ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 23/ मन्त्र 6
वरु॑णः प्रावि॒ता भु॑वन्मि॒त्रो विश्वा॑भिरू॒तिभिः॑। कर॑तां नः सु॒राध॑सः॥
स्वर सहित पद पाठवरु॑णः । प्र॒ऽअ॒वि॒ता । भु॒व॒त् । मि॒त्रः । विश्वा॑भिः । ऊ॒तिऽभिः॑ । कर॑ताम् । नः॒ । सु॒ऽराध॑सः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वरुणः प्राविता भुवन्मित्रो विश्वाभिरूतिभिः। करतां नः सुराधसः॥
स्वर रहित पद पाठवरुणः। प्रऽअविता। भुवत्। मित्रः। विश्वाभिः। ऊतिऽभिः। करताम्। नः। सुऽराधसः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 23; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ किं कुरुत इत्युपदिश्यते।
अन्वयः
यथायं सुयुक्त्या सेवितो वरुणो विश्वाभिरूतिभिः सर्वैः पदार्थैः प्राविता भुवत् भवति मित्रश्च यौ नोस्मान् सुराधसः करताम् कुरुतस्तस्मादेतावस्माभिरप्येवं कथं न परिचर्य्यौ वर्त्तेते॥६॥
पदार्थः
(वरुणः) बाह्याभ्यन्तरस्थो वायुः (प्राविता) सुखप्रापकः (भुवत्) भवति। अत्र लडर्थे लेट् बहुलं छन्दसि इति शपो लुक्। भूसुवोस्तिङि। (अष्टा०७.३.८८) अनेन गुणनिषेधः। (मित्रः) सूर्य्यः। अत्र अमिचिमिश० (उणा०४.१६८) अनेन क्त्रः प्रत्ययः। (विश्वाभिः) सर्वाभिः (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः कर्मभिः (करताम्) कुरुतः। अत्रापि लडर्थे लोट्। विकरणव्यत्ययश्च। (नः) अस्मान् (सुराधसः) शोभनानि विद्याचक्रवर्त्तिराज्यसंम्बन्धीनि राधांसि धनानि येषां तानेवं भूतान्॥६॥
भावार्थः
यस्मादेतयोः सकाशेन सर्वेषां पदार्थानां क्षणादयो व्यवहारास्सम्भवन्त्यस्माद्विद्वांस एनाभ्यां बहूनि कार्याणि संसाध्योत्तमानि धनानि प्राप्नुवन्तीति॥६॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे क्या करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
जैसे यह अच्छे प्रकार सेवन किया हुआ (वरुणः) बाहर वा भीतर रहनेवाला वायु (विश्वाभिः) सब (ऊतिभिः) रक्षा आदि निमित्तों से सब प्राणि या पदार्थों को करके (प्राविता) सुख प्राप्त करनेवाला (भुवत्) होता है (मित्रश्च) और सूर्य्य भी जो (नः) हम लोगों को (सुराधसः) सुन्दर विद्या और चक्रवर्त्ति राज्यसम्बन्धी धनयुक्त (करताम्) करते हैं, जैसे विद्वान् लोग इन से बहुत कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वैसे हम लोग भी इसी प्रकार इन का सेवन क्यों न करें॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिसलिये इन उक्त वायु और सूर्य के आश्रय करके सब पदार्थों के रक्षा आदि व्यवहार सिद्ध होते हैं, इसलिये विद्वान् लोग भी इनसे बहुत कार्य्यों को सिद्ध करके उत्तम-उत्तम धनों को प्राप्त होते हैं॥६॥
विषय
फिर वे क्या करते हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यथा अयं सुयुक्त्या सेवितः वरुणः विश्वाभिः ऊतिभिः सर्वैः पदार्थैः प्राविता भुवत् भवति मित्रः च यौ नः अस्मान् सुराधसः करतां कुरुतः तस्मात् एतौ अस्माभिः अपि एवं कथं न परिचर्य्यौ वर्त्तेते॥६॥
पदार्थ
(यथा)=जैसे, (अयम्)=यह. (सुयुक्त्या)=अच्छी प्रकार से युक्त किया हुआ और (सेवितः)=सेवन किया हुआ, (वरुणः) बाह्याभ्यन्तरस्थो वायुः=बाहर वा भीतर रहनेवाला वायु, (विश्वाभिः) सर्वाभिः=सब, (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः कर्मभिः=रक्षा आदि निमित्तों से सब प्राणि या पदार्थों को करके, (सर्वैः)=सब, (पदार्थैः)=पदार्थों से, (प्राविता) सुखप्रापकः=सुख प्राप्त करानेवाला, (भुवत्) भवति=होता है, (मित्रः) सूर्य्यः=सूर्य, (च)=भी, (यौ)=जो, (नः) अस्मान्=हमारे, (सुराधसः) शोभनानि विद्याचक्रवर्त्तिराज्यसंम्बन्धीनि राधांसि धनानि येषां तानेवं भूतान्=सुन्दर विद्या और चक्रवर्त्ति राज्य सम्बन्धी धनयुक्त, (करताम्) कुरुतः=करते हैं, (तस्मात्)=इसलिए, (एतौ)=ये, (अस्माभिः)=हमारे द्वारा (अपि)=भी, (एवम्)=ऐसे ही, (कथम्)=क्यों, (न)=न, (परिचर्य्यौ)= सेवित किये जाते (वर्त्तेते)=हैं ॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
क्योंकि इन निकट के सब पदार्थों के रक्षा आदि व्यवहार सम्भव होते हैं, इस विद्वान् से बहुत से कार्य सिद्ध करके उत्तम धनों की प्राप्ति होती है ॥६॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी- चक्रवर्त्ति राज्य ऋग्वेद के मन्त्र संख्या (०१.०४.०७) में स्पष्ट किया गया है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यथा) जैसे (अयम्) यह (सुयुक्त्या) अच्छी प्रकार से युक्त किया हुआ [और] (सेवितः) सेवन किया हुआ (वरुणः) बाहर वा भीतर रहनेवाला वायु है। और (विश्वाभिः) सब (ऊतिभिः) रक्षा आदि कारणों से सब प्राणियों या पदार्थों को सम्मिलित करके (सर्वैः) सब (पदार्थैः) पदार्थों से (प्राविता) सुख प्राप्त करानेवाला (भुवत्) होता है। (मित्रः) सूर्य (च) भी (यौ) जो (नः) हमें (सुराधसः) सुन्दर विद्या और चक्रवर्त्ति राज्य सम्बन्धी धनयुक्त (करताम्) करते हैं, (तस्मात्) इसलिए (एतौ) ये दोनों (अस्माभिः) हमारे द्वारा (अपि) भी (एवम्) ऐसे ही, (कथम्) क्यों (न) न (परिचर्य्यौ) सेवन किये जाते (वर्त्तेते) हैं ॥६॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वरुणः) बाह्याभ्यन्तरस्थो वायुः (प्राविता) सुखप्रापकः (भुवत्) भवति। अत्र लडर्थे लेट् बहुलं छन्दसि इति शपो लुक्। भूसुवोस्तिङि। (अष्टा०७.३.८८) अनेन गुणनिषेधः। (मित्रः) सूर्य्यः। अत्र अमिचिमिश० (उणा०४.१६८) अनेन क्त्रः प्रत्ययः। (विश्वाभिः) सर्वाभिः (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः कर्मभिः (करताम्) कुरुतः। अत्रापि लडर्थे लोट्। विकरणव्यत्ययश्च। (नः) अस्मान् (सुराधसः) शोभनानि विद्याचक्रवर्त्तिराज्यसंम्बन्धीनि राधांसि धनानि येषां तानेवं भूतान्॥६॥
विषयः- पुनस्तौ किं कुरुत इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- यथायं सुयुक्त्या सेवितो वरुणो विश्वाभिरूतिभिः सर्वैः पदार्थैः प्राविता भुवत् भवति मित्रश्च यौ नोस्मान् सुराधसः करताम् कुरुतस्तस्मादेतावस्माभिरप्येवं कथं न परिचर्य्यौ वर्त्तेते॥६॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- यस्मादेतयोः सकाशेन सर्वेषां पदार्थानां क्षणादयो व्यवहारास्सम्भवन्त्यस्माद्विद्वांस एनाभ्यां बहूनि कार्याणि संसाध्योत्तमानि धनानि प्राप्नुवन्तीति॥६॥
विषय
अद्वेष व स्नेह
पदार्थ
१. (वरुणः) - द्वेष - निवारण का देवता , अद्वेष की भावना (प्राविता) - प्रकर्षण रक्षक (भुवत्) - हो , अर्थात् इस जीवन - यज्ञ में द्वेष से ऊपर उठकर हम अपनी शक्तियों का रक्षण करनेवाले बने , द्वेषाग्नि में हम जलते न रहें ।
२. (मित्रः) - स्नेह का देवता , सबके प्रति स्नेह की भावना (विश्वाभिः ऊतिभिः) - सब प्रकार के रक्षणों के द्वारा हमें सुरक्षित करे । स्नेह के कारण शक्ति का वर्धन होता है । अद्वेष से शक्ति नष्ट नहीं होती , स्नेह से वह शक्ति बढ़ती है । इस प्रकार से वरुण व मित्र अद्वेष व स्नेह (नः) - हमें (सुराधसः) उत्तम सम्पत्तियोंवाले अथवा उत्तम सफलताओंवाले (करताम्) - करें । इस संसार में द्वेष से ऊपर उठकर स्नेह से बरतते हुए ही हम उत्तम साफल्य को प्राप्त कर सकते हैं । मनुजी ने 'शुष्कवैरं विवादं च न कुर्यात्केनचित्सह' - 'सुखे वैर और विवाद को किसी के साथ न करें इन शब्दों में ऐहिक व आमुष्मिक उन्नति के सुन्दर सूत्र का संकेत किया है । 'अद्वेषे द्यावापृथिवी हुवेम' इस वैदिक सूक्ति में भी यही कहा है कि 'संसार में किसी से द्वेष न करो' । हीन स्थितिवाले पर भी करुणा ही करनी है , क्रूरदृष्टि नहीं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम अद्वेष व स्नेह को अपनाकर अपनी शक्तियों का रक्षण करें और उत्तम साफल्य को सिद्ध करें ।
विषय
राजा, न्यायाधीश
भावार्थ
( वरुणः ) बाह्य और शरीर के भीतर का वायु जिस प्रकार शरीर की ( प्राविता ) अच्छी प्रकार से रक्षा करता है और (मित्रः) सूर्य जिस प्रकार जगत् की रक्षा करता है । उसी प्रकार से ( वरुणः ) दुष्टों का वारक सर्वश्रेष्ठ राजा और ( मित्रः ) स्नेहवान्, न्यायाधीश ( प्राविता ) अच्छी प्रकार प्रजा का रक्षक और ज्ञानप्रद ( भुवत् ) हो । और वे दोनों ( विश्वाभिः ऊतिभिः ) समस्त रक्षा-साधनों और प्रकारों से ( नः ) हमें ( सुराधसः ) उत्तम ऐश्वर्ययुक्त ( करताम् ) करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१- २४ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—१ वायुः । २, ३ इन्द्रवायू । ४-६ मित्रावरुणौ । ७-९ इन्द्रो मरुत्वान् । १०-१२ विश्वे देवाः । १३-१५ पूषा १६-२२ आपः । २३-२४ अग्नः । छन्दः—१-१८ गायत्री । १९ पुर उष्णिक्। २० अनुष्टुप्। २१ प्रतिष्ठा । २२-२४ अनुष्टुभः ॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे, जसे वायू व सूर्याच्या आश्रयाने सर्व पदार्थांचे रक्षण इत्यादी व्यवहार सिद्ध होतात तसेच विद्वान लोकही त्यांच्याकडून पुष्कळ कार्य सिद्ध करून धन प्राप्त करतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Varuna is breath of air, and Mitra, light of the sun, with energies and all the vitalities and immunities of human life and prosperity. May they both help us rise to the noblest wealth of body, mind and soul.
Subject of the mantra
Then, what they do, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yathā)=as, (ayam)=it, (suyuktyā) =well contained, [aura]=and, (sevitaḥ)=consumed, (varuṇaḥ) =there is life breath inside or outside, [aura]=and, (viśvābhiḥ)=all, (ūtibhiḥ)=by including all living beings or substances, (sarvaiḥ)=all, (padārthaiḥ)=by the substances, (prāvitā)= pleasure giver, (bhuvat)=happens, (mitraḥ)=the sun, (ca)=also, (yau)=which, (naḥ)=to us, (surādhasaḥ)=enrich with the graceful knowledge and wealth related to Chakrvari state, (karatām)=do, (tasmāt)=so, (etau)=these two, (asmābhiḥ)=by us, (api)=also, (evam)=in the same way, (katham)=why, (na)=not, (paricaryyau)=are served. (varttete)=are.
English Translation (K.K.V.)
As it is the air that is well contained and consumed outside or inside and for the reasons of all protection etc., that is, the one which brings happiness from all the things by including all the living beings or things. The Sun also, which enriches us with graceful knowledge and wealth related to Chakravari state. So, why in the same way these are not consumed by us also.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Because protection etc. of all these close objects are possible, by accomplishing many tasks by this scholar, good wealth is attained.
TRANSLATOR’S NOTES-
The Chakravarti state is explained in the Rigveda's mantra number (01.04.07).
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
When utilized properly, the air becomes our special protector with all its protective powers along with all substances. The sun also protects us with all its protective and guarding forces. They make us full of the admirable wealth of wisdom and vast good government by making us healthy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सुराधसः) शोभनानि विद्याचक्रवर्तिराज्यसम्बन्धीनि राधांसि धनानि येषां तान् एवं भूतान् । = Possessors of admirable wealth in the form of wisdom, v ast good government etc. राध इति धननाम (निघ० २.१०) = Wealth.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Because it is on account of the sun and the air, that time is measured and all functions performed well, therefore by utilizing them properly, men can accomplish many works and acquire wealth thereby.
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