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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 23/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    ऋ॒तेन॒ यावृ॑ता॒वृधा॑वृ॒तस्य॒ ज्योति॑ष॒स्पती॑। ता मि॒त्रावरु॑णा हुवे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तेन॑ । यौ । ऋ॒त॒ऽवृधौ॑ । ऋ॒तस्य॑ । ज्योति॑षः । पती॒ इति॑ । ता । मि॒त्रावरु॑णा । हु॒वे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतेन यावृतावृधावृतस्य ज्योतिषस्पती। ता मित्रावरुणा हुवे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतेन। यौ। ऋतऽवृधौ। ऋतस्य। ज्योतिषः। पती इति। ता। मित्रावरुणा। हुवे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 23; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    अहं यावृतेन जगदीश्वरेणोत्पाद्य धारितावृतावृधावृतस्य ज्योतिषस्पती मित्रावरुणौ स्तस्तौ हुवे॥५॥

    पदार्थः

    (ऋतेन) सत्यरूपेण ब्रह्मणा निर्मितौ सन्तौ (यौ) (ऋतावृधौ) ऋतं सत्यं कारणं जलं वा वर्द्धयतस्तौ। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। अन्येषामपि दृश्यते इति दीर्घश्च। (ऋतस्य) यथार्थस्वरूपस्य (ज्योतिषः) प्रकाशस्य (पती) पालयितारौ। अत्र षष्ठ्याः पतिपुत्रपृष्ठपार० (अष्टा०८.३.५३) अनेन विसर्जनीयस्य सकारादेशः। (ता) तौ (मित्रावरुणा) मित्रश्च वरुणश्च द्वौ सूर्यवायू। अत्र देवताद्वन्द्वे च। (अष्टा०६.३.३६) अनेन पूर्वपदस्यानङादेशः। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (हुवे) आददे। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् च॥५॥

    भावार्थः

    नैव सूर्यवायुभ्यां विना जलज्योतिषोरुत्पत्तेः सम्भवोऽस्ति नैव चेश्वरोत्पादनेन विना सूर्य्यवाय्वोरुत्पत्तिर्भवितुं शक्या, न चैताभ्यां विना मनुष्याणां व्यवहारसिद्धिर्भवितुमर्हतीति॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    मैं (यौ) जो (ऋतेन) परमेश्वर ने उत्पन्न करके धारण किये हुए (ऋतावृधौ) जल को बढ़ाने और (ऋतस्य) यथार्थ स्वरूप (ज्योतिषः) प्रकाश के (पती) पालन करनेवाले (मित्रावरुणौ) सूर्य और वायु हैं, उनको (हुवे) ग्रहण करता हूँ॥५॥

    भावार्थ

    न सूर्य और वायु के विना जल और ज्योति अर्थात् प्रकाश की योग्यता, न ईश्वर के उत्पादन किये विना सूर्य्य और वायु की उत्पत्ति का सम्भव और न इनके विना मनुष्यों के व्यवहारों की सिद्धि हो सकती है॥५॥

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    विषय

    फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    अहं यौ ऋतेन (जगदीश्वरेण उत्पाद्य धारिता) ऋतावृधौ ऋतस्य ज्योतिषः पती मित्रावरुणौ स्तः तौ हुवे॥५॥

    पदार्थ

    (अहम्)=मैं, (ऋतेन) सत्यरूपेण ब्रह्मणा निर्मितौ सन्तौ=परमेश्वर द्वारा उत्पन्न करके धारण किये हुए, (जगदीश्वरेण)=परमेश्वर के द्वारा, (उत्पाद्य)=निर्माण करके, (धारिता)=धारित किया हुआ है, (यौ)=जो,  (ऋतावृधौ) ऋतं सत्यं कारणं जलं वा वर्द्धयतस्तौ=यथार्थस्वरूपस्य जल का जो कारण है अथवा बढ़ाते हैं, (ऋतस्य) यथार्थस्वरूपस्य= यथार्थस्वरूपस्य और, (ज्योतिषः) प्रकाशस्य= प्रकाश के, (पती) पालयितारौ=पालन करनेवाले, (मित्रावरुणा) मित्रश्च वरुणश्च द्वौ सूर्यवायू= सूर्य और वायु दो (स्तः) हैं, (तौ)=उन दोनों को, (हुवे) आददे=ग्रहण करता हूँ॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    सूर्य और वायु के विना जल और ज्योति उत्पन्न होना सम्भव नहीं है। ईश्वर के उत्पादन किये विना सूर्य्य और वायु की उत्पत्ति का होना सम्भव नहीं है और न इनके विना मनुष्यों के व्यवहारों की सिद्धि हो सकती है॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (अहम्) मैं (ऋतेन) परमेश्वर द्वारा उत्पन्न करके धारण किये हुए (यौ) जो  (ऋतावृधौ)  यथार्थस्वरूप जल का जो कारण है अथवा बढ़ाते हैं । [उन दोनों और] (ऋतस्य)  यथार्थस्वरूप (ज्योतिषः)  प्रकाश के (पती) पालन करनेवाले (मित्रावरुणा) सूर्य और वायु (स्तः) हैं, (तौ) उन दोनों को (हुवे)  ग्रहण करता हूँ॥५॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (ऋतेन) सत्यरूपेण ब्रह्मणा निर्मितौ सन्तौ (यौ) (ऋतावृधौ) ऋतं सत्यं कारणं जलं वा वर्द्धयतस्तौ। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। अन्येषामपि दृश्यते इति दीर्घश्च। (ऋतस्य) यथार्थस्वरूपस्य (ज्योतिषः) प्रकाशस्य (पती) पालयितारौ। अत्र षष्ठ्याः पतिपुत्रपृष्ठपार० (अष्टा०८.३.५३) अनेन विसर्जनीयस्य सकारादेशः। (ता) तौ (मित्रावरुणा) मित्रश्च वरुणश्च द्वौ सूर्यवायू। अत्र देवताद्वन्द्वे च। (अष्टा०६.३.३६) अनेन पूर्वपदस्यानङादेशः। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (हुवे) आददे। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् च॥५॥
    विषयः- पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- अहं यावृतेन जगदीश्वरेणोत्पाद्य धारितावृतावृधावृतस्य ज्योतिषस्पती मित्रावरुणौ स्तस्तौ हुवे॥५॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- नैव सूर्यवायुभ्यां विना जलज्योतिषोरुत्पत्तेः सम्भवोऽस्ति नैव चेश्वरोत्पादनेन विना सूर्य्यवाय्वोरुत्पत्तिर्भवितुं शक्या, न चैताभ्यां विना मनुष्याणां व्यवहारसिद्धिर्भवितुमर्हतीति॥५॥

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    विषय

    ऋत+ज्योतिः

    पदार्थ

    १. मैं (ता) - उन (मित्रावरुणा) - मित्र और वरुण को , स्नेह व अद्वेष को (हुवे) - पुकारता हैं , (यौ) - जो (ऋतेन) - ठीक समय व ठीक स्थान पर कार्य करने से (ऋतावृधौ) - मुझमें ऋत का वर्धन करनेवाले हैं - मेरे जीवन में सत्य के पनपाने का कारण बनते हैं और (ऋतस्य) - सत्य के तथा (ज्योतिषः) - ज्ञान के (पती) - रक्षक हैं । 

    २. जिस समय मनुष्य अपने व्यवहारों को स्नेह व अद्वेषपूर्वक करता है उस समय उसके जीवन में [क] ऋत होता है - उसके सब कार्य समय व स्थान की दृष्टि से ठीक होते हैं , उसके जीवन में व्यवस्था होती है । [ख] इस व्यवस्था के कारण उसमें ऋत का , सत्य का व यज्ञ का वर्धन होता है । उसके कार्य सत्य होते है , सत्य कार्य वे होते हैं जो यज्ञात्मक हैं - अधिक - से - अधिक भूतों - प्राणियों का हित करनेवाले हैं । यद् भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति धारणा [महाभारत] । [ग] व्यवस्था व सत्य को धारण करनेवाला यह पुरुष सत्य व ज्ञान का पति बनता है । उसके मन में 'सत्य' की स्थिति होती है और मस्तिष्क में 'ज्ञान' की । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम मित्र व वरुण की आराधना करें - स्नेह व अद्वेष को जीवन का सूत्र बनाएँ । ऐसा करने पर हमारे जीवनों में [क] व्यवस्था [ख] यज्ञात्मक कर्म [ग] सत्य व [घ] ज्ञान का परितोषण होगा । हम अनृत को छोड़ सत्य को अपना रहे होंगे । 

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    विषय

    मित्र, वरुण या वायु और सूर्य, दो अधिकारी ।

    भावार्थ

    ( ज्योतिषः पती ) ज्योति, प्रकाश, तेज के पालक सूर्य और वायु वा सूर्य और मेघ के समान ज्ञान और तेज या जीवन को धारण करने वाले ( यौ) जो दो ( ऋतावृधौ ) सत्य व्यवहार को बढ़ानेवाले, (ऋतस्य ज्योतिषः ) सत्य, वेद विज्ञान के प्रकाशक ( पती ) पालक हैं ( ता ) उन दोनों ( मित्रा वरुणा हुवे ) मित्र, ब्राह्मण वर्ग और (वरुण) दुष्टों के वारक सबसे वरण किये । क्षात्रवर्ग दोनों को ( हुवे ) राष्ट्र में नियुक्त करता हूं । वायु-सूर्य पक्ष में—( ऋतावृधौ) जल और अन्न को बढ़ाने वाले, मेघ पक्ष में ऋतस्य ज्योतिषः पती ) जल से उत्पन्न विद्युत् के पालक ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १- २४ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—१ वायुः । २, ३ इन्द्रवायू । ४-६ मित्रावरुणौ । ७-९ इन्द्रो मरुत्वान् । १०-१२ विश्वे देवाः । १३-१५ पूषा १६-२२ आपः । २३-२४ अग्नः । छन्दः—१-१८ गायत्री । १९ पुर उष्णिक्। २० अनुष्टुप्। २१ प्रतिष्ठा । २२-२४ अनुष्टुभः ॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्य व वायूशिवाय जलवृद्धी व ज्योती अर्थात प्रकाश निर्माण होऊ शकत नाही. ईश्वराने निर्माण केल्याखेरीज सूर्य व वायूची उत्पत्तीही शक्य नाही व त्यांच्याखेरीज माणसांच्या व्यवहाराची सिद्धी होऊ शकत नाही. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    For our enlightenment and spiritual advance ment, we invoke Mitra and Varuna, light of the sun and motive energy of the wind, both guardians of the light of truth and natural laws of Divinity, which, by that very light of truth, extend the operation of that law in the Lord’s creation upto the mind and soul of humanity.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of they are, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (aham) =I, (ṛtena)=by those retained after creation by the God, (yau)=which, (ṛtāvṛdhau)= what actually causes or increases water, [una donoṃ aura]=to both of them and, (ṛtasya)=true form, (jyotiṣaḥ)=of light, (patī)=one who preserves, (mitrāvaruṇā)=sun and air, (staḥ)=are, (tau)=to both of them, (huve)= receive.

    English Translation (K.K.V.)

    I receive them both, created and possessed by God, those in reality are the cause of water or increases it. Both of them and those who preserve the true form of light are the Sun and the wind.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Water and light cannot be produced without the Sun and air. It is not possible for the Sun and air to exist without the creation of God, and without them, human activities can be accomplished.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are they (Mitra and Varuna) is taught in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    I invoke or remember the sun and the wind which are created and upheld by the Absolutely True God, are increasers of true material cause (Matter) or water and guardians of true light.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ॠतेन ) सत्यरूपेण ब्रह्मणा निर्मिती सन्तौ = Created by God Who is absolutely True. (ऋतावृधौ) ऋतं सत्यं कारणं जलं वा वर्धयन्तौ = Increasers of true material cause and water. (मित्रावरुणौ ) मित्रश्च वरुणश्च द्वौ सूर्यवायू अत्र देवताद्वन्द्वे च । (अष्टा० ६.३.३६) अनेन पूर्वपदस्यानडादेशः । अत्रोभयत्र सुपां सु लुक् इत्याकारादेशः ।।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The creation of the water and light is not possible without the air and the sun. These (the sun and the air) cannot be created except by God and without them (the sun and the air) men cannot accomplish any work.

    Translator's Notes

    ऋतमिति सत्यनाम (निघ० ३.१० ) = True and absolutely True God. ऋतमिति उदकनाम (निघ० १.१२ ) = Water. So Rishi Dayananda has explained the word Rita as true, absolutely True God and water. Here Rishi Dayananda has taken the word (Mitra) for the sun, for which the Vedic Mantras like मित्रो जनान् यातयति ब्रवाणो मित्रो दाधार पृथिवीमुत द्याम् । मित्रः कृष्टीरनिमिषाभि चष्टे मित्राय हव्यं घृतवज्जुहोत (ऋ० ३.५९.१ ) are clear as admitted by all the commentators. Even in ordinary classical Sanskrit, the word मित्र: in masculine is used for the sun. In the Vedic Lexicon Nighantu the word Mitra is मित्र इति पदनाम (निघ० ५.४ ) पद-गतौ गतेस्त्रयोऽर्था ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च if we take the third meaning Mitra may be used for the sun as प्रकाशप्रापक: the cause of light. Besides, in the Aitareya Brahmana of the Rigveda it is stated. श्रहवें मित्रः (ऐतरेय ४-१० ) the word Mitra stands for the day. It is therefore also used for the sun as the lord of the day. The same thing is said in the Tandya Brahmana 25.10.10 of the Sama Veda अहमिंत्र: (ताण्ड्य. २५.१०.१०.) According to this also as Mitra stands for the day, it is equally used for the sun as the lord or cause of the day. Rishi Dayananda has taken वरुण ( Varuna) for the वायु air or wind. It is derived from बृञ्-वरणे to accept. As air is acceptable to all, it is called Varuna. It is therefore used for प्राण also यः प्राणः स वरुणः ॥ (गोपथ उ० ४. ११) In the Vedic Lexicon Nighantu 5.4. and 5. 6. it is stated वरुण इति पदनाम (निघ० ५० ४, ५. ६ ) पद-गतौ ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च Taking the second and third meaning, as the air causes movement and causes happiness सुखस्य प्रापक so it is called Varuna.

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