ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 7
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उप॒ प्रागा॑त्सु॒मन्मे॑ऽधायि॒ मन्म॑ दे॒वाना॒माशा॒ उप॑ वी॒तपृ॑ष्ठः। अन्वे॑नं॒ विप्रा॒ ऋष॑यो मदन्ति दे॒वानां॑ पु॒ष्टे च॑कृमा सु॒बन्धु॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । प्र॑ । अ॒गा॒त् । सु॒ऽमत् । मे॒ । अ॒धा॒यि॒ । मन्म॑ । दे॒वाना॑म् । आशाः॑ । उप॑ । वी॒तऽपृ॑ष्ठः । अनु॑ । ए॒न॒म् । विप्राः॑ । ऋष॑यः । म॒द॒न्ति॒ । दे॒वाना॑म् । पु॒ष्टे । च॒कृ॒म॒ । सु॒ऽबन्धु॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उप प्रागात्सुमन्मेऽधायि मन्म देवानामाशा उप वीतपृष्ठः। अन्वेनं विप्रा ऋषयो मदन्ति देवानां पुष्टे चकृमा सुबन्धुम् ॥
स्वर रहित पद पाठउप। प्र। अगात्। सुऽमत्। मे। अधायि। मन्म। देवानाम्। आशाः। उप। वीतऽपृष्ठः। अनु। एनम्। विप्राः। ऋषयः। मदन्ति। देवानाम्। पुष्टे। चकृम। सुऽबन्धुम् ॥ १.१६२.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
येन देवानां मे मम च मन्माशाश्चोपाधायि यः सुमद्वीतपृष्ठो विद्वानेतदेताश्चोपप्रागात्। ये ऋषयो विप्राः सुबन्धुमनुमदन्त्येनं तेषां देवानां पुष्टे वयं चकृम ॥ ७ ॥
पदार्थः
(उप) समीपे (प्र) (अगात्) गच्छतु प्राप्नोतु (सुमत्) यः सुष्ठु मन्यते जानाति (मे) मम (अधायि) ध्रियते (मन्म) विज्ञानम् (देवानाम्) विदुषाम् (आशाः) प्राप्तीच्छाः (उप) (वीतपृष्ठः) वीता व्याप्ताः पृष्ठा विद्यासिद्धान्ता येन सः (अनु) (एनम्) (विप्राः) मेधाविनः (ऋषयः) वेदार्थवेत्तारः (मदन्ति) आनन्दयन्ति (देवानाम्) आप्तानाम् (पुष्टे) पुष्टियुक्ते व्यवहारे (चकृम) कुर्याम। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (सुबन्धुम्) शोभना बन्धवो यस्य तम् ॥ ७ ॥
भावार्थः
ये विद्वत्सिद्धान्तितं विज्ञानं धृत्वा तदनुकूला भूत्वा विद्वांसो जायन्ते ते शरीरात्मपुष्टियुक्ता भवन्ति ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जिसने (देवानाम्) विद्वानों का और (मे) मेरे (मन्म) विज्ञान और (आशाः) प्राप्ति की इच्छाओं को (उप, अधायि) समीप होकर धारण किया वा जो (सुमत्) सुन्दर मानता (वीतपृष्ठः) सिद्धान्तों में व्याप्त हुआ विद्वान् जन उक्त ज्ञान और उक्त आशाओं को (उप, प्र अगात्) समीप होकर अच्छे प्रकार प्राप्त हो वा जो (ऋषयः) वेदार्थज्ञानवाले (विप्राः) धीरबुद्धि जन (सुबन्धुम्) जिसके सुन्दर भाई हैं उसको (अनु, मदन्ति) अनुमोदित करते हैं, (एनम्) इस सुबन्धु सज्जन को उक्त (देवानाम्) व्यास साक्षात् कृतशास्त्रसिद्धान्त विद्वान् जनों को (पुष्टे) पुष्टियुक्त व्यवहार में हम लोग (चकृम) करें अर्थात् नियत करें ॥ ७ ॥
भावार्थ
जो विद्वानों के सिद्धान्त किये हुए विज्ञान का धारण कर तदनुकूल हो विद्वान् होते हैं, वे शरीर और आत्मा की पुष्टि से युक्त होते हैं ॥ ७ ॥
विषय
प्रभु के बन्धुत्व में अन्तः प्रकाश
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जब हम उद्योगशील होते हैं तो (उपप्रागात्) = प्रभु हमें समीपता से प्राप्त होते हैं, हम प्रभु के समीप पहुँचनेवाले होते हैं। प्रभु की समीपता से (मे) = मुझमें (सुमत्) = स्वयं (मन्म) = ज्ञान (अधायि) = स्थापित होता है, अर्थात् 'ऋतम्भरा प्रज्ञा' के प्राप्त होने से मुझे अन्तः प्रकाश प्राप्त हो जाता है। देवानाम् (आशा:) = उस समय मुझमें देवों की आशाएँ स्थापित होती हैं। मैं अभय, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप व आर्जव' वाला बनता हूँ । उप वीतपृष्ठः- प्रभु की उपासना से मैं कान्त पृष्ठवाला होता हूँ। मेरी पीठ पर पाप की गठड़ी नहीं लदी रहती, उसे परे फेंककर मैं निर्मल पृष्ठवाला होता हूँ। २. वस्तुतः (विप्राः) = अपना पूरण करनेवाले (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा लोग (एनम् अनुमदन्ति) = इस प्रभु की उपासना में हर्ष का अनुभव करते हैं। हम भी (देवानां पुष्टे) = दिव्यगुणों का पोषण होने पर (सुबन्धुं चक्रम) = उस प्रभु को अपना उत्तम बन्धु बनाते हैं । दिव्यगुणों के पोषण के द्वारा हम देव बनते हैं और महादेव को प्राप्त करने की योग्यतावाले होते जाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की उपासना से अन्तः प्रकाश होता है, देवत्व की वृद्धि होती है, पाप क्षीण, अर्थात् कृष- काय (कमज़ोर), नष्ट नहीं हो जाते हैं और हम भी प्रभु को अपना बन्धु बना पाते हैं।
विषय
अश्ववत् राष्ट्रपति, ब्रह्मचारी, और गृहस्थ पति का वर्णन । आत्मा का वर्णन
भावार्थ
जो पुरुष ( मे ) मुझ प्रजाजन के लिये ( मन्म ) मनन करने योग्य ज्ञान और शत्रु और प्रजाओं को वश करने वाले बल को धारण करता है और जो ( देवानाम् आशाः ) विद्वान् और वीर तेजस्वी पुरुषों की समस्त आशाओं और कामनाओं को धारण करता है उस है ( उप वीतपृष्ठः ) हृष्ट पुष्ट पृष्ठ वाले, अश्व के समान सबका भार अपने ऊपर उठाने में समर्थ और ( उप वीतपृष्ठः ) गुरु के समीप प्राप्त यज्ञोपवीत से युक्त पीठ वाला, द्विज, आचार्य से शिक्षित और (उप वीतपृष्ठः) उत्तम वस्त्रादि से यज्ञोपवीत के समान द्विपट्टा धारण करने हारा, सदा सन्नद्ध होकर ( सुमत् ) उत्तम ज्ञानवान् उत्तम रीति से सबको आनन्दित करने हारा होकर या स्वयं ( उप प्र अगात् ) हमें सदा प्राप्त हो, ( एनं ) इसको देख कर ( विप्राः ) विविध विद्याओं के वेत्ता विद्वान् जन और ( ऋषयः ) मन्त्रार्थ द्रष्टा और राजर्षि जन भी ( अनु मदन्ति ) सदा प्रसन्न होते हैं। उसको ही हम लोग ( देवानां पुष्टे ) विद्वानों और आप्त वीर पुरुषों के पोषण कार्य में ( सुबन्धुम् ) उत्तम बन्धु निज सम्बन्धी और प्रबन्धकर्त्ता रूप से ( चकृम ) बनावें । अर्थात् योग्य शिक्षित, समावृत्त स्नातक को हम कन्या आदि दे अपना बन्धु बनावें । और उत्तम हृष्ट पुष्ट शिक्षित संपन्न पुरुष को प्रबन्धक बनावें । अध्यात्म में—आत्मा आवरणकारी तामस आवरण या देह बन्धन को त्याग कर मुक्त हो, उसको ही हम उत्तम बन्धु बनावें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः देवताः ॥ छन्दः- १, २, ९, १०, १७, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३ निचृज्जगती। ४,७,८,१८ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ११, २१ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ स्वराट् त्रिष्टुप् । १३, १४ भुरित् पङ्क्तिः । १५, १९, २२ स्वराट् पङ्क्तिः। १६ विराट् पङ्क्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे विद्वानांच्या सिद्धान्तानुसार विज्ञान धारण करून त्याप्रमाणे बनतात व विद्वान होतात त्यांच्या शरीर व आत्म्याची पुष्टी होते. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the horse, symbol of the nation of humanity and the order of governance, come forward for us. Let it uphold the thoughts and values of the nation. Strong of back and body, let it fulfil the hopes and dreams of me and all the nobilities of humanity. In consequence, the scholars and the visionaries would enjoy themselves and celebrate its grandeur. Let us do our best in service for this noble order of brotherhood for the development and advancement of the noble people.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
We establish a learned person possessing good knowledge. He should be well versed in sciences, a good friend in the strength who promotes amity while dealing with enlightened persons. He should be capable to uphold the wisdom and expectations of the enlightened and truthful persons and of ourselves. All saints and seers, in reciprocity, make him cheerful and joyous.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The persons having acquired the basic knowledge of the principles enunciated by great scholars and acting in accordance with them become highly learned. They are blessed with the physical and spiritual powers.
Foot Notes
( सुमत् ) यः सुष्ठु मन्यते जानाति = He who knows well. ( मन्म ) विज्ञानम् = Knowledge. (वीतपृष्ठ:) वीता व्याप्ता: पृष्ठा विद्यासिद्धान्ता: येन = Well acquainted with the principles of various sciences.
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