ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 33/ मन्त्र 12
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न्या॑विध्यदिली॒बिश॑स्य दृ॒ळ्हा वि शृ॒ङ्गिण॑मभिन॒च्छुष्ण॒मिन्द्रः॑ । याव॒त्तरो॑ मघव॒न्याव॒दोजो॒ वज्रे॑ण॒ शत्रु॑मवधीः पृत॒न्युम् ॥
स्वर सहित पद पाठनि । अ॒वि॒ध्य॒त् । इ॒ली॒बिश॑स्य । दृ॒ळ्हा । वि । शृ॒ङ्गिण॑म् । अ॒भि॒न॒त् । शुष्ण॑म् । इन्द्रः॑ । याव॑त् । तरः॑ । म॒घ॒ऽव॒न् । याव॑त् । ओजः॑ । वज्रे॑ण । शत्रु॑म् । अ॒व॒धीः॒ । पृ॒त॒न्युम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
न्याविध्यदिलीबिशस्य दृळ्हा वि शृङ्गिणमभिनच्छुष्णमिन्द्रः । यावत्तरो मघवन्यावदोजो वज्रेण शत्रुमवधीः पृतन्युम् ॥
स्वर रहित पद पाठनि । अविध्यत् । इलीबिशस्य । दृळ्हा । वि । शृङ्गिणम् । अभिनत् । शुष्णम् । इन्द्रः । यावत् । तरः । मघवन् । यावत् । ओजः । वज्रेण । शत्रुम् । अवधीः । पृतन्युम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 33; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(नि) निश्चितार्थे (अविध्यत्) विध्यति अत्र लडर्थे लङ्। (इलीविशस्य) इलायाः पृथिव्या विले गर्ते शेते तस्य वृत्रस्य। इलेति पृथिवीनामसु पठितम्। निघं० १।१। इदमभीष्टं पदं पृषोदरादिना सिध्यति। इलीविशस्य इलाविलशयस्य निरु० ६।१९। (दृळहा) दृढानि दृंहितानि वर्द्धितानि किरणशस्त्राणि (वि) विशेषार्थे (शृंगिणम्) शृंगवदुन्नतविद्युद्गर्जनाकारणघनीभूतं मेघं (अभिनत्) भिनत्ति। अत्र लडर्थे लङ्। (शुष्णम्) शोषणकर्त्तारम् (इन्द्रः) विद्युत् (यावत्) वक्ष्यमाणम् (तरः) तरति येन बलेन तत्। तर इति बलनामसु पठितम्। निघं० २।९। (मघवन्) महाधनप्रद महाधनयुक्त वा (यावत्) वक्ष्यमाणम् (ओजः) पराक्रमः (वज्रेण) छेदकेन वेगयुक्तेन तापेन (शत्रुम्) वृत्रमिव शत्रुम् (अवधीः) हिन्धि। अत्र लोडर्थे लुङ्। (पृतन्युम्) पृतनां सेनामिच्छतीव पृतन्यतीति पृतन्युस्तम्। #कव्यध्वरपृतनस्याच लोपः। अ० ७।४।३९। ॥१२॥ #[इत्यनेन पृतनाऽऽकारस्य लोपः।सं०]
अन्वयः
पुनरिन्द्रस्य कृत्यमुपदिश्यते।
पदार्थः
हे मघवन् वीरत्वं यथेन्द्रः स्तनयित्नुरिलीविशस्य वृत्रस्य संबंधीनि दृढा दृढानि घनादीनि व्यभिनत् भिनत्ति स्वस्य यावत्तरो यावदोजोस्ति तेन सह युजा वज्रेण शृंगिणं शुष्णं न्यविध्यन् निहंति पृतन्युं वृत्रमिव शत्रुमवधीर्हन्ति तथा शत्रुषु चेष्टस्य ॥१२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्युद् मेघावयवान् भित्त्वा जलं वर्षयित्वा सर्वान् सुखयति तथैव मनुष्यैः सुशिक्षितया सेनया दुष्टगुणान् दुष्टान्मनुष्याँश्चोपदेश्य प्रचंडदंडास्त्रशस्त्रवृष्टिभ्यां शत्रून्निवार्य प्रजायां सततं सुखानि वर्षणीयानीति ॥१२॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर अगले मन्त्र में इन्द्र के कृत्य का उपदेश किया है।
पदार्थ
हे (मघवन्) अत्यन्त धनदाता महाधन युक्त वीर ! आप जैसे (इन्द्रः) बिजुली आदि बलयुक्त सूर्यलोक (इलीविशस्य) पृथिवी से गढ़ों में सोनेवाले मेघ के संबन्धी (दृळहा) दृढरूप बद्दलादिकों को (अभिनत्) छिन्न-भिन्न करते और अपना (यावत्) जितना (तरः) बल और (यावत्) जितना (ओजः) पराक्रम है उससे युक्त हुए (वज्रेण) किरण समूह से (शृंगिणम्) सींगों के समान ऊंचे (शुष्णम्) ऊपर चढ़ते हुए पदार्थों को सुखानेवाले मेघ को (न्यविध्यत्) नष्ट और (पृतन्युम्) सेना की इच्छा करते हुए (शत्रुं) शत्रु के समान मेघ का (अवधीः) हनन करता है वैसे शत्रुओं में चेष्टा किया करें ॥१२॥
भावार्थ
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे बिजुली मेघ के अवयवों को भिन्न-२ और जल को वर्षा कर सबको सुखयुक्त करती है वैसे ही सब मनुष्यों को उचित है कि उत्तम-२ शिक्षायुक्त सेना से दुष्टगुणवाले दुष्ट मनुष्यों को उपदेश दे और शस्त्र अस्त्र वृष्टि से शत्रुओं को निवारण कर प्रजा में सुखों की वृष्टि निरन्तर किया करें ॥१२॥
विषय
फिर इस मन्त्र में इन्द्र के कृत्य का उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मघवन् वीर त्वं यथा इन्द्रः स्तनयित्नुः इलीविशस्य वृत्रस्य संबंधीनि दृढा दृढानि घनादीनि वि अभिनत् भिनत्ति स्वस्य यावत् त्तरः यावत् ओजः अस्ति तेन सह युजा वज्रेण शृंगिणं शुष्णं न्यविध्यन् नि हन्ति पृतन्युं वृत्रम् इव शत्रुम् अवधीः हन्ति तथा शत्रुषु चेष्टस्य ॥१२॥
पदार्थ
हे (मघवन्) महाधनप्रद महाधनयुक्त वा=अत्यन्त धनदाता महाधन युक्त, (वीर)=वीर! (त्वम्)=आप, (यथा)=जैसे, (इन्द्रः) विद्युत्- स्तनयित्नुः=बिजली, (इलीविशस्य) इलायाः पृथिव्या विले गर्ते शेते तस्य वृत्रस्य=पृथिवी के गड्ढों में सोनेवाले मेघ के सम्बन्धी, (दृढा) दृढानि=दृढरूप, (घनादीनि)=बादल आदि को, (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से, (अभिनत्) भिनत्ति=छिन्न-भिन्न करते, और, (स्वस्य)=अपना, (यावत्) वक्ष्यमाणम्=यहाँ वर्णित, (तरः) तरति येन बलेन=जिस बल से तैर जाता है और (यावत्)=जब तक, (ओजः) पराक्रमः=पराक्रम, (अस्ति)=है, {युजा=तेन+सह }=उसके साथ युक्त हुए (वज्रेण) छेदकेन वेगयुक्तेन तापेन=वेगयुक्त ताप से छिन्न-भिन्न करने वाले किरण समूह से, (शृंगिणम्) शृंगवदुन्नतविद्युद्गर्जनाकारणघनीभूतं मेघं=सींग जैसा बड़ा और विद्युत् गर्जना का कारण घना मेघ, (शुष्णम्) शोषणकर्त्तारम्=सुखाने का कार्य करने वाले, (नि) निश्चितार्थे=निश्चित रूप से, (अविध्यत्) विध्यति=छिन्न-भिन्न करता है, (नि) निश्चितार्थे=निश्चित रूप से (हन्ति)=मारता है अर्थात् छिन्न-भिन्न करता है, (पृतन्युम्) पृतनां सेनामिच्छतीव पृतन्यतीति पृतन्युस्तम्=सेना की इच्छा करते हुए, (वृत्रम्)=मेघ, (इव)=जैसा, (शत्रुम्) वृत्रमिव शत्रुम्=मेघ जैसे शत्रु को, (अवधीः) (हिन्धि) हन्ति=मारता है, (तथा)=वैसे ही, (शत्रुषु) वृत्रमिव शत्रुम्=मेघ जैसे शत्रु पर, (चेष्टस्व) प्रयास करो॥१२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे बिजली मेघ के अवयवों को भिन्न- भिन्न और जल को वर्षा कर सबको सुखयुक्त करती है वैसे ही सब मनुष्यों को उचित है कि उत्तम- उत्तम शिक्षायुक्त सेना से दुष्टगुणवाले दुष्ट मनुष्यों को उपदेश दे और शत्रुओं के निवारण के लिए उन पर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करते रहें और लोगों में निरन्तर रूप से खुशियाँ बरसाते रहें।॥१२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मघवन्) महाधन युक्त अत्यन्त धनदाता (वीर) वीर! (त्वम्) आप (यथा) जैसे (इन्द्रः) बिजली [और] (इलीविशस्य) पृथिवी के गड्ढों में सोनेवाले मेघ के सम्बन्धी (दृढा) दृढरूप (घनादीनि) बादल आदि को (वि) विशेष रूप से (अभिनत्) छिन्न-भिन्न करते हैं और (स्वस्य) अपना (यावत्) यहां वर्णित (तरः) जिस बल से तैर जाता है और (यावत्) जब तक (ओजः) पराक्रम (अस्ति) है, {युजा=तेन+सह } उसके साथ युक्त हुए (वज्रेण) वेगयुक्त ताप से छिन्न-भिन्न करने वाले किरण समूह से (शृंगिणम्) सींग जैसा बड़े और विद्युत् गर्जना के कारण घने मेघ को (शुष्णम्) सुखाने का कार्य करने वाले (नि) निश्चित रूप से (हन्ति) मारता है अर्थात् छिन्न-भिन्न करता है। (पृतन्युम्) सेना की इच्छा करते हुए (वृत्रम्) मेघ (इव) जैसे (शत्रुम्) शत्रु को (अवधीः) हन्ति मारता है, (तथा) वैसे ही (शत्रुषु) मेघ जैसे शत्रु पर [छिन्न-भिन्न करने का] (चेष्टस्व) प्रयास करो॥१२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (नि) निश्चितार्थे (अविध्यत्) विध्यति अत्र लडर्थे लङ्। (इलीविशस्य) इलायाः पृथिव्या विले गर्ते शेते तस्य वृत्रस्य। इलेति पृथिवीनामसु पठितम्। निघं० १।१। इदमभीष्टं पदं पृषोदरादिना सिध्यति। इलीविशस्य इलाविलशयस्य निरु० ६।१९। (दृळहा) दृढानि दृंहितानि वर्द्धितानि किरणशस्त्राणि (वि) विशेषार्थे (शृंगिणम्) शृंगवदुन्नतविद्युद्गर्जनाकारणघनीभूतं मेघं (अभिनत्) भिनत्ति। अत्र लडर्थे लङ्। (शुष्णम्) शोषणकर्त्तारम् (इन्द्रः) विद्युत् (यावत्) वक्ष्यमाणम् (तरः) तरति येन बलेन तत्। तर इति बलनामसु पठितम्। निघं० २।९। (मघवन्) महाधनप्रद महाधनयुक्त वा (यावत्) वक्ष्यमाणम् (ओजः) पराक्रमः (वज्रेण) छेदकेन वेगयुक्तेन तापेन (शत्रुम्) वृत्रमिव शत्रुम् (अवधीः) हिन्धि। अत्र लोडर्थे लुङ्। (पृतन्युम्) पृतनां सेनामिच्छतीव पृतन्यतीति पृतन्युस्तम्। #कव्यध्वरपृतनस्याच लोपः। अ० ७।४।३९। ॥१२॥ #[इत्यनेन पृतनाऽऽकारस्य लोपः।सं०]
विषयः- पुनरिन्द्रस्य कृत्यमुपदिश्यते।
अन्वयः- हे मघवन् वीरत्वं यथेन्द्रः स्तनयित्नुरिलीविशस्य वृत्रस्य संबंधीनि दृढा दृढानि घनादीनि व्यभिनत् भिनत्ति स्वस्य यावत्तरो यावदोजोऽस्ति तेन सह युजा वज्रेण शृंगिणं शुष्णं न्यविध्यन् निहंति पृतन्युं वृत्रमिव शत्रुमवधीर्हन्ति तथा शत्रुषु चेष्टस्य ॥१२॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्युद् मेघावयवान् भित्त्वा जलं वर्षयित्वा सर्वान् सुखयति तथैव मनुष्यैः सुशिक्षितया सेनया दुष्टगुणान् दुष्टान्मनुष्याँश्चोपदेश्य प्रचंडदंडास्त्रशस्त्रवृष्टिभ्यां शत्रून्निवार्य प्रजायां सततं सुखानि वर्षणीयानीति ॥१२॥
विषय
वृत्र व शुष्ण का नाश [अनालस्य व ओजस्विता]
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार 'स्व' का धारण करके (इन्द्रः) - ज्ञानेश्वर्य - सम्पन्न जीव (इलीबिशस्य) - [इला - बिल - शयस्य - यास्क] शरीररूप पृथिवी के हृदयरूप बिल में शयन करनेवाले इस मनसिज - कामवासना के (दृळहा) - प्रबल सैन्यों व दुर्गों को (न्यविध्यत्) - यह निश्चय से विद्ध करता है और इन्द्र इस (श्रृङ्गिणम्) - सींगोंवाले, अर्थात् भयंकर, नाशक अस्त्रोंवाले (शुष्णम्) - शोषक शत्रु को (वि अभिनत्) - विदीर्ण करता है । कामवासना से मनुष्य सूखता जाता है । यदि वासना अपूर्ण है तो विरहवेदना सुखाती है और पूर्ण हो जाए तो शक्ति का नाश सुखानेवाला हो जाता है; सो काम को यहाँ 'शुष्ण' कहा है । जब यह प्रबल होता है तो सचमुच सींगोंवाले पशु की भाँति भयंकर होता है । ज्ञानैश्वर्य - सम्पन्न बनकर प्रभुरूप मित्रवाला यह इन्द्र इस काम का नाश कर पाता है ।
२. हे (मघवन्) - ज्ञानैश्वर्यवाले जीव ! (यावत् तरः) - जितना तेरा वेग होगा (यावद् ओजः) - जितना तू ओजस्वी बनेगा, उतना ही तू इस (पृतन्युम्) - वासनाओं की सेना से आक्रमण करनेवाले (शवम्) - नाशक शत्रु को (वज्रेण) - क्रियाशीलतारूप वज्र से (अवधीः) - नष्ट करेगा । 'तरः' का उलटा आलस्य है, 'ओज' का उलटा निर्बलता है । आलस्य व निर्बलता में ही वासना अधिक सताती है । क्रियाशीलता व शक्ति वासना के शत्रु हैं । इनके होने पर वासना का विनाश हो जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम हृदय - गुहा में छिपे इस शोषक कामरूप शत्रु को अनालस्य व ओजस्विता से नष्ट करनेवाले हों ।
विषय
शुष्ण और इलीविश का रहस्य ।
भावार्थ
(इन्द्रः) जिस प्रकार सूर्य (इलीविशस्य) भूमि के गढ़े, ताल, सरोवर, समुद्रादि में विद्यमान जल के (दृढ़) घनी भूत जलों को (नि अविध्यत्) सब प्रकार से छिन्न भिन्न करता है और जिस प्रकार (इन्द्रः) सूर्य, वायु और विद्युत् (शुष्णम्) पृथिवी के जल को सोखने वाले (शृङ्गि-णम्) शिखरों वाले मेघ को (अभिनत् ) छिन्न भिन्न करता है इसी प्रकार हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन्! तू भी (इन्द्रः) भूमि के विजय करने में समर्थ होकर (इलीविशस्य) पृथिवी के भीतर दुर्ग बनाकर छुपने वाले (दृढ़ा) दृढ़ दुर्गों और उसके दृढ़ अंगों को (नि अविध्यत्) खूब बेध। और (शुष्णम्) प्रजा के समस्त सुख-ऐश्वर्यों को सोख लेने वाले रक्तशोषी अत्याचारी (शृङ्गिणम्) हिंसाकारी साधनों से युक्त पुरुष को (वि अभिनत्) विविध प्रकारों से छेद भेद डाल । और हे सेनापते! (यावत् तरः) तेरा जितना बल और (यावत् ओजः) जितना भी पराक्रम हो उस (वज्रेण) क्षात्र बल से तू (पृतन्युम् शत्रुम्) सेना द्वारा युद्ध करने वाले शत्रु को (अवधीः) मार, दण्डित कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ शेषाः त्रिष्टुभः । १४, १५ भुरिक् पंक्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी विद्युत मेघाच्या अवयवांना वेगवेगळे करून जलाचा वर्षाव करते आणि सर्वांना सुखी करते, तसेच सर्व माणसांनी प्रशिक्षित सेनेद्वारे दुष्ट गुणांच्या दुष्ट माणसांना उपदेश द्यावा व प्रचंड शस्त्र अस्त्र वृष्टीने शत्रूंचे निवारण करून प्रजेमध्ये निरन्तर सुखाची वृष्टी करावी. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as Indra, the sun, lord of light and power, breaks and scatters the dense cloud into rain water lying in the depressions of the earth such as lakes and oceans, and scatters and condenses the mountainous cloud in the sky which has sucked up the waters from the earth, similarly, O lord ruler of the earth’s wealth and glory, strike the underground enemy forces with thunder and destroy them. Don’t give up while your strength lasts and your lustre and morale sustains.
Subject of the mantra
Then again, Indra’s deeds have been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (maghavan) =wealthy, provider of huge money, (vīra)=valiant, (tvam)=you, (yathā)=as, (indraḥ)=thunderbolt,[aura]=and, (ilīviśasya)=akin of the cloud that sleeps in the pits of the earth, (dṛḍhā)=firm, (ghanādīni) =to clouds etc. (vi)=in aspecial way,(abhinat)=disintegrate, (svasya)=their, (yāvat)=described here, (taraḥ)=the force with which it floats, [aura]=and, (yāvat)=as long as, (ojaḥ)=courage, (asti)=is, {yujā=tena+saha }=joined with him, (vajreṇa)=from a group of rays disintegrating, having velocity and heat, (śṛṃgiṇam)=big horn like a dense cloud due to the thunder of lightning, (śuṣṇam)=drier, (ni)=definitely, (hanti)=kills, in other words pierces, (pṛtanyum)=desiring an army, (vṛtram)=cloud, (iva)=like,(śatrum)=to enemy, (avadhīḥ)=kills, (tathā)=similarly, (śatruṣu)=on an enemy like a cloud, [chinna-bhinna karane kā]=of disintegrating, (ceṣṭasva)=make effort.
English Translation (K.K.V.)
O very rich man with great wealth! Specially dissipate like you the strong clouds of lightning and clouds sleeping in the pits of the earth etc. and with the force described herein one floats and as long as there is might, the dissipating ray with the accompanying velocity and heat, like a horn big and electric roar, definitely kills those who work to dry the thick cloud, i.e. disintegrates. Like a cloud kills an enemy while desiring the army, in the same way, try to disintegrate an enemy like a cloud.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is vocal latent simile as a figurative in this mantra. Just as lightning separates the components of the cloud and makes everyone happy by raining water, similarly it is appropriate for all human beings to preach to the wicked men of evil virtues with a well-educated army, and keep showering of missile-weapons hand-weapons on enemies to troubleshoot them and shower happiness in the people regularly.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Again the function of Indra is taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O brave person, as Indra (sun) or lightning cuts into pieces the strong parts of Vritra (cloud) sleeping in the cavern of the earth, with all his light, with the thunderbolt of the rays, slays the horny ( mighty) cloud, in the same manner, you should also kill all those enemies who want to attack you with their armies.. You must behave like the sun and the lightning.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(इलीविशस्य) इलायाः पृथिव्या विलेगर्ते शेते तस्य वृत्रस्य इलेति पृथिवी नामसु पठितम् ( निघ० १.१ ) इदमभीष्टं पदं पृषोदरादिना सिद्धयति । इलीविशस्य-इला बिलशयस्य ( निरु० ६.१९ ) = Of the cloud sleeping in the caverns of the earth. (शृंगिणम ) शृंगवत् उन्नत विद्युद्गर्जना कारणघनीभूतं मेघम् = The cloud thundering and powerful like the horn. (शुष्णम्) शोषणकर्तारम् = Powerful.(इन्द्रः) विद्युत् = Lightning.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is वाचकलुप्तोपमालंकार or implied simile used in the Mantra. As the lightning gladdens all by striking the clouds and producing water, in the same manner, men should constantly shower or rain down all happiness on people, by teaching wicked persons or punishing them properly and by overcoming enemies by severe punishment and use of powerful weapons.
Translator's Notes
शुष्णम् इति बलनाम ( निघ० २.९) इलीविश इति पदनाम ( निघ० ४.३) पद- गतौ गतेस्त्रयोऽर्था:-ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च Taking the third meaning of प्र्प्ति it may mean that which causes happiness by raining on the earth. Hence it has been explained by Shri Yaskacharya in his famous Nirukta as ( इलाबिलशयस्य मेघस्य ) Of the cloud, sleeping in the caverns of the earth.
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