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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 162 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 13
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यन्नीक्ष॑णं मां॒स्पच॑न्या उ॒खाया॒ या पात्रा॑णि यू॒ष्ण आ॒सेच॑नानि। ऊ॒ष्म॒ण्या॑पि॒धाना॑ चरू॒णाम॒ङ्काः सू॒नाः परि॑ भूष॒न्त्यश्व॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । नि॒ऽईक्ष॑णम् । मां॒स्पच॑न्याः । उ॒खायाः॑ । या । पात्रा॑णि । यू॒ष्णः । आ॒ऽसेच॑नानि । ऊ॒ष्म॒ण्या॑ । अ॒पि॒ऽधाना॑ । च॒रू॒णाम् । अ॒ङ्काः । सू॒नाः । परि॑ । भू॒ष॒न्ति॒ । अश्व॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यन्नीक्षणं मांस्पचन्या उखाया या पात्राणि यूष्ण आसेचनानि। ऊष्मण्यापिधाना चरूणामङ्काः सूनाः परि भूषन्त्यश्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। निऽईक्षणम्। मांस्पचन्याः। उखायाः। या। पात्राणि। यूष्णः। आऽसेचनानि। ऊष्मण्या। अपिऽधाना। चरूणाम्। अङ्काः। सूनाः। परि। भूषन्ति। अश्वम् ॥ १.१६२.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 13
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    यद्ये मांस्पचन्या उखाया नीक्षणं कुर्वन्ति तत्र वैमनस्यं कृत्वा या यूष्ण आसेचनानि पात्राण्यूष्मण्याऽपिधाना चरूणामङ्काः सन्ति तान् सुष्ठु जानन्ति। अश्वं परिभूषन्ति च ते सूना जायन्ते ॥ १३ ॥

    पदार्थः

    (यत्) ये (नीक्षणम्) निरन्तरं च तदीक्षणं च नीक्षणाम् (मांस्पचन्याः) मांसानि पचन्ति यस्यां सा। अत्र मांसस्य पचयुड्घञोरित्यन्तलोपः। (उखायाः) पाकसाधिकायाः (या) यानि (पात्राणि) (यूष्णः) रसस्य (आसेचनानि) समन्तात् सेचनाऽधिकरणानि (ऊष्मण्या) ऊष्मसु साधूनि (अपिधाना) अपिधानानि मुखाच्छादनानि (चरूणाम्) अन्नादिपचनाधाराणाम् (अङ्काः) लक्षणानि (सूनाः) प्रेरिताः (परि) (भूषन्ति) (अश्वम्) तुरङ्गम् ॥ १३ ॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या मांसादिपचनदोषरहितां पाकस्थालीं धर्त्तुं जलादिमासेचितुमग्निं प्रज्वालयितुं पात्रैराच्छादितुं जानन्ति ते पाकविद्यायां कुशला भवन्ति। येऽश्वान् सुशिक्ष्य परिभूष्य चालयन्ति ते सुखेनाध्वानं यान्ति ॥ १३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यत्) जो (मांस्पचन्याः) मांसाहारी जिसमें मांस पकाते हैं उस (उखायाः) पाक सिद्ध करनेवाली बटलोई का (नीक्षणम्) निरन्तर देखना करते उसमें वैमनस्य कर (या) जो (यूष्णः) रस के (आसेचनानि) अच्छे प्रकार सेचन के आधार वा (पात्राणि) पात्र वा (ऊष्मण्या) गरमपन उत्तम पदार्थ (अपिधाना) बटलोइयों के मुख ढापने की ढकनियाँ (चरूणाम्) अन्न आदि के पकाने के आधार बटलोई कड़ाही आदि वर्त्तनों के (अङ्काः) लक्षण हैं उनको अच्छे जानते और (अश्वम्) घोड़े को (परिभूषन्ति) सुशोभित करते हैं वे (सूनाः) प्रत्येक काम में प्रेरित होते हैं ॥ १३ ॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य मांसादि के पकाने के दोष से रहित बटलोई के धरने, जल आदि उस में छोड़ने, अग्नि को जलाने और उसको ढकनों से ढाँपने को जानते हैं, वे पाकविद्या में कुशल होते हैं। जो घोड़ा को अच्छा सिखा उनको सुशोभित कर चलाते हैं, वे सुख से मार्ग को जाते हैं ॥ १३ ॥

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    विषय

    शरीर-रचना का सौन्दर्य

    पदार्थ

    १. इस शरीर में वैश्वानर अग्नि के द्वारा 'रस, रुधिर, मांस, अस्थि, मज्जा, मेदस्, वीर्य' इन धातुओं का परिपाक होता है। मांस को सब धातुओं का प्रतिनिधि मानकर इस शरीर को यहाँ 'मांस्पचनी उखा' (देगची) के रूप में कहा गया है। (मांस्पचन्याः उखायाः) = मांसादि धातुओं के परिपाकवाली उखा का (यत्) = जो (नीक्षणम्) = निश्चय से ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ईक्षण का प्रकार है- दो आँखों से एक ही वस्तु का दिखना, दो कानों से एक ही शब्द का सुन पड़ना आदि सब बातें इन ज्ञानेन्द्रियों से होनेवाले ईक्षण में अद्भुत ही हैं। इसी प्रकार इस शरीर में जो (यूष्णः) = रस के (आसेचनानि) = सेचन करनेवाली (या) = जो (पात्राणि) = [पा रक्षणे] रक्षण ग्रन्थियाँ हैं, इनसे विविध रस निकलकर शरीर के स्वास्थ्य को सिद्ध करते हैं। ये सब अश्वम्- कर्मों में व्याप्त रहनेवाले जीव को परिभूषन्ति अलंकृत करते हैं और २. जो यह अपिधाना= सारे शरीर को ढकनेवाली ऊष्मण्या शरीर की गर्मी को सुरक्षित रखनेवाली त्वचा है, यह भी क्रियाशील पुरुष को सुभूषित करती है। इसी प्रकार चरूणाम् ज्ञानेन्द्रियों से जिनका ग्रहण व चरण भक्षण होता है, उनके (अङ्काः) = अन्दर पड़नेवाले संस्कार [Impressions] और = क्रियाशील फिर उन संस्कारों के अनुसार होनेवाली (सूना:) = प्रेरणाएँ [Inspirations] इस (अश्वम्) = पुरुष को (परिभूषन्ति) = अलंकृत करती हैं। 'किस प्रकार ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञानवाहिनी नाड़ियों के द्वारा अन्दर विषयज्ञान का अंकन होकर फिर क्रियावाहिनी नाड़ियों के द्वारा कर्मेन्द्रियों को कर्म की प्रेरणा मिलती है ' यह सब अद्भुत ही प्रतीत होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - यह शरीर एक 'मांस्पचनी उखा' है। इसमें ज्ञानेन्द्रियों का व्यापार, ग्रन्थियों से रसों का सञ्चार, त्वचा से गरमी का रक्षण, ज्ञानवाहिनी व क्रियावाहिनी नाड़ियों का सम्मिलित व्यापार, ये सब बातें अद्भुत ही हैं।

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    विषय

    भूमि को स्थल, जल आदि का निरीक्षण, पक्षान्तर में आत्मा और शरीर का वैज्ञानिक और दार्शनिक रहस्य । मांस्-पचनी उखा और पात्रों का सत्य रहस्य।

    भावार्थ

    ( यत् ) जो ( मांस्पचन्याः) मन को अच्छे लगने वाले नाना अन्नों और फलों का परिपाक करने वाली, (उखायाः) खनी जाकर उत्तम फल देने वाली भूमि का ( नि-ईक्षणं ) निरन्तर देख भाल करना, या उसके सुन्दर दर्शनीय दृश्य और ( या ) जो (पात्राणि ) सब प्राणियों की पालना करने वाले ( यूष्णः आसेचनानि ) रस या जल के सेचन करने के साधन कूप, तडाग आदि स्थान, वर्त्तन आदि और जो (चरूणां) विचरने वाले पथिकों के निमित्त ( ऊष्मण्या ) ग्रीष्म काल में सुखकारी ( अपिधानानि ) आच्छादित स्थान, विश्राम गृह हैं और जो ( अंका ) स्थान स्थान पर अङ्कित मार्ग और ( सूना: ) स्नान करने के तीर्थ आदि स्थान हैं वे सभी सुखजनक पदार्थ ( अश्वं परिभूषन्ति ) अश्व अर्थात् विशाल राष्ट्र को सुभूषित करते हैं । ( २ ) अध्यात्म में—देहगत मांसादि को परिपक्व करने वाली उखा यह देह है मांस अथवा, अर्थात् या मनन योग्य, मन की गति के पात्र, उत्तम विचारों को परिपक्व करने वाली उखा यह मस्तिष्क है। इस जड़ देह वा मस्तिष्क का इन्द्रियों द्वारा देखना, और रोम रोम या देह के प्रत्येक अणु (Cell) का जीवनमय रस से सींचा जाना, त्वचाओं के जीवन की उष्मा को ढक कर रखने के आवरण, ( अङ्काः ) बाह्य पदार्थों के भीतर ज्ञान ग्रहण करने की इन्द्रियां और ( सूनाः ) भीतरी विचारों को बाहर प्रेरित करना ये सभी आत्मा के सर्वत्र लक्षण हुआ करते हैं । ( यजु० २५ । ३६ )

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः देवताः ॥ छन्दः- १, २, ९, १०, १७, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३ निचृज्जगती। ४,७,८,१८ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ११, २१ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ स्वराट् त्रिष्टुप् । १३, १४ भुरित् पङ्क्तिः । १५, १९, २२ स्वराट् पङ्क्तिः। १६ विराट् पङ्क्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे मांस इत्यादी न शिजविलेल्या पातेल्यात पाणी घालून अग्नी प्रज्वलित करून त्यावर झाकण ठेवतात ती पाकविद्येत कुशल असतात व जी घोड्याला प्रशिक्षित करून त्यांना सुशोभित करून चालवितात ते सुखाच्या मार्गाने चालतात. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Watchful stirring of the nation’s cauldron of prosperity on fire and careful preservation and enrichment of the earth’s fertility which gives fruits and other foods, all containers and reservoirs of juice and waters for irrigation, methods of heat and steam control, formations of clouds, known, controlled and created, and beauty spots and tourist resorts, these are marks of a nation’s march on top of beauty and culture.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The persons expert in cocking of vegetarian menu and horse training are given tips here.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who reject a caldron in which meat is ever boiled and have repulsion towards it, they rather appreciate the vessels for sprinkling the juice, and the vessels to keep off excessive heat. They also look after the covers of the vessels and various other implements of cooking and ultimately become impellers of noble deeds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons become expert and right type cooks, who know how to have caldrons and vessels free from the evil of cooking meat and other tabooed material. The vessels for sprinkling juice and water, means for kindling fire and coverings for the vessels should be of standard specifications. Likewise, those who train and adorn horses, they travel comfortably.

    Foot Notes

    (यूष्णः ) रमस्य = Of the juice (चरूणाम् ) अन्नादिपचनाधाराणाम् = Vessels for cooking rice and other articles of food. (सूना:) प्रेरिता: = Impelled or urged.

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