ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 16
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
यदश्वा॑य॒ वास॑ उपस्तृ॒णन्त्य॑धीवा॒सं या हिर॑ण्यान्यस्मै। सं॒दान॒मर्व॑न्तं॒ पड्बी॑शं प्रि॒या दे॒वेष्वा या॑मयन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अश्वा॑य । वासः॑ । उ॒प॒ऽस्तृ॒णन्ति॑ । अ॒धी॒वा॒सम् । या । हिर॑ण्यानि । अ॒स्मै॒ । स॒म्ऽदान॑म् । अर्व॑न्तम् । पड्बी॑शम् । प्रि॒या । दे॒वेषु॑ । आ । य॒म॒य॒न्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदश्वाय वास उपस्तृणन्त्यधीवासं या हिरण्यान्यस्मै। संदानमर्वन्तं पड्बीशं प्रिया देवेष्वा यामयन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। अश्वाय। वासः। उपऽस्तृणन्ति। अधीवासम्। या। हिरण्यानि। अस्मै। सम्ऽदानम्। अर्वन्तम्। पड्बीशम्। प्रिया। देवेषु। आ। यमयन्ति ॥ १.१६२.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 16
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
ये विद्वांसोऽस्मा अश्वाय यद्वास उपस्तृणन्ति यमधीवासं संदानमर्वन्तं पड्वीशमुपस्तृणन्ति तेन या प्रिया हिरण्यानि देवेष्वा यामयन्ति ते तानि प्राप्य श्रीमन्तो भवन्ति ॥ १६ ॥
पदार्थः
(यत्) (अश्वाय) अग्नये (वासः) आच्छादनम् (उपस्तृणन्ति) (अधीवासम्) अधि उपरि वास आच्छादने यस्य तम् (या) यानि (हिरण्यानि) ज्योतिर्मयानि (अस्मै) (संदानम्) समीचीनं दानं यस्मात्तम् (अर्वन्तम्) गमयन्तम् (पड्वीशम्) प्राप्तानां पदार्थानां विभाजकम् (प्रिया) प्रियाणि कमनीयानि (देवेषु) विद्वत्सु (आ) (यामयन्ति) ॥ १६ ॥
भावार्थः
यदि मनुष्या विद्युदादिस्वरूपमग्निमुपयोक्तुं वर्द्धयितुं जानीयुस्तर्हि बहूनि सुखान्याप्नुयुः ॥ १६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो विद्वान् जन (अस्मै) इस (अश्वाय) अग्नि के लिये (यत्) जिस (वासः) ओढ़ने के वस्त्र को (उपस्तृणन्ति) उठाते वा जिस (अधीवासम्) ऐसे चारजामा आदि को कि जिस के ऊपर ढापने का वस्त्र पड़ता वा (संदानम्) समीचीन जिससे दान बनता उस यज्ञ आदि को (अर्वन्तम्) प्राप्त करते हुए (पड्वीशम्) प्राप्त पदार्थ को बाँटने छिन्न-भिन्न करनेहारे अग्नि को उठाते ढापते कलाघरों में लगाते हैं और उससे (या) जिस (प्रिया) प्रिय मनोहर (हिरण्यानि) प्रकाशमय पदार्थों को (देवेषु) विद्वानों में (आ, यामयन्ति) विस्तारते हैं व उन पदार्थों को पाकर श्रीमान् होते हैं ॥ १६ ॥
भावार्थ
जो मनुष्य बिजुली आदि रूपवाले अग्नि के उपयोग करने और उसको बढ़ाने को जानें तो बहुत सुखों को प्राप्त हों ॥ १६ ॥
विषय
दैवी सम्पत्ति का उद्भावन
पदार्थ
१. (प्रिया) = निम्न प्रिय बातें तुझे (देवेषु) = दिव्य गुणों में (आयामयन्ति) = [आगमयन्ति] प्राप्त कराती हैं, अर्थात् इन बातों के कारण तेरे जीवन में दिव्यगुणों का वर्धन होता है। 'कौन-सी प्रिय वस्तुएँ' ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि [क] (यत्) = जो (अश्वाय) = कर्मों में व्याप्त रहनेवाले [अश् व्याप्तौ] क्रियाशील विद्यार्थी के लिए (वास:) = प्रकृति-विज्ञान के वस्त्र को (उपस्तृणन्ति) = आच्छादित करते व फैलाते हैं [spread expand], [ख] इस प्रकृति-विज्ञान के वस्त्र के साथ (अधीवासम्) = सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मविद्या के वस्त्र को भी आच्छादित करते हैं। यहाँ प्रकृति-विज्ञान 'वासः' है तो आत्मज्ञान 'अधीवासः' है। प्रकृति-विज्ञान जीवन को सुन्दरता से बिताने के लिए सब आवश्यक साधन प्राप्त कराता है तो ब्रह्मविज्ञान उन साधनों के अयोग व अतियोग से बचाकर यथायोग करने की क्षमता प्राप्त कराता है। २. (ग) या = जो (अस्मै) = इस क्रियाशील विद्यार्थी के लिए (हिरण्यानि) = हितरमणीय वस्तुएँ प्राप्त करायी जाती हैं, ज्ञान के परिणामरूप 'अभय, सत्त्वसंशुद्धि' आदि वे सब दिव्यगुण प्राप्त होते हैं। ये सब 'हिरण्य' हैं । 'वास' व 'अधीवास' ने इस विद्यार्थी के मस्तिष्क को उज्ज्वल किया था तो ये 'हिरण्य' उसके हृदय को रमणीय बनाते हैं । ३. [घ] इसे जो (अर्वन्तम्) = सब बुराइयों का संहार करनेवाले (सन्दानम्) = उदर व कटिबन्धन प्राप्त कराते हैं। यह उदर-संयम उपस्थ-संयम का सर्वमहान् साधन है। इस संयम से सब बुराइयाँ स्वतः विनष्ट हो जाती हैं, इसीलिए 'सन्दानम्' को 'अर्वन्तम्' विशेषण दिया गया है । [४] [ङ] (पड्बीशम्) = सन्दान के साथ इसे वे पाद - बन्धन भी प्राप्त कराते हैं, अर्थात् इसकी गति व चाल-ढाल को बड़ा नियमित करते हैं। यह गति का नियमित करना ही अनुशासन है। ये सब बातें विद्यार्थी को दिव्य-गुणों से संगत करनेवाली होती हैं। इन दिव्य गुणों का प्रापण 'अश्व' – क्रियाशील के लिए ही होता है, अकर्मण्य के लिए नहीं। भावार्थ- आचार्य कर्मठ विद्यार्थी को 'प्रकृतिविज्ञान, आत्मविज्ञान, हितरमणीय गुणों के
भावार्थ
प्रति रुचि, भोजन का संयम व गति-नियमन' प्राप्त कराके दैवी सम्पत्तिवाला बनाने के लिए यत्नशील होते हैं ।
विषय
अश्वसैन्य और राष्ट्रपति की अश्व से तुलना ।
भावार्थ
( यत् अश्वाय वासः उपस्तृणन्ति ) जिस प्रकार अश्व के लिये वस्त्र ढांपते, ( अधीवासं ) उसको ऊपर का वस्त्र, ( हिरण्यानि ) सुवर्ण के आभूषण, ( संदानं ) उत्तम बंधन, लगाम आदि (पड्बीशं) पैर, के बांधने के पदार्थ आदि सभी उस अश्व को (देवेषु आयामयन्ति) विज़यशील सैनिकों के लिये सब प्रकार से कसते और तैयार करते हैं । इसी प्रकार (अश्वाय) घुड़सवारों के सैन्य के लिये ( वासः ) वस्त्र और रहने के स्थान, ( अधिवासं ) ऊपर का लबादा, ( हिरण्यानि ) सुवर्ण आदि रूप में वेतन, (संदानम्) उत्तम पुरस्कार, (पड्बीशम्) पदाधिकारों का ऐश्वर्य ये सब प्रिय पदार्थ उसको ( देवेषु ) राजाओं के अधीन ( आयामयन्ति ) बंधन में बांधते हैं । ( ३ ) इसी प्रकार राष्ट्रपति राजा के आदर के लिये ( वासः उपस्तृणन्ति ) उत्तम वस्त्र बिछाते हैं, (अधीवासं) ऊपर पहनने का लबादा सर्वोत्तम गृह और अध्यक्ष पद देते हैं ( हिरण्यानि ) सुवर्ण के आभूषण ( संदानं ) प्रजाओं का मिल कर उत्तम से उत्तम अभिनन्दन या वस्त्र आदि उत्तम पदार्थ का देना और ( पड्बीशं ) पैरों के रखने का पीढ़ा आदि ये सब ( प्रिया ) तृप्त और प्रसन्न करने के पदार्थ ( अर्वन्तम् ) उस बलवान् पुरुष को ( देवेषु ) विद्वानों और वीर पुरुषों के बीच में ( आयामयन्ति ) व्यापक अधिकार वाला और व्यवस्थित करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः देवताः ॥ छन्दः- १, २, ९, १०, १७, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३ निचृज्जगती। ४,७,८,१८ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ११, २१ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ स्वराट् त्रिष्टुप् । १३, १४ भुरित् पङ्क्तिः । १५, १९, २२ स्वराट् पङ्क्तिः। १६ विराट् पङ्क्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे विद्युत इत्यादी स्वरूपाच्या अग्नीचा उपयोग करून त्याची वृद्धी करणे जाणतात ती अत्यंत सुखी होतात. ॥ १६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Those who provide the decorative cover for the horse, i.e., the yajnic personality of the human nation on the march, and provide the over-cover as the air cover of fire for defence and onward march, and those who create the golden beauties for it, and the control of law, and the velocity of electric energy, and the brakes of equal power: all these people, cherished powers and beauties of the nation, raise the humans to the light of divinity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The horse or automation power is mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The respectable enlightened persons supply whatever covering and glittering for the energy. All those desirable products splitting. under the control of learned and right type persons. By so doing, people become prosperous.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If men know how to utilize fire in the form of electricity and how to multiply it, then they can enjoy happiness of various kinds.
Foot Notes
(अश्वाय) अग्नये = For fire in the form of electricity etc. (अषं॑न्तम्) गमयन्तम् = Moving (पड़वीशम् ) प्राप्तानां पदार्थानां विभाजकम् = Divider of the existing substances. (हिरण्यानि) ज्योतिर्मंयानि = Glittering. That the word 'Ashva' is used for Agni in various forms including electricity is clear from various authorities. This interpretation of Ashva for fire or electricity is not mere imagination of Rishi Dayananda Sarasvati, but is well authenticated.
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