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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 33/ मन्त्र 9
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    परि॒ यदि॑न्द्र॒ रोद॑सी उ॒भे अबु॑भोजीर्महि॒ना वि॒श्वतः॑ सीम् । अम॑न्यमानाँ अ॒भि मन्य॑मानै॒र्निर्ब्र॒ह्मभि॑रधमो॒ दस्यु॑मिन्द्र ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । यत् । इ॒न्द्र॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ । अबु॑भोजीः । म॒हि॒ना । वि॒श्वतः॑ । सी॒म् । अम॑न्यमानान् । अ॒भि । मन्य॑मानैः । निः । ब्र॒ह्मऽभिः॑ । अ॒ध॒मः॒ । दस्यु॑म् । इ॒न्द्र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि यदिन्द्र रोदसी उभे अबुभोजीर्महिना विश्वतः सीम् । अमन्यमानाँ अभि मन्यमानैर्निर्ब्रह्मभिरधमो दस्युमिन्द्र ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । यत् । इन्द्र । रोदसी इति । उभे इति । अबुभोजीः । महिना । विश्वतः । सीम् । अमन्यमानान् । अभि । मन्यमानैः । निः । ब्रह्मभिः । अधमः । दस्युम् । इन्द्र॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 33; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (परि) सर्वतो भावे (यत्) यस्मात् (इन्द्र) ऐश्वर्ययोजक राजन् (रोदसी) भूमिप्रकाशौ (उभे) द्वे (अबुभोजीः) आकर्षणेन न्यायेन वा पालयसि पालयति वा। अत्र भुजपालनाभ्यवहारयोर्लडर्थे लङि सिपि बहुलं छन्दसि इति शपः स्थान आदिष्टस्य श्नमः स्थाने श्लुः श्लौ इति द्वित्वम् बहुलं छन्दसि इति इडागमश्च। (महिना) महिम्ना। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा यथेष्कर्त्तारमध्वर इति मलोपः। (विश्वतः) सर्वतः (सीम्) सुखप्राप्तिः। सीमिति पदनामसु पठितम्। निघं० ४।२। अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते। #सीमिति परिग्रहार्थीयः। निरु० १।७। (अमन्यमानान्) अज्ञानहठाग्रहयुक्तान् सूर्य्यप्रकाशनिरोधकान् मेघावयवान् वा (अभि) आभिमुख्ये (मन्यमानैः) विद्यार्जवयुक्तेर्दुराग्रहरहितैर्मनुष्यैर्ज्ञानसंपादकैः किरणैर्वा (निः) सातत्ये (ब्रह्मभिः) वेदैर्ब्रह्मविद्भिर्ब्राह्मणैर्वा। ब्रह्म हि ब्राह्मणः। शत० ५।१।१।११। (अधमः) शिक्षय अग्निना संयोजयति वा। लोडर्थे लडर्थे वा *लुट्। (दस्युम्) दुष्टकर्मणा सह वर्त्तमानं परद्रोहिणं परस्वहर्तारं चोरं शत्रुं वा (इन्द्र) राज्यैश्वर्ययुक्त सेनाध्यक्ष शूरवीर मनुष्य ॥९॥ #[‘त्व’ इति विनिग्रहार्थीयः’ इति वै० यं० मुद्रित निरुक्ते पाठः।सं०] *[लङ्। सं०]

    अन्वयः

    पुनरिन्द्रस्य कृत्यमुपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे इन्द्र त्वं यथेन्द्रः सूर्यलोको महिना महिम्नोभे रोदसी सीं विश्वतः पर्यबुभोजीः। मन्यमानैर्ब्रह्मभिर्ब्रहत्तमैः किरणैर्दस्युं वृत्रं मेघममन्यमान्मेघावयवान् घनान् यद्यस्मादभिनिरधमः। अभितो नितरां स्वतापाग्नियुक्तान् कृत्वा निवारयति तथा विश्वतो महिम्नासीमुभे रोदसी पर्यबुभोजीः सर्वतो भुग्धि। एवं च हे इन्द्र मम्यमानैर्ब्रह्मभिरमन्यमानान्मनुष्यान् दस्युं दुष्टपुरुषं चाभिनिरधम आभिमुख्यतया शिक्षय ॥९॥

    भावार्थः

    अत्रवाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यलोकः सर्वान्पृथिव्यादिमूर्त्तिमतो लोकान्प्रकाश्याकर्षणेन धृत्वा पालको भूत्वा वृत्ररात्र्यंधकारान्निवारयति तथैव हे मनुष्या भवन्तः सुशिक्षितैर्विद्वद्भिर्मूर्खाणां मूढतां निवार्य दुष्टशत्रून् शिक्षित्वा महद्राज्यसुखं नित्यं भुंजीरन्निति ॥९॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर अगले मन्त्र में इन्द्र के कृत्य का उपदेश किया है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्य्य का योग करनेवाले राजन् ! आपको योग्य है कि जैसे सूर्य्यलोक (महिना) अपनी महिमा से (उभे) दोनों (रोदसी) प्रकाश और भूमि को (सीम्) जीवों के सुख की प्राप्ति के लिये (विश्वतः) सब प्रकार आकर्षण से पालन करता और (मन्यमानैः) ज्ञानसंपादक (ब्रह्मभिः) बड़े आकर्षणादि बलयुक्त किरणों से (दस्युम्) मेघ और (अमन्यमानान्) सूर्य्यप्रकाश के रोकनेवाले मेघ के अवयवों को (निरधमः) चारों ओर से अपने तापरूप अग्नि करके निवारण करता है वैसे सब प्रकार अपनी महिमा से प्राणियों के सुख के लिये (उभे) दोनों (रोदसी) प्रकाश और पृथिवी का (पर्य्यबुभोजीः) भोग कीजिये इसी प्रकार हे (इन्द्र) राज्य के ऐश्वर्य्य से युक्त सेनाध्यक्ष शूरवीर पुरुष आप (मन्यमानैः) विद्या की नम्रता से युक्त हठ दुराग्रह रहित (ब्रह्मभिः) वेद के जाननेवाले विद्वानों से (अमन्यमानान्) अज्ञानी दुराग्रही मनुष्यों को (अभिनिरधमः) साक्षात्कार शिक्षा कराया कीजिये ॥९॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्यलोक सब पृथिव्यादि मूर्त्तिमान् लोकों का प्रकाश आकर्षण से धारण और पालन करनेवाला होकर मेघ और रात्रि के अन्धकार को निवारण करता है वैसे ही हे मनुष्यो आप लोग उत्तम शिक्षित विद्वानों से मूर्खों को मूढ़ेता छुड़ा और दुष्ट शत्रुओं को शिक्षा देकर बड़े राज्य के सुख का भोग नित्य कीजिये ॥९॥

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    विषय

    फिर इस मन्त्र में इन्द्र के कृत्य का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे इन्द्र त्वं यथा इन्द्रः सूर्यलोकः महिना महिम्नः उभे रोदसी सीं विश्वतः पर्रि अबुभोजीः मन्यमानैः ब्रह्मभिः बृहत्तमैः किरणैः दस्युं वृत्रं मेघम् अमन्यमानान् मेघावयवान् घनान् यत् यस्मात् अभि नि अधमः अभितः नितरां स्वतापा अग्नियुक्तान् कृत्वा निवारयति तथा विश्वतः महिम्ना सीमा उभे रोदसी परि अबुभोजीः सर्वतः भुग्धि। एवं च हे इन्द्र मम्यमानैः ब्रह्मभिः अमन्यमानान् मनुष्यान् दस्युं दुष्टपुरुषं च अभि निरधम आभिमुख्यतया शिक्षय ॥९॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्य्ययोजक राजन्=ऐश्वर्य्य का प्रबन्ध करनेवाले राजन् ! (त्वम्)=आप, (यथा)=जैसे, (सूर्यलोकः)= सूर्यलोक की,  (महिना) महिम्ना=महिमा से, (उभे) द्वे=दोनों, (रोदसी) भूमिप्रकाशौ=प्रकाश और भूमि की, (सीम्)=सीमा के, (विश्वतः)=हर ओर से (अबुभोजीः) आकर्षणेन न्यायेन वा पालयसि पालयति वा=आकर्षण या सही तरीके से पालन करता है और (मन्यमानैः) विद्यार्जवयुक्तेर्दुराग्रहरहितैर्मनुष्यैर्ज्ञानसंपादकैः किरणैर्वा=विद्या, सत्यता,  दुराग्रह रहित ज्ञान के संपादक मनुष्य या किरणों के द्वारा, (ब्रह्मभिः) वेदैर्ब्रह्मविद्भिर्ब्राह्मणैर्वा वेदैः=वेद के ब्रह्म विद्या के विद्वानों या ब्राह्मणों के द्वारा, (अमन्यमानान्) अज्ञानहठाग्रहयुक्तान् सूर्य्यप्रकाशनिरोधकान् मेघावयवान् वा=अज्ञानी, हठी और आग्रह युक्तों के  द्वारा  सूर्य्य के प्रकाश के निरोध करने वालों के अथवा मेघों के अवयवों के  द्वारा,  (मनुष्यान्)=मनुष्यों का, (च)=और,  (दस्युम्) दुष्टपुरुषम्=दुष्ट पुरुषों का, (अभि) आभिमुख्येमुख्यतया=सामने से मुख्य रूप से,  (निः) सातत्ये=निरन्तरता से,  (अधमः) शिक्षय अग्निना संयोजयति वा=शिक्षित कीजिये अथवा अग्नि से संयोजित कीजिये  ॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्यलोक सब पृथिव्यादि मूर्त्तिमान् लोकों का प्रकाश आकर्षण से धारण और पालन करनेवाला होकर मेघ और रात्रि के अन्धकार को निवारण करता है वैसे ही हे मनुष्यो आप लोग उत्तम शिक्षित विद्वानों से मूर्खों को मूढ़ता छुड़ा और दुष्ट शत्रुओं को शिक्षा देकर बड़े राज्य के सुख का भोग नित्य कीजिये ॥९॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे   (इन्द्र) ऐश्वर्य्य का प्रबन्ध करनेवाले राजन् ! (त्वम्) आप (यथा) जैसे (सूर्यलोकः) सूर्यलोक की  (महिना) महिमा से (रोदसी) प्रकाश और भूमि (उभे) दोनों की (सीम्) सीमा के (विश्वतः) हर ओर से (अबुभोजीः) आकर्षण या सही तरीके से पालन करते हो और (मन्यमानैः) विद्या, सत्यता,  दुराग्रह रहित ज्ञान के संपादक मनुष्य या किरणों के द्वारा, (ब्रह्मभिः) वेद के ब्रह्म विद्या के विद्वानों या ब्राह्मणों के द्वारा [और]  (अमन्यमानान्) अज्ञानी, हठी और आग्रह युक्तों के  द्वारा  सूर्य्य के प्रकाश के निरोध करने वालों के अथवा मेघों के अवयवों के  द्वारा  (मनुष्यान्) मनुष्यों को (च) और  (दस्युम्) दुष्ट पुरुषों को (अभि) सामने से मुख्य रूप से  (निः) निरन्तरता से  (अधमः) शिक्षित कीजिये अथवा अग्नि से संयोजित कीजिये  ॥९॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (परि) सर्वतो भावे (यत्) यस्मात् (इन्द्र) ऐश्वर्ययोजक राजन् (रोदसी) भूमिप्रकाशौ (उभे) द्वे (अबुभोजीः) आकर्षणेन न्यायेन वा पालयसि पालयति वा। अत्र भुजपालनाभ्यवहारयोर्लडर्थे लङि सिपि बहुलं छन्दसि इति शपः स्थान आदिष्टस्य श्नमः स्थाने श्लुः श्लौ इति द्वित्वम् बहुलं छन्दसि इति इडागमश्च। (महिना) महिम्ना। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा यथेष्कर्त्तारमध्वर इति मलोपः। (विश्वतः) सर्वतः (सीम्) सुखप्राप्तिः। सीमिति पदनामसु पठितम्। निघं० ४।२। अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते। #सीमिति परिग्रहार्थीयः। निरु० १।७। (अमन्यमानान्) अज्ञानहठाग्रहयुक्तान् सूर्य्यप्रकाशनिरोधकान् मेघावयवान् वा (अभि) आभिमुख्ये (मन्यमानैः) विद्यार्जवयुक्तेर्दुराग्रहरहितैर्मनुष्यैर्ज्ञानसंपादकैः किरणैर्वा (निः) सातत्ये (ब्रह्मभिः) वेदैर्ब्रह्मविद्भिर्ब्राह्मणैर्वा। ब्रह्म हि ब्राह्मणः। शत० ५।१।१।११। (अधमः) शिक्षय अग्निना संयोजयति वा। लोडर्थे लडर्थे वा *लुट्। (दस्युम्) दुष्टकर्मणा सह वर्त्तमानं परद्रोहिणं परस्वहर्तारं चोरं शत्रुं वा (इन्द्र) राज्यैश्वर्ययुक्त सेनाध्यक्ष शूरवीर मनुष्य ॥९॥ #['त्व' इति विनिग्रहार्थीयः' इति वै० यं० मुद्रित निरुक्ते पाठः।सं०] *[लङ्। सं०]
    विषयः- पुनरिन्द्रस्य कृत्यमुपदिश्यते।

    अन्वयः- हे इन्द्र त्वं यथेन्द्रः सूर्यलोको महिना महिम्नोभे रोदसी सीं विश्वतः पर्यबुभोजीः। मन्यमानैर्ब्रह्मभिर्ब्रहत्तमैः किरणैर्दस्युं वृत्रं मेघममन्यमान्मेघावयवान् घनान् यद्यस्मादभिनिरधमः। अभितो नितरां स्वतापाग्नियुक्तान् कृत्वा निवारयति तथा विश्वतो महिम्नासीमुभे रोदसी पर्यबुभोजीः सर्वतो भुग्धि। एवं च हे इन्द्र मम्यमानैर्ब्रह्मभिरमन्यमानान्मनुष्यान् दस्युं दुष्टपुरुषं चाभिनिरधम आभिमुख्यतया शिक्षय ॥९॥

     भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रवाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यलोकः सर्वान्पृथिव्यादिमूर्त्तिमतो लोकान्प्रकाश्याकर्षणेन धृत्वा पालको भूत्वा वृत्ररात्र्यंधकारान्निवारयति तथैव हे मनुष्या भवन्तः सुशिक्षितैर्विद्वद्भिर्मूर्खाणां मूढतां निवार्य दुष्टशत्रून् शिक्षित्वा महद्राज्यसुखं नित्यं भुंजीरन्निति ॥९॥

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    विषय

    दोनों का पालन व दस्युदहन

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) - इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव ! (यत्) - जब तू (उभे रोदसी) - दोनों द्युलोक व पृथिवीलोक को, अर्थात् मस्तिष्क व शरीर को (परि अबुभोजीः) - सब प्रकार से पालित करता है, अर्थात् जब तू अपने शरीर को स्वस्थ व मस्तिष्क को उज्ज्वल बनाता है तब (महिना) प्रभुपूजन के द्वारा [मह पूजायाम्] (विश्वतः) - सब ओर से (सीम्) - [सीम् इति परिग्रहार्थीयः] शक्ति व ज्ञान का ग्रहण करके (अमन्यमानान्) - ज्ञानशून्य पुरुषों को (मन्यमानैः) - प्रभु का ज्ञान देनेवाले (ब्रह्मभिः) - ज्ञानप्रद मन्त्रों से (अभि अधमः) - [ध्मा शब्दे] प्रकृति व आत्मतत्त्व दोनों का ज्ञान देता है । ज्ञान का प्रचार वही कर सकता है जो उज्ज्वल मस्तिष्क व स्वस्थ शरीरवाला हो । यह अज्ञानियों को ज्ञानप्रद मन्त्रों से प्रकृति व आत्मा दोनों का ज्ञान देने का प्रयत्न करता है [अभि] । यह ज्ञान का प्रचार अभ्युदय व निःश्रेयस दोनों का लक्ष्य करके करता है । 
    २. हे (इन्द्र) - जीवात्मन् ! तू इन्हीं, ज्ञानप्रद मन्त्रों से (दस्युम्) - दास्यव भावनाओं को, नाशक वृत्तियों को (निरधमः) - [ध्मा अग्निसंयोगे] निश्चय से भस्म करनेवाला होता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - इन्द्र वह है जो - 
    [क] मस्तिष्क व शरीर दोनों का पालन करता है, 
    [ख] अज्ञानियों के लिए ज्ञान की वाणियों से आत्मा व प्रकृति दोनों का प्रकाश करता है, 
    [ग] ज्ञान की वाणियों से ही अपनी दास्यव भावनाओं को भस्म करता है । 
     

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    विषय

    वीर योद्धा का शत्रु विजय, सेनापति ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) सूर्य के समान तेजस्विन्! राष्ट्र पालक राजन् ! जिस प्रकार सूर्य (उभे रोदसी) प्रकाश और पृथिवी, या आकाश और पृथिवी दोनों का अपने महान् सामर्थ्य से भोग या पालन करता है उसी प्रकार जब तू (महिना) अपने महान् सामर्थ्य से (उभे रोदसी) दोनों राजा और प्रजा वर्गों को (विश्वतः) सब प्रकार से (सीम्) सुखपूर्वक (अबुभोजीः) भोगता और पालता है तब हे (इन्द्र) विद्वन्, ऐश्वर्य वाले शत्रुहन्तः ! तू (अमन्यमानान्) ज्ञानरहित पुरुषों को (मन्यमानैः) ज्ञान करने वाले विद्वान् (ब्रह्मभिः) वेदों और वेदज्ञ ब्राह्मणों द्वारा (अभि अधमः) सब प्रकार से उपदेश कर। और (दस्युम्) प्रजा के नाशकारी दुष्ट पुरुष को (ब्रह्मभिः) अपने बड़े शस्त्रों से (निर् अधमः) नीचे गिरा कर भस्म कर डाल ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ शेषाः त्रिष्टुभः । १४, १५ भुरिक् पंक्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य सर्व पृथ्वी इत्यादी मूर्तिमान गोलांचे आकर्षण, प्रकाश व धारण करून, पालन करून मेघ व रात्र यांचे निवारण करतो. तसेच हे माणसांनो! तुम्ही उत्तम शिक्षित विद्वानांकडून मूर्खांचे मूढत्व नाहीसे करून दुष्ट शत्रूंना शिक्षण देऊन नित्य महान राज्याचे सुख भोगा. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as Indra, the sun, with its own power and glory, holds both earth and heaven in orbit all round in a state of equilibrium by the force of its gravitation and throws off the unwanted forces by its own laudable forces of heat and light, so you, Indra, lord ruler of the earth, with your power and glory, hold and sustain the earth and the people and, with the assistance of responsible and respectable people of knowledge and divine wisdom, control and correct the unruly elements, and throw off the selfish and the wicked.

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    Subject of the mantra

    Then again, Indra’s deeds have been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra) =King who manages the opulence, (tvam)=you, (yathā)=like, (sūryalokaḥ)=of the Sun world, (mahinā)=by grace, (rodasī)=light and earth, (ubhe)=of both, (sīm)=of boundary, (viśvataḥ)=from all sides, (abubhojīḥ) =adheres by attraction or the right way, [aura]=and, (manyamānaiḥ)=executing with Knowledge, truthfulness, of knowledge without prejudice through man or through rays, (brahmabhiḥ)=by the Vedas, by the scholars of theology or by brahmins, [aura]=and, (amanyamānān)=by those who block the light of the sun by the ignorant, stubborn and insistent, or by the components of the clouds, (manuṣyān)=to humans, (ca)=and, (dasyum)=to wicked persons, (abhi)=mainly from the front, (niḥ)=continuously, (adhamaḥ =educate or combine with fire.

    English Translation (K.K.V.)

    O King who manages wealth! Like you from the glory of the Sun world, from every side of the boundary of both light and earth, allure or follow the right way; and by humans or rays, executing with knowledge, truthfulness, unbiased knowledge, by Brahmins, that is scholars of learning of God through Vedas and by ignorant, obstinate and insistent people, by those who block the light of the Sun or by the components of the clouds. Educate the evil men, mainly from the front continuously or connect with fire.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In this mantra, there is a figure of speech called as- ‘Vachkaluptopalankar (latent vocal simile as a figurative). “As Sun-world, being the one who holds and obeys concrete worlds. As the light of all the embodied Sun-world and earth removes the clouds and the darkness of the night, similarly, O human beings! Get rid of the fools of infatuation by the best educated scholars and enjoy the happiness of a big kingdom by giving education to the wicked enemies. Do it regularly.”

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of Indra are further taught-

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As the sun enjoys or surpasses both heaven and earth, investing the universe with his magnitude destroys with his grand rays the clouds that try to veil his light, in the same manner, O Commander of the army, you who shine in both worlds on account of your glory and enjoy them properly, should dispel the ignorance of those wicked thieves or robbers who are ignorant and prejudiced, with the help of those wise men who are endowed with wisdom and straight forwardness, being free from prejudice or partiality.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( सीम् ) सुखप्राप्तिः । सीमिति पदनामसु पठितम् (निघ० ४. २) अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते । सीमिति परिग्रहार्थीय: (निरुक्ते १.७) = Enjoyment of happiness on all sides. (अमन्यमानान्) अज्ञानहठाग्रहयुक्तान् सूर्यप्रकाशनिरोध कान् मेघावयवान् । (1) Persons full of ignorance and prejudice.(2) The clouds that cover the light of the sun. ( मन्यमानैः ) विद्यार्जवयुक्तैः, दुराग्रहरहितैः मनुष्यैः ज्ञान सम्पादकैः किरणैर्वा । (1) With those persons who are endowed with wisdom and straight forwardness, being free from prejudice (2) With the rays that illuminate all objects. ( ब्रह्मभिः) वेदैः, ब्रह्मविद्भिर्ब्राह्मणैर्वा = With the Vedas, or the Brahmanans i. e. the knowers of the Vedas. ब्रह्म हि ब्राह्मणः (शतपथ० ५.१.१.११ ) ( दस्युम्) दुष्टकर्मणा सह वर्तमानं परद्रोहिणं परस्वहर्तारं चोरं शत्रुं वा । = Wicked persons or enemies who take away other's property and bear malice toward others.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the solar world illuminates the earth and other worlds and upholds them by its power of gravitation, dispelling the darkness of the clouds and the night, in the same manner, O men, you should enjoy the happiness of vast and good Government with the help of the Vedas, and the highly educated persons removing the ignorance of the foolish and teaching good lessons to your opponents.

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