ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 23/ मन्त्र 19
अ॒प्स्व१न्तर॒मृत॑म॒प्सु भे॑ष॒जम॒पामु॒त प्रश॑स्तये। देवा॒ भव॑त वा॒जिनः॑॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प्ऽसु । अ॒न्तः । अ॒मृत॑म् । अ॒प्ऽसु । भे॒ष॒जम् । अ॒पाम् । उ॒त । प्रऽश॑स्तये । देवाः॑ । भव॑त । वा॒जिनः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अप्स्व१न्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये। देवा भवत वाजिनः॥
स्वर रहित पद पाठअप्ऽसु। अन्तः। अमृतम्। अप्ऽसु। भेषजम्। अपाम्। उत। प्रऽशस्तये। देवाः। भवत। वाजिनः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 23; मन्त्र » 19
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ताः कीदृश्य इत्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे देवा विद्वांसो यूयं प्रशस्तयेऽप्स्वन्तरमृतमुताऽप्सु भेषजम् विदित्वाऽपां प्रयोगेण वाजिनो भवत॥१४॥
पदार्थः
(अप्सु) जलेषु (अन्तः) मध्ये (अमृतम्) मृत्युकारकरोगनिवारकं रसम् (अप्सु) जलेषु (भेषजम्) औषधम् (अपाम्) जलानाम् (उत) अप्यर्थे (प्रशस्तये) उत्कर्षाय (देवाः) विद्वांसः (भवत) स्तः (वाजिनः) प्रशस्तो बाधो येषामस्ति ते। अत्र प्रशंसार्थ इनिः। गत्यर्थाद्विज्ञानं गृह्यते॥१९॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यूयममृतरसाभ्य ओषधिगर्भाभ्योऽद्भ्यः शिल्पवैद्यकविद्याभ्यां गुणान् विदित्वा शिल्पकार्य्यसिद्धिं रोगनिवारणं च नित्यं कुरुतेति॥१९॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
हे (देवाः) विद्वानो ! तुम (प्रशस्तये) अपनी उत्तमता के लिये (अप्सु) जलों के (अन्तः) भीतर जो (अमृतम्) मार डालनेवाले रोग का निवारण करनेवाला अमृतरूप रस (उत) तथा (अप्सु) जलों में (भेषजम्) औषध हैं, उनको जानकर (अपाम्) उन जलों की क्रियाकुशलता से (वाजिनः) उत्तम श्रेष्ठ ज्ञानवाले (भवत) हो जाओ॥१९॥
भावार्थ
हे मनुष्यो तुम अमृतरूपी रस वा ओषधिवाले जलों से शिल्प और वैद्यकशास्त्र की विद्या से उनके गुणों को जानकर कार्य्य की सिद्धि वा सब रोगों की निवृत्ति नित्य करो॥१९॥
विषय
फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे देवा विद्वांसः यूयं प्रशस्तये अप्सु अन्तः अमृतम् उत अप्सु भेषजं विदित्वा अपां प्रयोगेण वाजिनः भवत ॥१९॥
पदार्थ
हे (देवा) विद्वांसः=विद्वानो ! (यूयम्)=तुम सब, (प्रशस्तये) उत्कर्षाय= अपने उत्कर्ष के लिये, (अप्सु) जलेषु=जलों के, (अन्तः) मध्ये= भीतर जो, (अमृतम्) मृत्युकारकरोगनिवारकं रसम्=मृत्यु कारक रोग का निवारण करने वाला अमृतरूप रस, (उत) अप्यर्थे= भी, (अप्सु) जलेषु=जलों के, (भेषजम्) औषधम्=औषध हैं, (विदित्वा)=यह जानकर, (अपाम्) जलानाम्=उन जलों के, (प्रयोगेण)=प्रयोग से, (वाजिनः) प्रशस्तो बाधो येषामस्ति ते=उत्तम श्रेष्ठ ज्ञानवाले, (भवत) स्तः=हो जाओ ॥१९॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
हे मनुष्यो तुम अमृतरूपी रस से, ओषधिवाले पौधों के जलों से और शिल्प और वैद्यकशास्त्र की विद्या से उनके गुणों को जानकर कार्य की सिद्धि और सब रोगों की निवृत्ति नित्य करो॥१९॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (देवाः) विद्वानो ! (यूयम्) तुम सब (प्रशस्तये) उत्कर्ष के लिये (अप्सु) जलों के (अन्तः) भीतर [जो] (अमृतम्) मृत्यु कारक रोग का निवारण करने वाले अमृतरूप रस (उत) भी (अप्सु) जलों के (भेषजम्) औषध हैं। (विदित्वा) यह जानकर (अपाम्) उन जलों के (प्रयोगेण) प्रयोग से (वाजिनः) उत्तम श्रेष्ठ ज्ञानवाले (भवत) हो जाओ॥१९॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अप्सु) जलेषु (अन्तः) मध्ये (अमृतम्) मृत्युकारकरोगनिवारकं रसम् (अप्सु) जलेषु (भेषजम्) औषधम् (अपाम्) जलानाम् (उत) अप्यर्थे (प्रशस्तये) उत्कर्षाय (देवाः) विद्वांसः (भवत) स्तः (वाजिनः) प्रशस्तो बाधो येषामस्ति ते। अत्र प्रशंसार्थ इनिः। गत्यर्थाद्विज्ञानं गृह्यते॥१९॥
विषयः- पुनस्ताः कीदृश्य इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे देवा विद्वांसो यूयं प्रशस्तयेऽप्स्वन्तरमृतमुताऽप्सु भेषजम् विदित्वाऽपां प्रयोगेण वाजिनो भवत॥१९॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे मनुष्या ! यूयममृतरसाभ्य ओषधिगर्भाभ्योऽद्भ्यः शिल्पवैद्यकविद्याभ्यां गुणान् विदित्वा शिल्पकार्य्यसिद्धिं रोगनिवारणं च नित्यं कुरुतेति॥१९॥
विषय
जलों में अमृतत्व
पदार्थ
१. (अप्सु अन्तः) - जलों में (अमृतम्) - अमृतत्व है , (अप्सु) - जलों में (भेषजम्) - औषध है अर्थात् जलों के ठीक प्रयोग से मनुष्य दीर्घजीवी - सौ वर्ष तक जीनेवाला बनता है और इन जलों के द्वारा सब रोगों का निवारण हो सकता है । इनका तो नाम ही वारि [रोगानिवारयति] है - ये रोगों को दूर करते हैं । वेद में इनका नाम 'भेषज' भी है - ये औषध हैं ।
२. (उत) - और (अपाम्) - इन जलों के (प्रशस्तये) - [प्रशस्तिभिः - अथर्व०] प्रशंसनीय गुण - धर्मों से (देवाः) - देव (वाजिनः) - शक्तिशाली (भवत) - होते हैं । देव इन जलों का ठीक रूप से प्रयोग करते हैं । उनके लिए मेघजल ही मद्य होता है । संस्कृत में इसे 'अमर वारुणी' नाम ही दे दिया गया है । ये देव जलों का ठीक प्रयोग करते हुए शक्ति का सम्पादन करते हैं । आसुरी वृत्तिवाले लोग जल के प्रयोग से दूर होकर उनके लाभों से वंचित रह जाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - जल अमृत हैं , भेषज है । ये हमें शक्तिशाली बनाते हैं ।
विषय
आप्त पुरुषों, जलों और प्रजाजनों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( देवाः ) विद्वान् पुरुषो ! ( अप्सु अन्तः ) जलों के भीतर ( अमृतम् ) मृत्युकारी रोग को निवारण करने वाला परम रस, जीवन रूप विद्यमान है । और ( अप्सु ) जलों में ही ( भेषजम् ) सब रोगों के दूर करने का बल भी है । ( उत ) और ( प्रशस्तये ) उत्तम गुण और बल उन्नति के प्राप्त करने के लिये आप लोग ( वाजिनः ) उत्तम ज्ञान और बल युक्त (भवत) होवो । आप्तों के पक्ष में—उनमें ही अमृत, आत्मज्ञान और उनमें ही रोगनाशक ज्ञान और उन्नति का मूल है । प्रजाओं में ही राजा और राष्ट्र का अमर जीवन, दोषों का उपाय और बलकारी गुण है । हे विजीगीषु राजाओ ! उनकेबल पर ही अश्व के समान बलवान् हो जाओ ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१- २४ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—१ वायुः । २, ३ इन्द्रवायू । ४-६ मित्रावरुणौ । ७-९ इन्द्रो मरुत्वान् । १०-१२ विश्वे देवाः । १३-१५ पूषा १६-२२ आपः । २३-२४ अग्नः । छन्दः—१-१८ गायत्री । १९ पुर उष्णिक्। २० अनुष्टुप्। २१ प्रतिष्ठा । २२-२४ अनुष्टुभः ॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! तुम्ही अमृतरूपी रस व औषधीयुक्त जलाने शिल्प व वैद्यकशास्त्राच्या विद्येने त्यांचे गुण जाणून कार्याची सिद्धी करा व सर्व रोगांची निवृत्ती करा. ॥ १९ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
There is nectar in the waters. There is health and medicinal efficacy in the waters. General scholars of eminence, rise and act fast for special studies and appraisal of waters.
Subject of the mantra
Then, what kind of they are, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (devāḥ)=scholars, (yūyam)=all of you, (praśastaye)=to excel, (apsu) =of waters, (antaḥ)=into, [jo]=which, (amṛtam)=in nectar form juice that cures death causative disease, (uta)=also, (apsu) jaloṃ ke (bheṣajam)=herbs are, (viditvā)=knowing, (apām)=of those waters, (prayogeṇa)=by use, (vājinaḥ)=having excellent knowledge, (bhavata)=become.
English Translation (K.K.V.)
O scholars! To excel all of you, in the waters in which herbs are in nectar-form-juice also that cures death causative disease, knowing this by the use of those waters be having excellent knowledge.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
O human beings, with the juice of nectar, by the waters of medicinal plants and by knowing their qualities by the knowledge of craft and medicine, do the accomplishment of work and the abolition of all diseases regularly.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What is the nature of those waters is taught in the next mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons, for your all-round development you should know that there is Amrita (Ambrosia or the power of destroying diseases that cause death) in the waters. There is healing balm or there are medicinal herbs in the waters. Know this and by their proper use become enlightened and wise.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अमृतम्) मृत्युकारकरोगनिवारकम् = The power of destroying diseases that cause death. (भेषजम् ) औषधम् Healing balm or medicine. (देवा:) विद्वांसः = Learned persons. (वाजिनः) प्रशस्तो बोधो येषामस्ति ते । अत्र प्रशंसार्थ इति: । गत्यर्थाद् विज्ञानं गृह्यते || = Full of knowledge, enlightened or wise.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men, having known the attributes of the waters which contain disease-destroying powers and which contain in themselves the medicinal herbs, use them for the removal of diseases the medicinal herbs, use them for the removal of diseases and the accomplishment of arts, crafts and industries.
Translator's Notes
It is remarkable that even Sayanacharya-an orthodox commentator has taken देवा: as हे देवा:-ऋत्विजादयो ब्राह्मणाः । एते वै देवाः प्रत्यक्षं यद् ब्राह्मणाः । (तैतिरीय संहितायाम् १.७ ३.१ ) इति श्रुत्यन्तरात् ॥ Which Wilson has rightly translated as "divine priests." For this meaning of ऋत्विजादयो ब्राह्मणा: Sayanacharya has given quotation from the Taittireeya Samhita 1.7.3.1 where it is clearly stated that the Brahmanas are visible devas. But Griffith has translated देवा: where as else where as "Ye Gods." He seems to be obsessed with the idea of Polytheism in the Vedas.
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