ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 33/ मन्त्र 14
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
आवः॒ कुत्स॑मिन्द्र॒ यस्मि॑ञ्चा॒कन्प्रावो॒ युध्य॑न्तं वृष॒भं दश॑द्युम् । श॒फच्यु॑तो रे॒णुर्न॑क्षत॒ द्यामुच्छ्वै॑त्रे॒यो नृ॒षाह्या॑य तस्थौ ॥
स्वर सहित पद पाठआवः॑ । कुत्स॑म् । इ॒न्द्र॒ । यस्मि॑न् । चा॒कन् । प्र । आ॒वः॒ । युध्य॑न्तम् । वृ॒ष॒भम् । दश॑ऽद्युम् । श॒फऽच्यु॑तः । रे॒णुः । न॒क्ष॒त॒ । द्याम् । उत् । श्वै॒त्रे॒यः । नृ॒ऽसह्या॑य । त॒स्थौ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आवः कुत्समिन्द्र यस्मिञ्चाकन्प्रावो युध्यन्तं वृषभं दशद्युम् । शफच्युतो रेणुर्नक्षत द्यामुच्छ्वैत्रेयो नृषाह्याय तस्थौ ॥
स्वर रहित पद पाठआवः । कुत्सम् । इन्द्र । यस्मिन् । चाकन् । प्र । आवः । युध्यन्तम् । वृषभम् । दशद्युम् । शफच्युतः । रेणुः । नक्षत । द्याम् । उत् । श्वैत्रेयः । नृसह्याय । तस्थौ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 33; मन्त्र » 14
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(आवः) रक्षेत्। अत्र लिङर्थे लङ्#। (कुत्सम्) वज्रम्। कुत्स इति वज्रनामसु पठितम्। निघं० २।२०। सायणाचार्येणात्र भ्रांत्या कुत्सगोत्रोत्पन्नऋषिर्गृहीतोऽसंभवादिदं व्याख्यानमयुद्धम् (इन्द्र) सुशील सभाध्यक्ष (यस्मिन्) युद्धे (चाकन्) चंकन्यते काम्यत इति चाकन्। कनी दीप्तिकांतिगतिषु। इत्यस्य यङ्लुगन्तस्य क्विवन्तं रूपम्। वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नुगभावः। दीर्घोऽ*कित इत्यभ्यासस्य दीर्घत्वं च। सायणाचार्येणेदं भ्रमतो मित्संज्ञकस्य ण्यन्तस्य च कनीधातो रूपमशुद्धं व्याख्यातम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (आवः) प्राणिनः सुखे प्रवेशयेत्। अत्र लिङर्थे लङ्। (युध्यन्तम्) युद्धेप्रवर्त्तमानम् (वृषभम्) प्रबलं (दशद्युम्) दशसु दिक्षु द्योतते तम् (शफच्युतः) शफेषु गवादिखुरचिन्हेषु च्युतः पतित आसिक्तो यः सः (रेणुः) धूलिः (नक्षत) प्राप्नोति। अत्र अडभावो व्यत्ययेनात्मनेपदम्। णक्षगताविति प्राप्त्यर्थस्य रूपम् (द्याम्) प्रकाशसमूहं द्युलोकम् (उत्) उत्कृष्टार्थे (श्वैत्रेयः) श्वित्राया आवर्णकर्त्र्या भूमेरपत्यं श्वैत्रेयः (नृसाह्याय) नॄणां सहायाय। अत्रान्येषामपि इति दीर्घः। (तस्थौ) तिष्ठेत्। अत्र लिङर्थे लिट् ॥१४॥ #[लुङ्।सं०] *[अ० ७।४।८३।]
अन्वयः
पुनरिन्द्रकृत्यमुपदिश्यते।
पदार्थः
हे इन्द्र भवता यथा सूर्यलोको यस्मिन् युद्धे युध्यन्तं वृषभं दशद्युं वृत्रं प्रति कुत्सं वज्रं प्रहृत्य जगत्प्रावः श्वैत्रेयो मेघः शफच्युतो रेणुश्च द्यां नक्षत प्राप्नोति नृषाह्याय चाकन्नुत्तस्थौ सुखान्यावऽप्रापयति तथा ससभेन राज्ञा प्रयतितव्यम् ॥१४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यः स्वकिरणैर्वृत्रं भूमौ निपात्य सर्वान्प्राणिनः सुखयति तथा हे सेनाध्यक्ष त्वमपि सेनाशिक्षाशस्त्रबलेन शत्रून्नस्तव्यस्तान्नधो निपात्य सततं प्रजा रक्षेति ॥१४॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर अगले मन्त्र में इन्द्र के कृत्य का उपदेश किया है।
पदार्थ
हे इन्द्र सभापते ! जैसे सूर्यलोक (यस्मिन्) जिस युद्ध में (युध्यन्तम्) युद्ध करते हुए (वृषभम्) वृष्टि के करानेवाले (दशद्युम्) दशदिशाओं में प्रकाशमान मेघ के प्रति (कुत्सम्) वज्रमार के जगत् की (प्रावः) रक्षा करता है और (श्वैत्रेयः) भूमि का पुत्र मेघ (शफच्युतः) गौ आदि पशुओं के खुरों के चिन्हों में गिरी हुई (रेणुः) धूलि (द्याम्) प्रकाश युक्त लोक को (नक्षत) प्राप्त होती है उसको (नृसाह्याय) मनुष्यों के लिये (चाकन्) वह कान्तिवाला (उत्तस्थौ) उठता और सुखों को देता है वैसे सभा सहित आपको प्रजा के पालन में यत्न करना चाहिये ॥१४॥
भावार्थ
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्यलोक अपनी किरणों से पृथिवी में मेघ को गिराकर सब प्राणियों को सुखयुक्त करता है वैसे ही हे सभाध्यक्ष तूं भी सेना शिक्षा और शस्त्र बल से शत्रुओं को अस्त व्यस्त कर नीचे गिरा के प्रजा की रक्षा निरन्तर किया कर ॥१४॥
विषय
फिर इस मन्त्र में इन्द्र के कृत्य का उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे इन्द्र भवता यथा सूर्यलोकः यस्मिन् युद्धे युध्यन्तं वृषभं दशद्युं वृत्रं प्रति कुत्सं वज्रं प्रहृत्य जगत् प्रावः श्वैत्रेयः मेघः शफच्युतः रेणुः च द्यां नक्षत प्राप्नोति नृषाह्याय चाकन् उत् तस्थौ सुखानि आवः प्रापयति तथा ससभेन राज्ञा प्रयतितव्यम् ॥१४॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सुशील सभाध्यक्ष=सुशील सभाध्यक्ष इन्द्र! (भवता)=आप के द्वारा, (यथा)=जैसे, (सूर्यलोकः)=सूर्यलोक के, (यस्मिन्)=जिस, (युद्धे)=युद्ध में, (युध्यन्तम्) युद्धेप्रवर्त्तमानम्=युद्ध करते हुए, (वृषभम्) प्रबलं=प्रबल, (दशद्युम्) दशसु दिक्षु द्योतते तम्=दशदिशाओं में प्रकाशमान, (वृत्रम्)=मेघ की, (प्रति)=ओर, (कुत्सम्) (वज्रम्)=वज्र का (प्रहृत्य)=प्रहार करके, (जगत्)=जगत् की, (प्र) प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्ट रूप से, (आवः) रक्षेत्=रक्षा करे, (श्वैत्रेयः) श्वित्राया आवर्णकर्त्र्या भूमेरपत्यं श्वैत्रेयः= श्वेत रंग के आवरण रूपी भूमि का पुत्र (मेघः)=मेघ, (शफच्युतः) शफेषु गवादिखुरचिन्हेषु च्युतः पतित आसिक्तो यः सः=गौ आदि पशुओं के खुरों के चिन्हों में गिरी हुई जो वह, (रेणुः) धूलिः=धूल, (च)=भी, (द्याम्) प्रकाशसमूहं द्युलोकम्=प्रकाश युक्त लोक को (नक्षत) प्राप्नोति=प्राप्त होती है, (नृसाह्याय) नॄणां सहायाय=मनुष्यों की सहायता के लिये, (चाकन्) चंकन्यते काम्यत इति चाकन्=इच्छा वाला, (उत्) उत्कृष्टार्थे=उत्कृष्ट, (तस्थौ) तिष्ठेत्=स्थित रहे, (सुखानि)=सुखों को, (आवः) प्राणिनः सुखे प्रवेशयेत्=प्राणियों के सुख के लिये, (प्रापयति)=प्राप्त कराता है, (तथा)=वैसे ही, (ससभेन)=सभा सहित, (राज्ञा)=राजा को, (प्रयतितव्यम्)=प्रयास करना चाहिये ॥१४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्यलोक अपनी किरणों से पृथिवी में मेघ को गिराकर सब प्राणियों को सुखयुक्त करता है वैसे ही हे सभाध्यक्ष तूं भी सेना शिक्षा और शस्त्र बल से शत्रुओं को अस्त व्यस्त कर नीचे गिरा के प्रजा की रक्षा निरन्तर किया कर ॥१४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (इन्द्र) सुशील सभाध्यक्ष ! (भवता) आप के द्वारा (यथा) जैसे (सूर्यलोकः) सूर्यलोक के (यस्मिन्) जिस (युद्धे) युद्ध में (युध्यन्तम्) युद्ध करते हुए (वृषभम्) प्रबल (दशद्युम्) दश दिशाओं में प्रकाशमान (वृत्रम्) मेघ की (प्रति) ओर (कुत्सम्) वज्र का (प्रहृत्य) प्रहार करके (जगत्) जगत् की (प्र) प्रकृष्ट रूप से (आवः) रक्षा की जाती है। (श्वैत्रेयः) श्वेत रंग का आवरण रूपी, भूमि का पुत्र (मेघः) मेघ (शफच्युतः) गौ आदि पशुओं के खुरों के चिन्हों में गिरी हुई जो वह (रेणुः) धूल (च) भी (द्याम्) प्रकाश युक्त लोक को (नक्षत) प्राप्त होती है। (नृसाह्याय) मनुष्यों की सहायता की (चाकन्) इच्छा वाला (उत्) उत्कृष्ट (तस्थौ) [उस स्थान में] स्थित रहते हुए (सुखानि) सुखी (आवः) प्राणियों के सुख के लिये (प्रापयति) प्राप्त कराता है, (तथा) वैसे ही (ससभेन) सभा सहित (राज्ञा) राजा को (प्रयतितव्यम्) प्रयास करना चाहिये ॥१४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आवः) रक्षेत्। अत्र लिङर्थे लङ्#। (कुत्सम्) वज्रम्। कुत्स इति वज्रनामसु पठितम्। निघं० २।२०। सायणाचार्येणात्र भ्रांत्या कुत्सगोत्रोत्पन्नऋषिर्गृहीतोऽसंभवादिदं व्याख्यानमयुद्धम् (इन्द्र) सुशील सभाध्यक्ष (यस्मिन्) युद्धे (चाकन्) चंकन्यते काम्यत इति चाकन्। कनी दीप्तिकांतिगतिषु। इत्यस्य यङ्लुगन्तस्य क्विवन्तं रूपम्। वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नुगभावः। दीर्घोऽ*कित इत्यभ्यासस्य दीर्घत्वं च। सायणाचार्येणेदं भ्रमतो मित्संज्ञकस्य ण्यन्तस्य च कनीधातो रूपमशुद्धं व्याख्यातम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (आवः) प्राणिनः सुखे प्रवेशयेत्। अत्र लिङर्थे लङ्। (युध्यन्तम्) युद्धेप्रवर्त्तमानम् (वृषभम्) प्रबलं (दशद्युम्) दशसु दिक्षु द्योतते तम् (शफच्युतः) शफेषु गवादिखुरचिन्हेषु च्युतः पतित आसिक्तो यः सः (रेणुः) धूलिः (नक्षत) प्राप्नोति। अत्र अडभावो व्यत्ययेनात्मनेपदम्। णक्षगताविति प्राप्त्यर्थस्य रूपम् (द्याम्) प्रकाशसमूहं द्युलोकम् (उत्) उत्कृष्टार्थे (श्वैत्रेयः) श्वित्राया आवर्णकर्त्र्या भूमेरपत्यं श्वैत्रेयः (नृसाह्याय) नॄणां सहायाय। अत्रान्येषामपि इति दीर्घः। (तस्थौ) तिष्ठेत्। अत्र लिङर्थे लिट् ॥१४॥ #[लुङ्।सं०] *[अ० ७।४।८३।]
विषयः- पुनरिन्द्रकृत्यमुपदिश्यते।
अन्वयः- हे इन्द्र भवता यथा सूर्यलोको यस्मिन् युद्धे युध्यन्तं वृषभं दशद्युं वृत्रं प्रति कुत्सं वज्रं प्रहृत्य जगत्प्रावः श्वैत्रेयो मेघः शफच्युतो रेणुश्च द्यां नक्षत प्राप्नोति नृषाह्याय चाकन्नुत्तस्थौ सुखान्यावऽप्रापयति तथा ससभेन राज्ञा प्रयतितव्यम् ॥१४॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यः स्वकिरणैर्वृत्रं भूमौ निपात्य सर्वान्प्राणिनः सुखयति तथा हे सेनाध्यक्ष त्वमपि सेनाशिक्षाशस्त्रबलेन शत्रून्नस्तव्यस्तान्नधो निपात्य सततं प्रजा रक्षेति ॥१४॥
विषय
कुत्स व दशा का रक्षण
पदार्थ
१. (इन्द्र) - हमारे सब वासनारूप शत्रुओं का नाश करनेवाले प्रभो ! आप (कुत्सम्) - [कुथ हिंसायाम्] सब बुराइयों का संहार करनेवाले जीव को (आवः) - सुरक्षित करते हो, उस कुत्स को (यस्मिन्) - जिसमें कि (चाकन्) - हम कामयमान, अर्थात् प्रेमवाले होते हैं ।
२. आप (युध्यन्तम्) - वासनाओं से निरन्तर युद्ध करनेवाले (वृषभम्) - श्रेष्ठ व शक्तिशाली (दशद्युम्) - दसों दिशाओं में दीप्त होनेवाले, सर्वत्र ज्ञान दीप्तिवाले को (प्रावः) - प्रकर्षेण रक्षित करते हो । जब एक व्यक्ति वासनाओं से निरन्तर संघर्ष करता है तब उसके मल नष्ट होकर सब इन्द्रियाँ दीप्त हो उठती हैं । यह दशद्यु (शफच्युतः) - [श फणति गच्छति इति शफः , च्योतते इति च्युतः] शान्ति को प्राप्त होनेवाला तथा मल को क्षरित करके निर्मल होनेवाला होता है । (रेणुः) - [री गतौ] निरन्तर गतिशील होता है और (द्याम् नक्षत) - ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करता है ।
४. (श्वैत्रेयः) - श्वित्रा की सन्तान, अत्यन्त शुद्ध जीवनवाला व्यक्ति (नृषाह्याय) - शत्रुओं के नेताओं [नॄ] के पराभव के लिए (उत्तस्थौ) - उठ खड़ा होता है । जब हम शुद्ध जीवनवाले बनते हैं तब वासनारूप शत्रुओं के सेनापति काम, क्रोध, लोभ का पूर्ण पराभव करने के लिए उद्यत होते है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम कुत्स बनें, वासनाओं का हिंसन करनेवाले हों । 'दशद्यु' हों, दसों इन्द्रियों को दीप्त करनेवाले हों । शान्ति की ओर चलनेवाले [शफ], मलरहित [च्युत], शुद्ध [श्वैत्रेय] बनकर ज्ञान को प्राप्त करें और काम, क्रोध, लोभ को जीतें ।
विषय
योद्धा और वृषभ की तुलना ।
भावार्थ
हे (इन्द्र) सूर्य और वायु के समान तेज और बल से युक्त राजन्! तू (यस्मिन्) जिसके वल पर (युद्धयन्तं) युद्ध करने वाले (दशद्युम्) दशों दिशाओं में चमकने, या विजय करने में समर्थ और (वृषभम्) बलवान् एवं शस्त्रवर्षण में समर्थ वीर पुरुषगण को (प्र अवः) अच्छी प्रकार रक्षा करता है तू उस (कुत्सम्) शत्रुओं को काट गिरानेवाले, शत्रु पर दूर से शस्त्रास्त्र फेंकने वाले वज्र या महास्त्र को (चाकन्) इच्छा पूर्वक (आवः) प्राप्त कर, रख। (शफच्युतः) अश्वों के खुरों से उठाया (रेणुः) धूलिपटल (द्याम् नक्षत) आकाश में फैल जाय, तो भी (श्वैत्रेयः) श्वेतवर्ण के यश, या देनेवाली वसुन्धरा, या स्वतः श्वेत कीर्ति का इच्छुक राजा तो (नृषाह्याय) शत्रु के नेतागणों के पराजय करने के लिए मैदान में (तस्थौ) खड़ा रहता है। मेघ-सूर्य पक्ष में—हे सूर्य! तू उग्र रूप तीक्ष्ण प्रकाश को धारण करता है जिसके बल पर दशों दिशाओं में चमकने वाले। वर्षणशील योद्धा के समान युद्ध करने वाले मेघ की या विद्युत् की भी रक्षा करता है। जब गौ आदि पशुओं से उठी धूल आकाश में व्यापती है तब भी वह सूर्य ही मनुष्यों के हित के लिए आकाश में विराजता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ शेषाः त्रिष्टुभः । १४, १५ भुरिक् पंक्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्यलोक आपल्या किरणांनी पृथ्वीवर मेघाला पाडून सर्व प्राण्यांना सुखी करतो तसेच हे सभाध्यक्षा! तूही सेनेला शिक्षित करून शस्त्र अस्त्र बळाने शत्रूला अस्ताव्यस्त करून पराजित करून, प्रजेचे निरंतर रक्षण कर. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, as the sun desirous of protecting the earth takes to the thunderbolt in the battle and engages the roaring fighting cloud full of showers of rain filling all the directions, and as the dust raised by the hoofs of the cows and horses rises to the sky, so may the ruler, son and protector of the earth, stand firm for the protection and promotion of humanity.
Subject of the mantra
Then again, Indra’s deeds have been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (indra)=modest Speaker, (bhavatā)=by you, (yathā)=like, (sūryalokaḥ)=of the Sun world, (yasmin)=which, (yuddhe) ==in the war, (yudhyantam)=while fighting, (vṛṣabham)=predominant, (daśadyum)=luminous in ten directions, (vṛtram)=of the cloud, (prati)=towards, (kutsam)=of thunderbolt, (prahṛtya)=by striking, (jagat)=of the world, (pra)=apparently, (āvaḥ)= is protected, (śvaitreyaḥ)=white coloured in the form of a cover, son of the earth, (meghaḥ)=cloud, (śaphacyutaḥ)=hoof marks of the cow etc. animals which fell on, (reṇuḥ)=dust, (ca)=also, (dyām)=to the lighted world, (nṛsāhyāya)=helped humans, (cākan)=desirous, (ut)=excellent, (tasthau) =be located, [usa sthāna meṃ]=in that place, [sthita rahate hue]=being stioned, (sukhāni)=happy, (āvaḥ)=for the happiness of the living beings, (prāpayati)=gets obtained, (tathā)=similarly, (sasabhena)=together with assembly, (rājñā) =to the king, (prayatitavyam)=must make effort.
English Translation (K.K.V.)
O Moderate speaker! Like you, in the battle of Sun world, when you are angry towards the bright cloud in ten directions, by striking a thunderbolt, protect the world in the form of a white cover, the son of the land, the cloud, the hooves of the animals, etc. Even the dust that has fallen in the signs of the light is received by the illuminated world. An excellent person who is desirous of helping human beings, while staying in that place, gets it done for the happiness of the happy living beings, similarly the king along with the assembly should make efforts.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is vocal latent simile as a figurative in this mantra. “Just as the Sun world makes all living beings happy by bringing down the clouds on the earth with its rays, similarly, O President, you also disturb the enemies by army training and weapon force and keep the people protected by constantly protecting them”
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The function of Indra is taught further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra ( Commander-in-chief of the Army or the President of the Assembly). As the sun protects the world by striking with thunder-bolt in the form of his rays the powerful cloud fighting with him and shining in all directions, as the cloud-the son of the earth, the dust falling from the hoofs of the cows and horses ascend to heaven, in the same manner, a king with his assembly or the council of ministers should always desire to do good to the people and to help them in every way.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
[ कुत्सम् ] वज्रम् कुत्स इति वज्रनामसु [निघ० २.२०] = Thunderbolt or powerful weapon. सायणाचार्येणात्र भ्रान्त्या कुत्सगोत्रोत्पन्न ऋषिगृहीतोऽसम्भवादिदं व्याख्यानमशुद्धम् || [इन्द्र] सुशीलसभाध्यक्ष = The good natured President of the Assembly. ( चाकन ) चकन्यते काम्यत इति चाकन् । कनी दीप्तिकान्ति गतिषु । इत्यस्य यड् लगन्तस्य क्विबन्तं रूपम् । वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति नुगभावः । दीर्घोsकित इत्यभ्यासस्य दीर्घत्वं च सायणाचार्येणेद भ्रमतो मित्संज्ञक स्यण्यन्तस्य च कनीधातो रूपमशुद्धं व्याख्यातम् । (आवः ) (१) रक्षेत् । अत्र लिङयैलङ् - ( २ ) प्राणिनः सुखे प्रवेशयेत् श्वैत्रेयः विवाया वर्णकत्र्र्या भूमेरपत्यं श्वैत्रेयः ॥ = The cloud, the son of the earth.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is implied simile used in the Mantra. As the Sun gives happiness to all beings by causing the fall of the cloud with his rays, in the same manner O Commander of the army, you should also constantly protect and preserve all subjects by subduing all enemies by the use of the army, military education and arms.
Translator's Notes
Rishi Dayananda has interpreted कुत्सम् as वज्रम्— Thunderbolt or a powerful weapon. He has pointed out the mistake of Sayanacharya in taking the word as the name of particular Rishi. The same mistake has been committed by Prof. Wilson, Griffith and other Western translators. It has been pointed out how inconsistent it is with the eternity of the Vedas to take Kutsa, Dashadyu and Shvaitreya as the proper nouns. It is against the fundamental principle of the Vedic terminology enunciated by Acharya Jaimini and others through the aphorisms like आख्या प्रवचनात् परन्तु श्रुति सामान्यमात्रम् ( मीमांसा १०३१.३२) etc. Sayanacharya' interpretation of कुत्सम् as कुत्सम् एतन्नामकं गोत्र प्रवर्तकम् ऋषिम् दशद्युम् श्वैत्रेय: is opposed to his own views on the subject expressed in his introduction to his commentary of the Rigveda. It is therefore to be rejected as self contradictory. The same is the case with the words दशद्युम् and श्वैत्रेय which Sayanacharya has taken as the name of a particular Rishi. It is really strange how great scholars like Sayanacharya could contradict their own statements made implicitly in the Introduction strongly substantiating the eternity of the Vedas. It is only Rishi Dayananda that has been consistent throughout and he has substantiated his interpretation with proper quotations from the Vedic Lexicon Nighantu, Nirukta of Yaskacharya and other Vedic Literature.
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