ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 23/ मन्त्र 22
इ॒दमा॑पः॒ प्र व॑हत॒ यत्किं च॑ दुरि॒तं मयि॑। यद्वा॒हम॑भिदु॒द्रोह॒ यद्वा॑ शे॒प उ॒तानृ॑तम्॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । आ॒पः॒ । प्र । व॒ह॒त॒ । यत् । किम् । च॒ । दु॒रि॒तम् । मयि॑ । यत् । वा॒ । अ॒हम् । अ॒भि॒ऽदु॒द्रोह॑ । यत् । वा॒ । शे॒पे । उ॒त । अनृ॑तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदमापः प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि। यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेप उतानृतम्॥
स्वर रहित पद पाठइदम्। आपः। प्र। वहत। यत्। किम्। च। दुरितम्। मयि। यत्। वा। अहम्। अभिऽदुद्रोह। यत्। वा। शेपे। उत। अनृतम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 23; मन्त्र » 22
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ताः कीदृश्य इत्युपदिश्यते।
अन्वयः
अहं यत्किंच मयि दुरितमस्ति यद्वा पुण्यमस्ति यच्चाहमभिदुद्रोह या मित्रत्वमाचरितवान् यद्वा कञ्चिच्छेपे वाऽनुगृहीतवान् यदनृतं वोत सत्यं चाचरितवानस्मि तत्सर्वमिदमापो मम प्राणा मया सह प्रवहत प्राप्नुवन्ति॥२२॥
पदार्थः
(इदम्) आचरितम् (आपः) प्राणाः (प्र) प्रकृष्टार्थे (वहत) वहन्ति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (यत्) यादृशम् (किञ्च) किंचिदपि (दुरितम्) दुष्टस्वभावानुष्ठानजनितं पापम् (मयि) कर्तरि जीवे (यत्) ईर्ष्याप्रचुरम् (वा) पक्षान्तरे (अहम्) कर्मकर्ता जीवः (अभिदुद्रोह) आभिमुख्येन द्रोहं कृतवान् (यत्) क्रोधप्रचुरम् (वा) पक्षान्तरे (शेपे) कंचित्साधुजनमाक्रुष्टवान् (उत) अपि (अनृतम्) असत्यमाचरणमानभाषणं कृतवान्॥२२॥
भावार्थः
मनुष्यैर्यादृशं पापं पुण्यं चाचर्य्यते तत्तदेवेश्वरव्यवस्थया प्राप्यत इति निश्चयः॥२२॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे जल किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
मैं (यत्) जैसा (किम्) कुछ (मयि) कर्म का अनुष्ठान करनेवाले मुझमें (दुरितम्) दुष्ट स्वभाव के अनुष्ठान से उत्पन्न हुआ पाप (च) वा श्रेष्ठता से उत्पन्न हुआ पुण्य (वा) अथवा (यत्) अत्यन्त क्रोध से (अभिदुद्रोह) प्रत्यक्ष किसी से द्रोह करता वा मित्रता करता (वा) अथवा (यत्) जो कुछ अत्यन्त ईर्ष्या से किसी सज्जन को (शेपे) शाप देता वा किसी को कृपादृष्टि से चाहता हुआ जो (अनृतम्) झूँठ (उत) वा सत्य काम करता हूँ (इदम्) सो यह सब आचरण किये हुए को (आपः) मेरे प्राण मेरे साथ होके (प्रवहत) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं॥२२॥
भावार्थ
मनुष्य लोग जैसा कुछ पाप वा पुण्य करते हैं, सो सो ईश्वर अपनी न्याय व्यवस्था से उनको प्राप्त कराता ही है॥२२॥
विषय
फिर वे जल किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
अहं यत् किञ्च मयि दुरितम् अस्ति यत् वा पुण्यम् अस्ति यत् च अहम् अभिदुद्रोह या मित्रत्वम् आचरितवान् यद्वा कञ्चित् शेपे वा अनुगृहीतवान् यत् अनृतम् उत सत्यं च आचरितवान् अस्मि तत् सर्वम् इदम् अपः मम प्राणाः मया सह प्रवहत प्राप्नुवन्ति॥२२॥
पदार्थ
(अहम्) कर्मकर्ता जीवः=मैं (यत्) यादृशम्=जैसा (किञ्च) किंचिदपि=कुछ भी, (मयि) कर्तरि जीवे=कर्म का अनुष्ठान करनेवाले मुझमें, (यत्)=जो, (दुरितम्) दुष्टस्वभावानुष्ठानजनितं पापम्=दुष्ट स्वभाव के अनुष्ठान से उत्पन्न हुआ पाप (अस्ति)=है, (वा)=अथवा, (पुण्यम्)=पुण्य, (अस्ति)=है, (च)=और, (यत्) ईर्ष्याप्रचुरम्=अत्यन्त ईर्ष्या से, (अहम्) कर्मकर्ता जीवः=मैं, (अभिदुद्रोह) आभिमुख्येन द्रोहं कृतवान्=प्रत्यक्ष किसी से द्रोह किया हुआ, (या)=जो, (मित्रत्वम्)=मित्रता के लिये, (आचरितवान्)=आचरण किया हुआ, (यत्)=जो, (वा)=अथवा, (कञ्चित्)=कुछ, (शेपे) कंचित्साधुजनमाक्रुष्टवान्= साधु से क्रोधित हुआ जो, (वा) पक्षान्तरे=या, (अनुगृहीतवान्)=अनुगृहीत हुआ, (यत्) यादृशम् =जैसा, (अनृतम्) असत्यमाचरणमानभाषणं कृतवान्=असत्य व्यवहार और भाषण किया हुआ, (उत) अपि=भी, (सत्यम्)=सत्य, (च)=और, (आचरितवान्)=आचरण किया हुआ, (अस्मि)=हूँ, (तत्)=उस, (सर्वम्)=सबको, (इदम्)=यह, (आपः) प्राणाः=प्राण, (मम)=मेरे, (प्राणाः)=प्राण, (मया)=मेरे, (सह)=साथ, (प्र) प्रकृष्टार्थे=विशेष रूप से, (वहत) वहन्ति=प्राप्त होते हैं॥२२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्य लोग जैसे पाप या पुण्य करते हैं, वह-वह ही ईश्वर अपनी न्याय व्यवस्था से उनको प्राप्त कराता ही है॥२२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यत्) मैं जैसा (किञ्च) कुछ भी (मयि) कर्म का अनुष्ठान करने वाले मुझ में (यत्) जो (दुरितम्) दुष्ट स्वभाव के अनुष्ठान से उत्पन्न हुआ पाप (वा) या (पुण्यम्) पुण्य (अस्ति) है (च) और (यत्) अत्यन्त ईर्ष्या से (अहम्) मैं (अभिदुद्रोह) प्रत्यक्ष किसी से किया हुआ द्रोह (या) जो (मित्रत्वम्) मित्रता के लिये (आचरितवान्) आचरण किया हुआ (वा) या (यत्) जो (कञ्चित्) कुछ (शेपे) साधु से क्रोधित (वा) या (अनुगृहीतवान्) अनुगृहीत हुआ हूँ। [मैं] (यत्) जैसा (अनृतम्) असत्य व्यवहार और भाषण किया हुआ (उत) भी (अस्मि) हूँ। (तत्) उस (सर्वम्) सबको (इदम्) यह (आपः) प्राण (मम) मेरे (सह) साथ (प्र) विशेष रूप से (वहत) प्राप्त होते हैं॥२२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इदम्) आचरितम् (आपः) प्राणाः (प्र) प्रकृष्टार्थे (वहत) वहन्ति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (यत्) यादृशम् (किञ्च) किंचिदपि (दुरितम्) दुष्टस्वभावानुष्ठानजनितं पापम् (मयि) कर्तरि जीवे (यत्) ईर्ष्याप्रचुरम् (वा) पक्षान्तरे (अहम्) कर्मकर्ता जीवः (अभिदुद्रोह) आभिमुख्येन द्रोहं कृतवान् (यत्) क्रोधप्रचुरम् (वा) पक्षान्तरे (शेपे) कंचित्साधुजनमाक्रुष्टवान् (उत) अपि (अनृतम्) असत्यमाचरणमानभाषणं कृतवान्॥२२॥
विषयः- पुनस्ताः कीदृश्य इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- अहं यत्किंच मयि दुरितमस्ति यद्वा पुण्यमस्ति यच्चाहमभिदुद्रोह या मित्रत्वमाचरितवान् यद्वा कञ्चिच्छेपे वाऽनुगृहीतवान् यदनृतं वोत सत्यं चाचरितवानस्मि तत्सर्वमिदमापो मम प्राणा मया सह प्रवहत प्राप्नुवन्ति॥२२॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्यादृशं पापं पुण्यं चाचर्य्यते तत्तदेवेश्वरव्यवस्थया प्राप्यत इति निश्चयः॥२२॥
विषय
मानस रोगनिवारण
पदार्थ
१. (आपः) हे जलो ! (यत् किञ्च) - जो कुछ भी (दुरितम्) - अशुभ आचरण (मयि) - मेरे जीवन में है (इदम्) - इसको (प्रवहत( - बहाकर दूर ले - जाओ । जल शरीर के रोगों को ही दूर करते हों , सो नहीं , इनका मानस रोगों पर भी प्रभाव पड़ता है । क्रोध में आये हुए मनुष्य को अब तक ठण्डा पानी पीने के लिए देने की प्रथा है । पानी रोगों को ही नहीं , क्रोध को भी दूर कर देता है । वस्तुतः स्वास्थ्य को प्राप्त कराके जल मन को भी स्वस्थ बनाते हैं । मन के स्वस्थ होने पर सब दुरित दूर ही रहते हैं ।
२. हे जलो । (यद् वा) - और जो (अहम्) - मैं (अभिदुद्रोह)) - किसी के प्रति द्रोह करता हूँ , ये जल उस द्रोह भाव को भी दूर करें । हमारे मनों में किसी की जिघांसा की भावना न हो ।
३. (यद् वा) - और जो मैं (शेपे) - क्रोध में आक्रोश कर बैठता हूँ , किसी को शाप देने लगता है , उस वृत्ति को भी दूर करो (उत) - और (अनृतम्)@ - मेरे जीवन में न चाहते हुए भी आ जानेवाले असत्य को भी मुझसे दूर करो ।
भावार्थ
भावार्थ - जल शारीरिक रोगों की औषध तो है ही , ये मानस रोगों को भी दूर करनेवाले हैं ।
विषय
आप्त पुरुषों, जलों और प्रजाजनों के कर्त्तव्य
भावार्थ
हे ( आपः ) जलो ! प्राणो ! हे आप्त पुरुषों ! ( मयि ) मेरे मन और शरीर में ( यत् किम् च ) जो कुछ भी ( इदम् ) यह (दुरितम् ) दुष्ट स्वभाव, दुष्ट इच्छा, वासना या उससे उत्पन्न पाप या मलिन अंश है उसको ( प्र वहत) बहा डालो, धो दो, नष्ट करो । और (यद् वा) जो कुछ मैं ( अभि दुद्रोह) किसी के प्रति द्रोह बुद्धि करूं और (यद् वा ) जो कुछ भी ( शेपे ) अनुचित निन्द्य वचन कहूं ( उत ) और जो कुछ भी ( अनृतं ) असत्य वचन कहूं उस सबको दूर करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१- २४ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—१ वायुः । २, ३ इन्द्रवायू । ४-६ मित्रावरुणौ । ७-९ इन्द्रो मरुत्वान् । १०-१२ विश्वे देवाः । १३-१५ पूषा १६-२२ आपः । २३-२४ अग्नः । छन्दः—१-१८ गायत्री । १९ पुर उष्णिक्। २० अनुष्टुप्। २१ प्रतिष्ठा । २२-२४ अनुष्टुभः ॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसे जसे पाप व पुण्य करतात तसे ईश्वर आपल्या न्यायव्यवस्थेने त्यांना त्याचे फळ देतो. ॥ २२ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May these holy waters wash off and carry away whatever evil there be in me, whatever I hate, or whatever I curse, or whatever false there be in me.
Subject of the mantra
Even then, what kind of those waters are, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(aham)=I, (yat)=as, (kiñca)=whichever, (mayi)=in me who commences rituals of deeds, (yat)=those, (duritam)=sin accrued due to commencement of deeds of wicked nature, (vā)=or, (puṇyam)=charity, (asti)=exists, (ca)=and, (yat)=with great jealously, (aham)=I, (abhidudroha)=direct malevolence against somebody, (yā)=which, (mitratvam)=for friendship, (ācaritavān)=conducted, (vā)=or, (yat)=which, (kañcit)=some, (śepe)=angry with a monk, (vā)=or, (anugṛhītavān)=I am blessed, [maiṃ]=I, (yat)=as, (anṛtam)=misbehaved and lied, (uta)=also, (asmi)=I am, (tat)=that, (sarvam)=to all, (idam)=this, (āpaḥ)=vital breath, (mama)=me, (saha)=with, (pra)=in a specific way, (vahata)=get obtained.
English Translation (K.K.V.)
Whatever is in me performing the ritual of karma, which is sin or virtue arising out of the ritual of evil nature out of extreme jealousy, I have directly committed treason against someone, the one who behaved for friendship or the one who got angry or pleased with some saint. I am also like untruthful activity and speech. All of them get with me this life-breath, specially.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The kind of sin or virtue that human beings do, the same God gets them through His judicial system.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Whatever sin caused by evil nature is there in me or the merit, whether I have pronounced imprecations (curses) against holy men or have shown mercy to others, whether I have wrought evil out of jealousy or have shown friendship, whether I have lied or spoken the truth, all this my Pranas (life breaths) take with me.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Whatever good or evil, merit or sin is done by people, they get the fruit of the same under the dispensation of God's Justice. (प्रवहत ) प्रापयन्ति प्रकृष्टार्थे वहन्ति = Carry on or cause to get further. अत्र व्यत्ययो लडथें लोट् च (आपः) प्राणा:- = Life breaths or principles as explained before. Rishi Dayananda in his commentary on Yaj. 8.27 has interpreted as आप्ताः प्रजा: य० ६. २७) People who always think, speak and act truthfully. In his commentary on Yaj. 20.20 he has explained as प्राणा जलानीव विद्वांसः (यजु० २०. २२ ) Learned persons who are like the Pranas and waters. In his commentary on Yaj.10.7 he has interpreted आप: as जलानीव शान्ता: Men of calm nature like waters. That meaning can be taken here also and then the prayers for removing all our physical, vocal and mental defect is addressed to them and not to inanimate waters as wrongly supposed by Sayanacharya, Wilson, Griffith and others.
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