ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 6
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यू॒प॒व्र॒स्का उ॒त ये यू॑पवा॒हाश्च॒षालं॒ ये अ॑श्वयू॒पाय॒ तक्ष॑ति। ये चार्व॑ते॒ पच॑नं स॒म्भर॑न्त्यु॒तो तेषा॑म॒भिगू॑र्तिर्न इन्वतु ॥
स्वर सहित पद पाठयू॒प॒ऽव्र॒स्काः । उ॒त । ये । यू॒प॒ऽवा॒हाः । च॒षाल॑म् । ये । अ॒श्व॒ऽयू॒पाय॑ । तक्ष॑ति । ये । च॒ । अर्व॑ते । पच॑नम् । स॒म्ऽभर॑न्ति । उ॒तो इति॑ । तेषा॑म् । अ॒भिऽगू॑र्तिः । नः॒ । इ॒न्व॒तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यूपव्रस्का उत ये यूपवाहाश्चषालं ये अश्वयूपाय तक्षति। ये चार्वते पचनं सम्भरन्त्युतो तेषामभिगूर्तिर्न इन्वतु ॥
स्वर रहित पद पाठयूपऽव्रस्काः। उत। ये। यूपऽवाहाः। चषालम्। ये। अश्वऽयूपाय। तक्षति। ये। च। अर्वते। पचनम्। सम्ऽभरन्ति। उतो इति। तेषाम्। अभिऽगूर्तिः। नः। इन्वतु ॥ १.१६२.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
ये यूपव्रस्का उत ये यूपवाहा अश्वयूपाय चषालं तक्षति। ये चार्वते पचनं संभरन्ति यस्तेषामुतो अभिगूर्त्तिरस्ति स नोऽस्मानिन्वतु ॥ ६ ॥
पदार्थः
(यूपव्रस्काः) यूपाय स्तम्भाय ये वृश्चन्ति ते (उत) अपि (ये) (यूपवाहाः) ये यूपं वहन्ति प्रापयन्ति (चषालम्) वृक्षविशेषम् (ये) (अश्वयूपाय) अश्वानां बन्धनाय (तक्षति) छिन्दति। अत्र वचनव्यत्ययेनैकवचनम्। (ये) (च) (अर्वते) अश्वाय (पचनम्) (संभरन्ति) (उतो) अपि (तेषाम्) (अभिगूर्त्तिः) अभितः सर्वतो गूर्त्तिरुद्यमो यस्य सः (नः) अस्मान् (इन्वतु) प्राप्नोतु ॥ ६ ॥
भावार्थः
ये मनुष्या अश्वादिबन्धनाय काष्ठानां यूपान् कुर्वन्ति ये चाश्वानां पालनाय पदार्थान् स्वीकुर्वन्ति ते उद्यमिनो भूत्वा सुखानि प्राप्नुवन्ति ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(ये) जो (यूपव्रस्का) खभ्भे के लिये काष्ठ काटनेवाले (उत) और भी (ये) जो (यूपवाहाः) खभ्भे को प्राप्त करानेवाले जन (अश्वयूपाय) घोड़ों के बाँधने के लिये (चषालम्) किसी विशेष वृक्ष को (तक्षति) काटते हैं (वे, च) और जो (अर्वते) घोड़े के लिये (पचनम्) पकाने को (संभरन्ति) धारण करते और पुष्टि करते हैं, जो (तेषाम्) उनके बीच (उतो) निश्चय से (अभिगूर्त्तिः) सब ओर से उद्यमी है वह (नः) हम लोगों को (इन्वतु) प्राप्त होवे ॥ ६ ॥
भावार्थ
जो मनुष्य घोड़े आदि पशुओं के बाँधने के लिये काठ के खभ्भे वा खूँटे करते बनाते हैं वा जो घोड़ों के राखन को पदार्थ दाना, घास, चारा, घुड़सार आदि स्वीकार करते बनाते हैं, वे उद्यमी होकर सुखों को प्राप्त होते हैं ॥ ६ ॥
विषय
स्वरः शरीर यज्ञवेदि
पदार्थ
१. गतमन्त्र में जीवन को यज्ञ बनाने का उल्लेख है। उस 'जीवन-यज्ञ' की यज्ञशाला यह शरीर है। इस शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग उस यज्ञशाला के यूप हैं। इन यूपों - यज्ञस्तम्भों का ठीक होना अत्यन्त आवश्यक है, अतः मन्त्र में कहते हैं कि (यूपव्रस्का:) = [यूपान् व्रश्चन्ति] जो व्यक्ति इन अङ्गरूप यज्ञस्तम्भों का व्रश्चन द्वारा ठीक निर्माण करते हैं, अङ्गों पर चढ़ी हुई चर्बीरूप मैल की तहों को छील-छालके इन स्तम्भों को ठीक बनाते हैं, (उत) = और २. (ये) = जो (यूपवाहा:) = इन यज्ञस्तम्भों का वहन करनेवाले हैं, अर्थात् इन अङ्गरूप स्तम्भों को यज्ञादि कार्यों में प्रयुक्त करनेवाले हैं, ये जो अश्वयूपाय कर्मों में व्याप्त रहनेवाले जीव के इन अङ्गरूप यज्ञस्तम्भों के लिए (चषालम्) = [यूपाग्रभागे स्थाप्यं काष्ठम्] अङ्गरूप स्तम्भों के अग्रभाग में स्थित मस्तिष्करूप चषाल को (तक्षति) = [तक्ष् = तनूकरणे] खूब सूक्ष्म व तीव्र बनाते हैं । ३. (ये च) = और जो (अर्वते) = कामक्रोधादि की हिंसाकरनेवाले के लिए (पचनं सम्भरन्ति) = बुद्धि के परिपाक को सम्यक् प्राप्त करते हैं, अर्थात् बुद्धि को परिपक्व करके कामादि दोषों से ऊपर उठने का प्रयत्न करते हैं, (तेषाम्) = उन सबका (अभिगूर्तिः) = उद्योग (नः इन्वतु) = हमें व्याप्त करनेवाला हो, अर्थात् हम भी इनकी भाँति [क] अपने अङ्गों को चर्बी आदि के तक्षन् से सुडौल बनाएँ, [ख] इन अङ्गों को क्रियाशील बनाए रक्खें, [ग] मस्तिष्क को सुन्दर बनाएँ, [घ] बुद्धि का उत्तम परिपाक करें ।
भावार्थ
भावार्थ- हम इस शरीर को जीवन-यज्ञ की यज्ञशाला बनाने के उद्देश्य से सब अङ्गों को अति सुन्दर बनाएँ और बुद्धि का उत्तम परिपाक करें ।
विषय
राष्ट्रपति के सहयोगियों के कर्त्तव्य । (
भावार्थ
जो मनुष्य ( यूपव्रस्काः ) शत्रुओं के नाशकारी, उनको मोहित करने और प्रजा के बीच स्तम्भ के समान सर्वाश्रय, सूर्य के समान तेजस्वी राजा के पद को परिश्रम से बनाते हैं ( उत ) और ( ये ) जो ( यूपवाहाः ) जो उसको अपने कन्धों पर, रथ को अश्वों के समान धारण करते हैं और ( ये ) जो ( चषालं ) स्तम्भ के मुख्य भाग के समान राजा के प्रधान पद को (तक्षति) वृक्ष को वर्धकि के समान शस्त्रास्त्र संचालनों द्वारा वाधक कारणों को नाश करके बनाते हैं ( उतो ) और (अर्वते ) ज्ञानवान्, वेगवान्, शत्रु पर प्रयाण करने वाले अश्वसैन्य और सेनानायक के लिये ( पचनं ) परीपक्व अन्न को ( संभरन्ति ) सब प्रकार से संग्रह करके उन तक पहुंचाते हैं ( तेषां ) उन सभी सहोद्योगी पुरुषों का ( अभिगूर्तिः ) उद्यम ( नः ) हमें ( इन्वतु ) प्राप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः देवताः ॥ छन्दः- १, २, ९, १०, १७, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३ निचृज्जगती। ४,७,८,१८ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ११, २१ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ स्वराट् त्रिष्टुप् । १३, १४ भुरित् पङ्क्तिः । १५, १९, २२ स्वराट् पङ्क्तिः। १६ विराट् पङ्क्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे घोडे इत्यादी पशूंना बांधण्यासाठी लाकडाचे खांब, खुंटे तयार करतात, जी घोड्याचे रक्षण, पालन करण्यासाठी निरनिराळे खाद्यपदार्थ दाणे, गवत, चारा इत्यादी स्वीकारतात ती उद्योगी बनून सुख प्राप्त करतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Those who cut the tree for the yajna flag post, those who transport the post to the yajnic arena, he who shapes the flag bearing part of the post, those who bear and bring in the holy food for the consecrated horse, symbol of the nation and its order of governance, and among all these the master of ceremonies and the coordination and cooperation of all these may, we wish and pray, oblige us with success.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The importance of animal power emphasized.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The persons who cut the Yupa a sacrificial post and those who carry the post, or those who hew the tree cutter Chashala for wood work for the horses or prepare food for the horse let their erections fulfil our expectations.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who make the posts of the wood for pegging of the horses and those who collect various articles for feedings the horses, become happy, being industrious
Foot Notes
(चषालं) वृक्षविशेषम् = A particular kind of tree.
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