Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 23 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 23/ मन्त्र 15
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - पूषा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    उ॒तो स मह्य॒मिन्दु॑भिः॒ षड्यु॒क्ताँ अ॑नु॒सेषि॑धत्। गोभि॒र्यवं॒ न च॑र्कृषत्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒तो इति॑ । सः । मह्य॑म् । इन्दु॑ऽभिः । षट् । यु॒क्तान् । अ॒नु॒ऽसेसि॑धत् । गोभिः॑ । यव॑म् । न । च॒र्कृ॒ष॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उतो स मह्यमिन्दुभिः षड्युक्ताँ अनुसेषिधत्। गोभिर्यवं न चर्कृषत्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उतो इति। सः। मह्यम्। इन्दुऽभिः। षट्। युक्तान्। अनुऽसेसिधत्। गोभिः। यवम्। न। चर्कृषत्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 23; मन्त्र » 15
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तस्यैव गुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः

    कृषीवलो भूमिं चर्कृषद्धान्यादिप्राप्त्यर्थं पुनः पुनर्भूमिं कर्षतो वायमीश्वरो मह्यमिन्दुभिस्सह वसन्तादीन् युक्तान् गोभिः सह यवमनुसेषिधत् पुनः पुनरनुगतं प्रापयेत् तस्मादहं तमेवेष्टं मन्ये॥१५॥

    पदार्थः

    (उतो) पक्षान्तरे (सः) जगदीश्वरः (मह्यम्) धर्मात्मने पुरुषार्थिने (इन्दुभिः) स्निग्धैः पदार्थैः सह (षट्) वसन्तादीनृतून् (युक्तान्) सुखसम्पादकान् (अनुसेषिधत्) पुनःपुनरनुकूलान् प्रापयेत्। अत्र यङलुगन्ताल्लेट् सेधतेर्गतौ। (अष्टा०८.३.११३) इत्यभ्यासस्य षत्वप्रतिषेधः। उपसर्गादिति वक्तव्यं किं प्रयोजनम्। उपसर्गाद् या प्राप्तिस्तस्याः प्रतिषेधो यथा स्याद्, अभ्यासाद्या प्राप्तिस्तस्याः प्रतिषेधो मा भूदिति। स्तम्भुसिवु० (अष्टा०वा०८.३.११६) अत्र महाभाष्यकारेणोक्तम्। सायणाचार्येणेदमज्ञानान्न बुद्धमिति (गोभिः) गोहस्त्यश्वादिभिः सह (यवम्) यवादिकमन्नम् (न) इव (चर्कृषत्) पुनः पुनर्भूमिं कर्षेत्। अत्र यङ्लुगन्ताल्लेट्॥१५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यः कृषीवलो वा किरणैर्हलादिभिर्वा पुनः पुनर्भूमिमाकृष्य कर्षित्वा समुप्य धान्यादीनि प्राप्य वसन्तादीन् षड्ऋतून् सुखसंयुक्तान् करोति, तथेश्वरोऽप्यनुसमयं सर्वेभ्यो जीवेभ्यः कर्मानुसारेण रसोत्पादनविभजनेनर्तून् सुखसंपादकान् करोति॥१५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर अगले मन्त्र में उस ईश्वर ही के गुणों का उपदेश किया है-

    पदार्थ

    जैसे खेती करनेवाला मनुष्य हर एक अन्न की सिद्धि के लिये भूमि को (चर्कृषत्) वारंवार जोतता है (न) वैसे (सः) वह ईश्वर (मह्यम्) जो मैं धर्मात्मा पुरुषार्थी हूँ, उसके लिये (इन्दुभिः) स्निग्ध मनोहर पदार्थों और वसन्त आदि (षट्) छः (ऋतून्) ऋतुओं को (युक्तान्) (गोभिः) गौ, हाथी और घोड़े आदि पशुओं के साथ सुखसंयुक्त और (यवम्) यव आदि अन्न को (अनुसेषिधत्) वारंवार हमारे अनुकूल प्राप्त करे, इससे मैं उसी को इष्टदेव मानता हूँ॥१५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य वा खेती करनेवाला किरण वा हल आदि से वारंवार भूमि को आकर्षित वा खन, बो और धान्य आदि की प्राप्ति कर सचिक्कनकर पदार्थों के सेवन के साथ वसन्त आदि छः ऋतुओं को सुखों से संयुक्त करता है, वैसे ईश्वर भी समय के अनुकूल सब जीवों को कर्मों के अनुसार रस को उत्पन्न वा ऋतुओं के विभाग से उक्त ऋतुओं को सुख देनेवाली करता है॥१५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर इस मन्त्र में उस ईश्वर ही के गुणों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    कृषीवलः भूमिं चर्कृषत् धान्यादि प्राप्त्यर्थं पुनः पुनः भूमिं कर्षतः वा अयम् ईश्वरः मह्यम् इन्दुभिः सह वसन्तादीन् युक्तान् गोभिः सह यवम् अनुसेषिधत् पुनः पुनः अनुगतं प्रापयेत् तस्मात् अहं तम् एव इष्टं मन्ये॥१५॥ 

    पदार्थ

    (कृषीवलः)=कृषिकार्य के बल से युक्त व्यक्ति, (भूमिम्)=भूमि को, (धान्यादि)=धान आदि की, (प्राप्त्यर्थम्)=प्राप्ति के लिये, (चर्कृषत्) पुनः पुनर्भूमिं कर्षेत्=वारंवार जोतता है, (वा)=अथवा, (अयम्)=यह, (ईश्वरः)=ईश्वर, (मह्यम्) धर्मात्मने पुरुषार्थिने=जो मैं धर्मात्मा पुरुषार्थी हूँ, उसके लिये, (इन्दुभिः) स्निग्धैः पदार्थैः सह= स्निग्ध पदार्थों से, (वसन्तादीन्)=और वसन्त आदि, (युक्तान्)=संयुक्त होकर, (गोभिः) गोहस्त्यश्वादिभिः सह=गाय, हाथी और घोड़े आदि के साथ, (यवम्) यवादिकमन्नम्=यव आदि अन्न को, (अनुसेषिधत्) पुनःपुनरनुकूलान् प्रापयेत्= वारंवार हमारे अनुकूल प्राप्त करे, (पुनः पुनः)=वारंवार, (अनुगतम्)=अनुकूल, (प्रापयेत्)=प्राप्त करें, (तस्मात्)=इसलिये, (अहम्)=मैं, (तम्)=उस, (एव)=ही, (इष्टम्)=इष्टदेव को, (मन्ये)=मानता हूँ॥१५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य या किसान किरणो या हल आदि से वारंवार भूमि को जोत करके अच्छी तरह से बोकर के धान्य आदि की प्राप्त करके  वसन्त आदि छः ऋतुओं को सुखों से संयुक्त करता है, वैसे ईश्वर भी समय के अनुकूल सब जीवों को कर्मों के अनुसार रस को उत्पन्न  और बांटकर के सुख प्रदान करता है॥१५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (कृषीवलः) कृषिकार्य के बल से युक्त व्यक्ति (भूमिम्) भूमि को (धान्यादि) धान आदि की (प्राप्त्यर्थम्) प्राप्ति के लिये (चर्कृषत्) वारंवार जोतता है, (वा) अथवा (अयम्) यह (ईश्वरः) ईश्वर (मह्यम्) जो मैं धर्मात्मा पुरुषार्थी हूँ, उसके लिये (इन्दुभिः) स्निग्ध पदार्थों (वसन्तादीन्) और वसन्त आदि से (युक्तान्) संयुक्त होकर (गोभिः) गाय, हाथी और घोड़े आदि के साथ (यवम्) यव आदि अन्न को (अनुसेषिधत्) वारंवार अपने अनुकूल प्राप्त करता हूँ। (तस्मात्) इसलिये (अहम्) मैं (तम्) उस (एव) ही (इष्टम्) इष्टदेव को (मन्ये) मानता हूँ॥१५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उतो) पक्षान्तरे (सः) जगदीश्वरः (मह्यम्) धर्मात्मने पुरुषार्थिने (इन्दुभिः) स्निग्धैः पदार्थैः सह (षट्) वसन्तादीनृतून् (युक्तान्) सुखसम्पादकान् (अनुसेषिधत्) पुनःपुनरनुकूलान् प्रापयेत्। अत्र यङलुगन्ताल्लेट् सेधतेर्गतौ। (अष्टा०८.३.११३) इत्यभ्यासस्य षत्वप्रतिषेधः। उपसर्गादिति वक्तव्यं किं प्रयोजनम्। उपसर्गाद् या प्राप्तिस्तस्याः प्रतिषेधो यथा स्याद्, अभ्यासाद्या प्राप्तिस्तस्याः प्रतिषेधो मा भूदिति। स्तम्भुसिवु० (अष्टा०वा०८.३.११६) अत्र महाभाष्यकारेणोक्तम्। सायणाचार्येणेदमज्ञानान्न बुद्धमिति (गोभिः) गोहस्त्यश्वादिभिः सह (यवम्) यवादिकमन्नम् (न) इव (चर्कृषत्) पुनः पुनर्भूमिं कर्षेत्। अत्र यङ्लुगन्ताल्लेट्॥१५॥
    विषयः- पुनस्तस्यैव गुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- कृषीवलो भूमिं चर्कृषद्धान्यादिप्राप्त्यर्थं पुनः पुनर्भूमिं कर्षतो वायमीश्वरो मह्यमिन्दुभिस्सह वसन्तादीन् युक्तान् गोभिः सह यवमनुसेषिधत् पुनः पुनरनुगतं प्रापयेत् तस्मादहं तमेवेष्टं मन्ये॥१५॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यः कृषीवलो वा किरणैर्हलादिभिर्वा पुनः पुनर्भूमिमाकृष्य कर्षित्वा समुप्य धान्यादीनि प्राप्य वसन्तादीन् षड्ऋतून् सुखसंयुक्तान् करोति, तथेश्वरोऽप्यनुसमयं सर्वेभ्यो जीवेभ्यः कर्मानुसारेण रसोत्पादनविभजनेनर्तून् सुखसंपादकान् करोति॥१५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    भक्त के जीवन की तीन बातें

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में पूषा व आघृणि बनकर प्रभु - प्राप्ति का संकेत हुआ था । जब मैं प्रभु को प्राप्त करूं तो (उत+उ) - और निश्चय से (सः) - वे प्रभु (मह्यम्) - मेरे लिए (इन्दुभिः) - ['सोमा वा इन्दुः' शत० २/२/३/२३] इन सोमकणों के द्वारा (षट्) - [यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह] मन से युक्त पाँच ज्ञानेन्द्रियों को जोकि (युक्तान्) - योगयुक्त व एकाग्र और स्थिर हो गई हैं , उनको (अनुसेषिधत्) - प्राप्त कराता है । प्रभु को प्राप्त करके ही मन व इन्द्रियाँ स्थिर होती हैं , उससे पूर्व तो वे भटकती ही रहती हैं । सान्त विषयों में इनके स्थिर होने का सम्भव ही नहीं । उन विषयों के आगे - पीछे को उन्होंने देखा , उन विषयों की नवीनता समाप्त हुई और ये उनसे हटकर अन्यत्र चली । प्रभु अनन्त हैं , वहाँ पहुँचकर न ये अन्त ही पाती हैं और न अन्यत्र जाने का प्रसंग आता है । यह इन्द्रियों की स्थिरता और पवित्रता सोम की रक्षा के द्वारा होती है । 

    २. [न इति अर्थे । (न) - और वे प्रभु (गोभिः) - बैलों के द्वारा (यवम्) - यवादि धान्यों की (चर्कृषत्) - कृषि मुझसे कराते हैं , अर्थात् वे प्रभु मुझे ऐसी प्रेरणा देते हैं कि मैं कृषि को अपनाता हूँ और द्यूत से दूर भागता हूँ । 'अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित् कृषस्व' - "पाशों से मत खेलो , खेती ही करो" - इस वेदोपदेश को मैं जीवन में अनुदित करता - घटाता हूँ । 

    ३. यहाँ मन्त्रार्थ के उत्तरार्द्ध से यह बात स्पष्ट है कि [क] खेती बैलों से होनी ही ठीक है , ट्रैक्टर्स से नहीं । ऊबड़ - खाबड़ भूमि को ट्रैक्टर्स से एक बार ठीक बेशक कर लिया जाए , परन्तु उनके द्वारा सदा खेती करना उपयोगी नहीं । बैलों से खेती होने पर खेत छोटे - छोटे होते हैं , क्यारियों की मुंडेरों पर लगी झाड़ियों पर चिड़ियाँ आदि बसेरा करती हैं । ये खेती के विध्वंसक कीटों को समाप्त करके कृषि की रक्षा करती हैं । ट्रैक्टर्स से जुतनेवाले खेत मीलों - मील चले जाने से इन पक्षियों के लिए सुविधाजनक आश्रय प्राप्त नहीं होता , परिणामतः विध्वंसक कीटों से खेतियाँ नष्ट कर दी जाती हैं । बैलों से खेतों के जोते जाने पर स्वाभाविक खाद भी भूमि को मिलता रहता है । ट्रैक्टर्स से जोतने पर खेतों में कृत्रिम खादों की आवश्यकता होती है । [ख] दूसरी बात यह भी संकेतित हो रही है कि खेती जो इत्यादि उपयोगी धान्यों की ही होनी ठीक है , तम्बाकू आदि की नहीं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - उपासक का जीवन तीन बातों से युक्त होता है - [क] वह सोम की रक्षा करता है , [ख] इन्द्रियों व मन को प्रभु में स्थिर करता है , [ग] यवादि की कृषि करता हुआ जीविका का उपार्जन करता है । ये कर्षणि - चर्षणि ही प्रभु को प्यारे होते हैं । 

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( उत ) और जिस प्रकार ( गोभिः यवं न ) बैलों से किसान जौ आदि अन्न की ( चर्कृषत् ) खेती करता है । और जिस प्रकार वह हल में ( युक्तान्) जुते ( षट् ) छः बैलों को एक साथ ( अनुसेधिषत् ) एक दूसरे के पीछे चलाता है उसी प्रकार ( सः ) वह राजा ( इन्दुभिः युक्तान् ) ऐश्वर्यो द्वारा अपने पदों पर नियुक्त ६ अमात्यों को ( मह्यम् ) मुझ प्रजानन के हित के लिए ( अनुसेषिधत् ) अपने अनुकूल चलावे । इसी प्रकार जीव सूर्य ( षड़ युक्तान् ) मन, चक्षु आदि ६ इन्द्रियों को ( इन्दुभिः ) स्नेहवर्धक, राग प्राप्त रसों से अपने अनुकूल चलावे । इति दशमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १- २४ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—१ वायुः । २, ३ इन्द्रवायू । ४-६ मित्रावरुणौ । ७-९ इन्द्रो मरुत्वान् । १०-१२ विश्वे देवाः । १३-१५ पूषा १६-२२ आपः । २३-२४ अग्नः । छन्दः—१-१८ गायत्री । १९ पुर उष्णिक्। २० अनुष्टुप्। २१ प्रतिष्ठा । २२-२४ अनुष्टुभः ॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा सूर्य किरणांद्वारे व शेतकरी नांगर इत्यादींद्वारे भूमीला वारंवार सुपीक करून, धान्य पेरून धान्य इत्यादीची प्राप्ती करून, खाण्यायोग्य बनवून पदार्थांचे सेवन करण्यासाठी वसंत इत्यादी सर्व ऋतूंमध्ये सुख देतो, तसे ईश्वरही वेळेनुसार कर्माप्रमाणे सर्व जीवांसाठी रस उत्पन्न करून, करवून ऋतूच्या विभागाप्रमाणे वरील ऋतूंना सुख देणारे बनवितो. ॥ १५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    And then, just as a farmer tills the land and produces food, so does He, Lord Creator, again create for me — humanity — the earth with sweets of green and the cycle of six seasons, cows and barley food.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Then, in this mantra virtues of God only have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (kṛṣīvalaḥ)=The person empowered with knowhow for agriculture, (bhūmim)=the earth, (dhānyādi)=of paddy etc. (prāptyartham)=for obtaining, (carkṛṣat)=ploughs again and again, (vā)=in other words, (ayam)=this, (īśvaraḥ)=God, (mahyam)=that industrious, I am, for that, (indubhiḥ) =with buttery substances, [aur]=and, (vasantādīn)=by spring season etc. (yuktān)=being combined, (gobhiḥ)=with cow, elephant and horses etc. (yavam)=the barley etc. grains, (anuseṣidhat)=I obtain again and again suitable to me, (tasmāt)=so, (aham)=I, (tam)=that, (eva)=only, (iṣṭam)=reverenced deity (manye=I esteem.

    English Translation (K.K.V.)

    The person empowered with knowhow for Agriculture, ploughs again and again for obtaining paddy etc. in other words, this God for that industrious me, being combined with buttery substances and by spring season etc. together with cow, elephant and horses etc. I obtains again and again suitable to me, barley etc. grains. So I esteem that reverenced deity only.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Just as the Sun or a farmer, after plowing the land regularly with rays or plow etc., after sowing grains, etc., unites the six seasons of spring etc. with happiness, similarly God also makes all living beings according to their actions and time and gives happiness by sharing.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    His (God's) attributes are taught in the 15th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As a cultivator who ploughs with steers brings corn, this God successively brings to me-a righteous industrious person, the spring and other six seasons along with Juicy substances and with cattle, horses, and other useful animals, barley and other kinds of corn. THEREFORE I regard Him alone as most acceptable and Adorable Supreme Being.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्दुभिः) स्निग्धैः पदार्थैः सह = With Juicy substances. (युक्तान) सुखसम्पादकान् = Givers of happiness.(अनुसेषिधत् ) पुनः पुनः अनुकूलान् प्रापयते = Makes them suitable again and again.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamalankara or simile used in this Mantra. As the sun with its rays and cultivator with his ploughs etc. draws and digs the ground, sows the seed and having obtained corn etc. makes the spring and other seasons full of happiness, in the same manner, God makes all seasons givers of happiness to all souls according their sap.

    Translator's Notes

    इन्दुभि: is derived from उन्दि-क्लेदने उन्देरच्चादे: (उपादि० १.१२ ) इति उ:प्रत्यय: hence the meaning given by Rishi Dayananda as स्निग्धैः-पदार्थैः Juicy or greasy substances. इति प्रथमाष्टके द्वितीयाध्याये दशमो वर्गः समाप्तः । Here ends the tenth Verga of the second Chapter in the first Ashtaka or Octade.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top