि (सादे) = शरीर-रथ के उत्तम सञ्चालक शिष्य ! महसा तेजस्विता से शूकृतस्य शीघ्र शिक्षित किये गये (ते) = तुझे (यत्) = जो (पार्ष्या वा) = एड़ी से या (कशया वा) = [कश वाङ्नाम] वाणी से झिड़कने के द्वारा तुतोद मैंने कभी-कभी पीड़ित किया है, तो तू स्पष्ट समझ लेना कि ता= वे सब दण्ड तो इस प्रकार के हैं (इव) = जैसे (स्रुचा) = चम्मच से (हविष:) = हवि का (अध्वरेषु) = यज्ञों में प्रक्षेपण होता है। इन दण्डों के द्वारा तेरी वृत्ति को मैंने इधर-उधर से हटाकर ज्ञानप्रवण करने का प्रयत्न किया है। ३. इस प्रकार (ते) = तेरी (ता) = उन सब दण्ड- पीड़ाओं को (ब्रह्मणा) = ज्ञानप्राप्ति के द्वारा (सूदयामि) = नष्ट करता हूँ। तुझे इस प्रकार कड़े नियन्त्रण में रहने से प्राप्त हुआ हुआ ज्ञान सब पीड़ाओं को भुलानेवाला होगा। आचार्य दयानन्द 'सूदयामि' का अर्थ 'प्रापयामि' करते हैं। आचार्य कहते हैं कि सब दण्डों का उद्देश्य यही है कि तू किसी प्रकार अधिक-से-अधिक ज्ञान प्राप्त करनेवाला बने। मैं अपने अपमान से उद्विग्न होकर दण्ड नहीं देता, केवल तेरे हित के लिए अमृतमय हाथों से ही दण्ड देता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ- आचार्य विद्यार्थी को जो दण्ड देते हैं वह तो यज्ञ में स्रुच् से हवि प्रक्षेपण के समान है। उसके द्वारा आचार्य विद्यार्थी के जीवन में ज्ञान की आहुतियाँ देने का प्रयत्न करते हैं।
विषय
अश्ववत् राष्ट्रपति के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे विद्वन् ! हे राजन् ! हे राष्ट्रपते ! हे अश्व के समान वे से कार्य करने हारे ! जिस प्रकार तेज़ घोड़े को (पार्ष्ण्या कशया वा तुतोद) एडी या चाबुक से पीड़ित कर ठीक मार्ग पर चलाया जाता है उसी प्रकार ( यत् ) जब ( शूकृतस्य ) शीघ्र कार्य करने वाले या अविवेक के कारण बिना विचारे शीघ्रता से कार्य कर डालने वाले (ते) तेरे (सादे) अवसाद अर्थात् पथभ्रष्ट होने या आलस्य में पैर रख देने पर कोई ( महसा ) अपने बड़े बल से या ( पार्ष्ण्या ) पार्ष्णिग्राह अर्थात् पीछे से आक्रमण करने वाली शत्रुसेना द्वारा या ( कशया ) अपनी बड़ी शासन शक्ति से ( त्वां तुतोद ) तुझे पीड़ा पहुंचावे तुझे दुःखित करे तो ( ते ) तेरी (ता) उन सब त्रुटियों को मैं विद्वान् पुरोहित ( अध्वरेषु हविषः ब्रह्मणा स्त्रुचा इव ) यज्ञों में जैसे हवियों को वेद मन्त्र सहित स्रुचों से दिया जाता है उसी प्रकार ( ब्रह्मणा ) महान् बल और वेद ज्ञान और ऐश्वर्य से ( सूदयामि ) दूर करूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः देवताः ॥ छन्दः- १, २, ९, १०, १७, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३ निचृज्जगती। ४,७,८,१८ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ११, २१ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ स्वराट् त्रिष्टुप् । १३, १४ भुरित् पङ्क्तिः । १५, १९, २२ स्वराट् पङ्क्तिः। १६ विराट् पङ्क्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे जसे विद्वान घोड्याला वेताने, बैलाला चाबकाने व हत्तीला अंकुशाने मारतात व त्यांना त्वरित पळवितात, तसेच कलायंत्राने अग्नीला चांगल्या प्रकारे चालवून विमान इत्यादी याने शीघ्र चालवावीत. ॥ १७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
On your being exhausted by excessive urging on, or by hurt with the spur or the whip, I relieve you of the hurt and exhaustion and refresh you in the yajnas of love and non-violence by the fragrance of oblations offered with the ladle and chant of hymns. (The nation, after strain in a crisis, needs rest and repair.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The accouters for vehicles should be good.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A learned person goads a horse for speedy race in urgency. It is like putting the oblations ladle at the Yajnas (non violent sacrifices) with my wealth. And ultimately the oblations might vanish. You likewise make advance in other ventures in aeronautics.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The learned persons goad horses and bulls with whips and elephants with hooks and thereby make them move swiftly. In the same manner, they should develop energy in the machines and arrange for the speed of aircrafts and vehicles.
Foot Notes
(अध्वरेषु ) अहिंसनीयेषु यज्ञेषु = In non-violent sacrifices. (ब्रह्मणा ) धनेन = With wealth.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal