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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 23/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रवायू छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    उ॒भा दे॒वा दि॑वि॒स्पृशे॑न्द्रवा॒यू ह॑वामहे। अ॒स्य सोम॑स्य पी॒तये॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒भा । दे॒वा । दि॒वि॒ऽस्पृशा॑ । इ॒न्द्र॒वा॒यू इति॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ । अ॒स्य । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उभा देवा दिविस्पृशेन्द्रवायू हवामहे। अस्य सोमस्य पीतये॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उभा। देवा। दिविऽस्पृशा। इन्द्रवायू इति। हवामहे। अस्य। सोमस्य। पीतये॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 23; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परस्परानुषङ्गिणावुपदिश्येते।

    अन्वयः

    वयमस्य सोमस्य पीतये दिविस्पृशा देवोभेन्द्रवायू हवामहे॥२॥

    पदार्थः

    (उभा) द्वौ। अत्र त्रिषु प्रयोगेषु सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (देवा) दिव्यगुणै (दिविस्पृशा) यौ प्रकाशयुक्त आकाशे यानानि स्पर्शयतस्तौ। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः (इन्द्रवायू) अग्निपवनौ (हवामहे) स्पर्द्धामहे। अत्र बहुलं छन्दसि इति सम्प्रसारणम्। (अस्य) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षस्य (सोमस्य) सूयन्ते पदार्था यस्मिन् जगति तस्य (पीतये) भोगाय॥२॥

    भावार्थः

    योऽग्निर्वायुना प्रदीप्यते वायुरग्निना चेति परस्परमाकाङ्क्षितौ सहायकारिणौ स्तो मनुष्या युक्त्या सदैव सम्प्रयोज्य साधयित्वा पुष्कलानि सुखानि प्राप्नुवन्ति, तौ कुतो न जिज्ञासितव्यौ॥२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में परस्पर संयोग करनेवाले पदार्थों का प्रकाश किया है-

    पदार्थ

    हम लोग (अस्य) इस प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष (सोमस्य) उत्पन्न करनेवाले संसार के सुख के (पीतये) भोगने के लिये (दिविस्पृशा) जो प्रकाशयुक्त आकाश में विमान आदि यानों को पहुँचाने और (देवा) दिव्यगुणवाले (उभा) दोनों (इन्द्रवायू) अग्नि और पवन हैं, उनको (हवामहे) साधने की इच्छा करते हैं॥२॥

    भावार्थ

    जो अग्नि पवन और जो वायु अग्नि से प्रकाशित होता है, जो ये दोनों परस्पर आकाङ्क्षायुक्त अर्थात् सहायकारी हैं, जिनसे सूर्य्य प्रकाशित होता है, मनुष्य लोग जिनको साध और युक्ति के साथ नित्य क्रियाकुशलता में सम्प्रयोग करते हैं, जिनके सिद्ध करने से मनुष्य बहुत से सुखों को प्राप्त होते हैं, उनके जानने की इच्छा क्यों न करनी चाहिये॥२॥

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    विषय

    अब इस मन्त्र में परस्पर संयोग करनेवाले पदार्थों का प्रकाश किया है

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    वयम् अस्य सोमस्य पीतये दिविस्पृशा देवा उभा इन्द्रवायू हवामहे॥२॥

    पदार्थ

    (वयम्)=हम लोग, (अस्य) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षस्य= इस प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष, (सोमस्य) सूयन्ते पदार्था यस्मिन् जगति तस्य=जिस संसार में पदार्थ उत्पन्न होते हैं, उसको (पीतये) भोगाय=भोगने के लिये,  (दिविस्पृशा) यौ प्रकाशयुक्त आकाशे यानानि स्पर्शयतस्तौ=जो प्रकाशयुक्त आकाश में विमान आदि यानों को पहुँचाने और, (देवा) दिव्यगुणै= दिव्यगुण वाले, (उभा) द्वौ=दोनों, (इन्द्रवायू) अग्निपवनौ=अग्नि और पवन हैं, उनको (हवामहे) स्पर्द्धामहे=आगे बढ़ने की इच्छा करते हैं ॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो अग्नि पवन से प्रज्वलित होता है, जो वायु और अग्नि दोनों परस्पर कामना करते हुए एक दूसरे के सहायक हैं। मनुष्य लोग एक दूसरे से जुड़ करके सदैव अच्छी तरह  से  उपयोग में लाते हुए और सिद्ध करके बहुत से सुखों को प्राप्त करते हैं। उनको जानने की इच्छा क्यों न करनी चाहिये?॥२॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (वयम्) हम लोग (अस्य) इस प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष संसार, (सोमस्य) जिसमें पदार्थ उत्पन्न होते हैं, (पीतये) उसको भोगने के लिये  (दिविस्पृशा) जो प्रकाशयुक्त आकाश में विमान आदि यानों को पहुँचाने और, (देवा) दिव्यगुण वाले (उभा) दोनों (इन्द्रवायू) अग्नि और पवन हैं, उनका उचित रूप से प्रयोग करते हुए (हवामहे) और सिद्ध करते हुए, आगे बढ़ने की इच्छा करते हैं ॥२॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उभा) द्वौ। अत्र त्रिषु प्रयोगेषु सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (देवा) दिव्यगुणै (दिविस्पृशा) यौ प्रकाशयुक्त आकाशे यानानि स्पर्शयतस्तौ। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः (इन्द्रवायू) अग्निपवनौ (हवामहे) स्पर्द्धामहे। अत्र बहुलं छन्दसि इति सम्प्रसारणम्। (अस्य) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षस्य (सोमस्य) सूयन्ते पदार्था यस्मिन् जगति तस्य (पीतये) भोगाय॥२॥
    विषयः- अथ परस्परानुषङ्गिणावुपदिश्येते।।

     
    अन्वयः- वयमस्य सोमस्य पीतये दिविस्पृशा देवोभेन्द्रवायू हवामहे॥२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- योऽग्निर्वायुना प्रदीप्यते वायुरग्निना चेति परस्परमाकाङ्क्षितौ सहायकारिणौ स्तो मनुष्या युक्त्या सदैव सम्प्रयोज्य साधयित्वा पुष्कलानि सुखानि प्राप्नुवन्ति, तौ कुतो न जिज्ञासितव्यौ॥२॥

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    विषय

    इन्द्र और वायु का सोमपान [जितेन्द्रियता व क्रियाशीलता]

    पदार्थ

    १. (उभा देवा) - दोनों देवों (दिविस्पृशा) - प्रकाश में स्पर्श करनेवाले (इन्द्रवायू) - इन्द्र और वायु को (हवामहे) - हम पुकारते हैं , (अस्य सोमस्य पीतये) - इस सोम के पान के लिए । 

    २. इन्द्र देवता बल का प्रतीक है । उसका बल इस कारण है कि वह सब देवों का राजा है , सब इन्द्रियों पर शासन करनेवाला है । इन्द्र की मौलिक भावना जितेन्द्रियता की ही है । जितेन्द्रियता सोमपान के लिए अत्यन्त आवश्यक है । अजितेन्द्रियता का सोमरक्षण से क्या सम्बन्ध? 

    ३. 'वायु' - [वा गतिगन्धनयोः] गतिशीलता का प्रतीक है । निरन्तर गति से वह बुराई का गन्धन व संहार करता है । जो मनुष्य सदा क्रियामय जीवनवाला होता है उसमें ही वासनाओं के उत्पन्न होने की आशंका नहीं होती , परिणामतः वह अपने सोम की रक्षा कर पाता है । 

    ४. इस प्रकार इन्द्र और वायु मनुष्य को सोमपान के योग्य बनाते हैं । इस सोम के रक्षण से मनोवृत्तियाँ दिव्य बनती हैं , अतः ये 'इन्द्र और वायु देव' कहलाते हैं । सोम शरीर की अन्तर्वेदि - मस्तिष्क की ओर प्रस्थित हुआ - हुआ ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है और परिणामतः मनुष्य ज्ञान को स्पर्श करनेवाला होता है , अतः इन्द्र और वायु "दिवस्पृश्' है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम जितेन्द्रिय व क्रियाशील बनकर शरीर में सोम का रक्षण करें ताकि हमारी वृत्तियाँ दिव्य हों और हम ज्ञानदीप्त बनें । 

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    विषय

    सोम, जीवगण, वीरजन विद्वानों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (इन्द्रवायु) इन्द्र और वायु, अग्नि और पवन (सोमस्य पीतये) सुख के प्राप्त करने के लिए (दिवि-स्पृशा) आकाश में यानादि को ले जाते हैं, इसी प्रकार, अध्यात्म में ( अस्य सोमस्य पीतये ) इस परमैश्वर्यं के सुख को प्राप्त करने के लिए ( उभा देवा ) दिव्य गुण वाले ( इन्द्रवायू ) जीव और परमेश्वर दोनों ( दिविस्पृशा ) ज्ञान प्रकाश को प्राप्त करते हैं । उन दोनों की ( हवामहे ) हम स्तुति करते हैं। उनका ज्ञान करते हैं । इसी प्रकार राष्ट्र के पालन के लिए हम ऐश्वर्यवान् राजा और सेनापति दोनों को नियत करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १- २४ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—१ वायुः । २, ३ इन्द्रवायू । ४-६ मित्रावरुणौ । ७-९ इन्द्रो मरुत्वान् । १०-१२ विश्वे देवाः । १३-१५ पूषा १६-२२ आपः । २३-२४ अग्नः । छन्दः—१-१८ गायत्री । १९ पुर उष्णिक्। २० अनुष्टुप्। २१ प्रतिष्ठा । २२-२४ अनुष्टुभः ॥ चतुर्विशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो अग्नी व पवन आणि जो वायू व अग्नीने प्रकाशित होतो. हे दोन्ही परस्पर आकांक्षायुक्त साह्यकारी आहेत. ज्यांच्यामुळे सूर्य प्रकाशित होतो, माणसे ज्यांना युक्तीने नित्य क्रियाकौशल्याद्वारे संप्रयोगात आणतात, ज्यांना सिद्ध करण्याने माणसे सुख प्राप्त करतात, त्यांना जाणण्याची इच्छा का करू नये? ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    We invoke Indra and Vayu, divine powers of fire and wind which touch the skies, for the protection and promotion of soma, the beauty and joy of life in the world, which we have been able to create.

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    Subject of the mantra

    Now, in this mantra the substances combining with each others have been elucidated.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (vayam)=we, (asya=in this Perceptible or imperceptible world, (somasya) =in which the substances are produced, (pītaye)=to enjoy that, (divispṛśā)=One who transports aircraft etc. vehicles in the sky with light, [aura]=and, (devā)=having divine qualities, (ubhā)=both, (indravāyū)=fire and air are, using them properly, [aur]=and, (havāmahe)=accomplishing, we desire to move forward.

    English Translation (K.K.V.)

    We, in this perceptible or imperceptible world in which the substances are produced, to enjoy that, one who transports aircraft etc. vehicles in the sky with light and having divine qualities, both fire and air are using them properly and desire to move forward.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The fire which is ignited by the air, which both air and fire are mutual aids to each other, wishing for each other. Human beings get many pleasures by connecting with each other, always using it well and accomplishing it. Why shouldn't they wish to know?

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the co-operation and combination of the fire and wind is taught in the second Mantra-

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    We invoke both Indra and Vayu (fire and wind) which help the aero planes in touching the firmament for the joy of the objects of the world created by God.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्रवायू) अग्नि पवनौ = Fire and wind. (दिविस्पृशा ) यौ प्रकाशयुक्त आकाशे यानानि स्पर्शयतः ।। = Enabling the aero planes etc. to touch the sky. (सोमस्य ) सूयन्ते पदार्था यस्मिन् जगति तस्य । = of the world.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The fire is enkindled by the wind and the wind by the fire. They help each other co-operating in one another's function. Men can enjoy much happiness by utilizing them properly and methodically. Why should they not try to know their attributes well.?

    Translator's Notes

    In the above Mantra, Rishi Dayananda has taken the word Indra in the sense of Agni or fire, for which he has not cited any authority. But the following passages from the Shatapath Brahmans clearly corroborate his statement. एष एवेन्द्रः । यदाहवनीय: । (शतपथ० २.३.२.२) इन्द्रो ह्याहवनीयः ॥ (शतपथ० २.६.१.३८ ) In these passages, Indra has been interpreted standing for fire known as the Ahavaniya in which Yajnas are performed. In the Nirukta, Yaskacharya gives one of the etymological meanings of Indra as इन्धे भूतानि deriving the word इन्द्र from इन्धी-दीप्तौ So it is clear that the word Indra has been used in the Vedic Literature for fire also.

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