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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 162 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 2
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यन्नि॒र्णिजा॒ रेक्ण॑सा॒ प्रावृ॑तस्य रा॒तिं गृ॑भी॒तां मु॑ख॒तो नय॑न्ति। सुप्रा॑ङ॒जो मेम्य॑द्वि॒श्वरू॑प इन्द्रापू॒ष्णोः प्रि॒यमप्ये॑ति॒ पाथ॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । निः॒ऽनिजा॑ । रेक्ण॑सा । प्रावृ॑तस्य । रा॒तिम् । गृ॒भी॒ताम् । मु॒ख॒तः । नय॑न्ति । सुऽप्रा॑ङ् । अ॒जः । मेम्य॑त् । वि॒श्वऽरू॑पः । इ॒न्द्रा॒पू॒ष्णोः । प्रि॒यम् । अपि॑ । ए॒ति॒ । पाथः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यन्निर्णिजा रेक्णसा प्रावृतस्य रातिं गृभीतां मुखतो नयन्ति। सुप्राङजो मेम्यद्विश्वरूप इन्द्रापूष्णोः प्रियमप्येति पाथ: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। निःऽनिजा। रेक्णसा। प्रावृतस्य। रातिम्। गृभीताम्। मुखतः। नयन्ति। सुऽप्राङ्। अजः। मेम्यत्। विश्वऽरूपः। इन्द्रापूष्णोः। प्रियम्। अपि। एति। पाथः ॥ १.१६२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    यन्निर्णिजा रेक्णसा प्रावृतस्य गृभीतां रातिं मुखतो नयन्ति। यो मेम्यद्विश्वरूपः सुप्राङजो विद्वानिन्द्रापूष्णोः प्रियं पाथोऽप्येति ते सर्वे सुखमाप्नुवन्ति ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (यत्) ये (निर्णिजा) नित्यं शुद्धेन। निर्णिगिति रूपना०। निघं० ३। ७। (रेक्णसा) धनेन (प्रावृतस्य) आच्छादितस्य (रातिम्) दानम् (गृभीताम्) (मुखतः) (नयन्ति) (सुप्राङ्) यः सुष्ठु पृच्छति सः (अजः) न जायते यः सः (मेम्यत्) भृशं हिंसन् (विश्वरूपः) विश्वानि सर्वाणि रूपाणि यस्य सः (इन्द्रापूष्णोः) ऐश्वर्यवत्पुष्टिमतोः (प्रियम्) कमनीयम् (अपि) (एति) प्राप्नोति (पाथः) उदकम् ॥ २ ॥

    भावार्थः

    ये न्यायोपार्जितेन धनेन मुख्यानि धर्म्याणि कार्य्याणि कुर्वन्ति ते परोपकारिणो भवन्ति ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यत्) जो (निर्णिजा) नित्य शुद्ध (रेक्णसा) धन से (प्रावृतस्य) ढपे हुए (गृभीताम्) ग्रहण किये (रातिम्) देने को (मुखतः) मुख से (नयन्ति) प्राप्त करते अर्थात् मुख से कहते हैं और जो (मेम्यत्) अज्ञानियों में निरन्तर मारता-पीटता हुआ (विश्वरूपः) जिसके सब रूप विद्यमान (सुप्राङ्) सुन्दरता से पूछता और (अजः) नहीं उत्पन्न होता अर्थात् एक बार पूर्ण भाव से विद्या पढ़ बार-बार विद्वत्ता से नहीं उत्पन्न होता वह विद्वान् जन (इन्द्रापूष्णोः) ऐश्वर्यवान् और पुष्टिमान् प्राणियों के (प्रियम्) मनोहर (पाथः) जल को (अप्येति) निश्चय से प्राप्त होता है, वे सब सुख को प्राप्त होते हैं ॥ २ ॥

    भावार्थ

    जो न्याय से संचित किये हुए धन से मुख्य धर्म्म सम्बन्धी काम करते हैं, वे परोपकारी होते हैं ॥ २ ॥

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    विषय

    शुद्ध धन, शुद्ध अन्न

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब (निर्णिजा) = शुद्ध, अर्थात् शुद्ध उपायों से कमाये हुए (रेक्णसा) = धन से (प्रावृतस्य) = आच्छादित पुरुष के (गृभीतां रातिम्) = ग्रहण किये हुए दान को (मुखतः) = मुख्यरूप से अथवा प्रारम्भ में ही ले जाते हैं, अर्थात् [क] (आध्र:) = आधार देने योग्य विकलाङ्ग, दरिद्र पुरुष, [ख] (मन्यमानः तुरः) = आदरणीय, अज्ञान-अन्धकार के नाशक अध्यापकादि और [ग] राजा= राष्ट्र के व्यवस्थापक जिसके धन के विषय में यह कहते हैं कि 'हमने भी इस धन में से भाग प्राप्त किया है।' २. इस दान देकर यज्ञशेष का सेवन करनेवाले पुरुष के लिए वे प्रभु (सुप्राङ्) = [सु प्र अञ्च्] उत्तमता से, खूब आगे ले-चलनेवाले होते हैं, (अजः) = [अज गतिक्षेपणयोः] गतिशीलता के द्वारा इसकी सब बुराइयों को दूर फेंकनेवाले होते हैं, (मेम्यत्) = [भृशं हिंसन् – द०] कामक्रोधादि सब वासनाओं का संहार करनेवाले, विश्वरूपः = सब आवश्यक ज्ञानों का निरूपण करनेवाले होते हैं । ३. मेम्यत् शब्द का अर्थ आचार्य ने (प्राप्नुवन्) = भी किया है। इस शुद्ध उपायों से धन कमाने व दान देनेवाले पुरुष को प्रभु प्राप्त होते हैं । यह प्रभु का प्रिय (इन्द्रापूष्णोः) = इन्द्र और पूषा के (प्रियं पाथः) = प्रिय अन्न को भी (अपि एति) = प्राप्त करता है, अर्थात् यह उस अन्न का सेवन करनेवाला बनता है जो इसे इन्द्र= इन्द्रियों का अधिष्ठाता - जितेन्द्रिय बनाता है और पूषा उत्तमता से अपनी शक्तियों का पोषण करनेवाला बनाता । इस अन्न का सेवन करके यह जितेन्द्रिय व पुष्टाङ्ग बनता है। इस मन्त्र का आरम्भ 'निर्णिजा रेक्णसा' अर्थात् 'शुद्ध धन' से होता है और समाप्ति पर 'इन्द्रापूष्णोः पाथः' शुद्ध अन्न का सेवन करनेवाला ही शुद्ध धन का अर्जन करता है। अन्नदोष से वृत्तिदोष होकर न्याय-अन्याय सभी साधनों से धन कमाने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम सुपथ से धन कमाएँ । उचित दान देकर अवशिष्ट धन से अर्जित सात्त्विक अन्नों का ही सेवन करें।

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    विषय

    अभिषिक्त राजा और प्रजा के परस्पर कर्तव्य, विश्वरूप अज का रहस्य ।

    भावार्थ

    ( यत् ) जब ( निर्णिजा ) उत्तम शुद्ध रूप या अभिषेक तथा (रेक्णसा) धनैश्वर्य से (प्रावृतस्य) सुशोभित पुरुष की ( रातिं ) दी हुई और ( मुखतः गृहीताम् ) मुख्य रूप से प्राप्त वृत्ति को अधीनस्थ पुरुष (नयन्ति) प्राप्त करते हैं तब ( सुप्राङ्) उत्तम प्रश्नशील विद्यार्थी के समान उत्तम रूप शोभा से युक्त, कान्तिमान् (अजः) शत्रुओं को उखाड़ने में समर्थ, (विश्वरूपः) सब पदार्थों और राष्ट्र में बसे प्राणियों और अधिकारों का स्वामी, नायक, ( मेम्यत् ) सब बाधक शत्रुओं को नाश करता हुआ ( इन्द्रापूष्णोः ) इन्द्र, सेनापति और पूषा, पोषक स्वामी दोनों के पदों अर्थात्, विद्युत् सूर्य या मेघ और पृथ्वी इन दोनों में विद्यमान (प्रियं) सब को प्रिय लगने वाले ( पाथः ) जल और अन्न के समान सब को पालन करने वाले बल और ऐश्वर्य को (अपि-एति ) प्राप्त होता है । (२) अध्यात्म में—जब विद्वान् जन उस परमेश्वर के शुद्ध और अतिरिक्त, सर्वातिशायी केवल रूप से युक्त प्रभु की दी, स्वतः ग्रहण की ज्ञान राशि और दान राशि को प्राप्त करते हैं तब यह विश्वरूप जीव आत्मा (मेम्यत्) सब बाधाओं को नाश करता हुआ परमेश्वर के ऐश्वर्यवान् और सर्व पोषक दोनों रूपों के ( पाथः ) परम पावन स्वरूप को साक्षात् कर उसमें मग्न हो जाता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः देवताः ॥ छन्दः- १, २, ९, १०, १७, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३ निचृज्जगती। ४,७,८,१८ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ११, २१ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ स्वराट् त्रिष्टुप् । १३, १४ भुरित् पङ्क्तिः । १५, १९, २२ स्वराट् पङ्क्तिः। १६ विराट् पङ्क्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे न्यायाने संचित केलेल्या धनाने मुख्य धर्मासंबंधी काम करतात ते परोपकारी असतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    We are those who advance to the front the man of honour and generosity, leader blest with wealth and power earned by pure and sinless means, possessing universal virtues, capable of versatile roles, going forward leading and roaring, who achieves the cherished gifts of the dignity and prosperity of Indra and Pushan, lord of power and glory and the lord of light and plenty.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The honestly earned wealth is signified.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    They who advocate to earn wealth by righteous means should be appropriated on position. The wise and well versed in questioning other elegantly, in the methodical fashion and are capable to correct the unwise, these and other such people should be entrusted the seat of power to govern. The above interpretation is adapted from Pt. Guru Datta's, translation as given in the Terminology of the Vedas and European Scholars. (The Wisdom of the Rishis, P. 62).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those are the benefactors of humanity who accomplish all important righteous acts with their honest earnings.

    Foot Notes

    (निर्णिजा ) नित्यं शुद्धेन - Always pure. ( रेक्णसा) धनेन = With wealth. (सुप्राङ्) यः सुष्ठु पृच्छति सः = He who puts intelligent questions.

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