ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 33/ मन्त्र 5
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
परा॑ चिच्छी॒र्षा व॑वृजु॒स्त इ॒न्द्राय॑ज्वानो॒ यज्व॑भिः॒ स्पर्ध॑मानाः । प्र यद्दि॒वो ह॑रिवः स्थातरुग्र॒ निर॑व्र॒ताँ अ॑धमो॒ रोद॑स्योः ॥
स्वर सहित पद पाठपरा॑ । चि॒त् । शी॒र्षा । व॒वृ॒जुः॒ । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । अय॑ज्वानः । यज्व॑ऽभिः । स्पर्ध॑मानाः । प्र । यत् । दि॒वः । ह॒रि॒ऽवः॒ । स्था॒तः॒ । उ॒ग्र॒ । निः । अ॒व्र॒तान् । अ॒ध॒मः॒ । रोद॑स्योः ॥
स्वर रहित मन्त्र
परा चिच्छीर्षा ववृजुस्त इन्द्रायज्वानो यज्वभिः स्पर्धमानाः । प्र यद्दिवो हरिवः स्थातरुग्र निरव्रताँ अधमो रोदस्योः ॥
स्वर रहित पद पाठपरा । चित् । शीर्षा । ववृजुः । ते । इन्द्र । अयज्वानः । यज्वभिः । स्पर्धमानाः । प्र । यत् । दिवः । हरिवः । स्थातः । उग्र । निः । अव्रतान् । अधमः । रोदस्योः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 33; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(परा) दूरीकरणे (चित्) उपमायाम् (शीर्षा) शिरांसि। अत्र अचिशीर्षः। अ० ६।१।६२। इति शीर्षादेशः। शेश्छन्दसि व० इति शेर्लोपः। (ववृजुः) त्यक्तवन्तः। (ते) वक्ष्यमाणाः (इन्द्र) शत्रुविदारयितः शूरवीर (अयज्वानः) यज्ञानुष्ठानं त्यक्तवन्तः (यज्वभिः) कृतयज्ञानुष्ठानैः सह (स्पर्धमानाः) ईर्ष्यकाः (प्र) प्रकृष्टार्थे (यत्) यस्मात् (दिवः) प्रकाशस्य (हरिवः) हरयोऽश्वहस्त्यादयः प्रशस्ताः सेनासाधका विद्यन्ते यस्य स हरिवाँस्तत्संबुद्धौ (स्थातः) यो युद्धे तिष्ठतीति तत्संबुद्धौ (उग्र) दुष्टान् प्रति तीक्ष्णव्रत। (निः) नितराम् (अव्रतान्) व्रतेन सत्याचरणेन हीनान् मिथ्यावादिनो दुष्टान्। (अधमः) शब्दैः शिक्षय (रोदस्योः) द्यावापृथिव्योः। रोदस्ये रिति द्यावापृथिव्योर्नामसु पठितम्। निघं० ३।३०। ॥५॥
अन्वयः
अथेन्द्रशब्देन शूरवीरकृत्यमुपदिश्यते।
पदार्थः
हे हरिवो युद्धं प्रति प्रस्थातरुग्रेन्द्र यथा प्रख्यातोग्रेन्द्रः सूर्यलोको रोदस्योः प्रकाशार्षणे कुर्वन् वृत्रावयवाँश्छित्वा पराधमति तथैव त्वं यद्येऽयज्वानो यज्वभिः स्पर्धमानाः सन्ति ते यथा शीर्षा शिरांसि ववृजुस्त्यक्तवन्तो भवेयुस्तानव्रताँस्त्वं निरधमो नितरां शिक्षय दण्डय ॥५॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथासूर्यो दिनं पृथिव्यादिकं प्रकाशं च धृत्वा वृत्रान्धकारं निवार्य वृष्ट्या सर्वान् प्राणिनः सुखयति तथैव मनुष्यैः सद्गुणान् धृत्वाऽसद्गुणाँस्त्यक्त्वाऽधार्मिकान् दण्डयित्वा विद्यासुशिक्षाधर्मोपदेशवर्षणेन सर्वान् प्राणिनः सुखयित्वा सत्यराज्यं प्रचारणीयमिति ॥५॥
हिन्दी (4)
विषय
अब अगले मन्त्र में इन्द्रशब्द से शूरवीर के काम का उपदेश किया है।
पदार्थ
हे (हरिवः) प्रशंसित सेना आदि के साधन घोड़े हाथियों से युक्त (प्रस्थातः) युद्ध में स्थित होने और (उग्र) दुष्टों के प्रति तीक्ष्णव्रत धारण करनेवाले (इन्द्र) सेनापति ! (चित्) जैसे हरण आकर्षण गुण युक्त किरणवान् युद्ध में स्थित होने और दुष्टों को अत्यन्त ताप देनेवाला सूर्यलोक (रोदस्योः) अन्तरिक्ष और पृथिवी का प्रकाश और आकर्षण करता हुआ मेघ के अवयवों को छिन्न-भिन्न कर उसका निवारण करता है वैसे आप (यत्) जो (अयज्वानः) यज्ञ के न करनेवाले (यज्वभिः) यज्ञ के करनेवालों से (स्पर्द्धमानाः) ईर्षा करते हैं वे जैसे (शीर्षाः) अपने शिरों को (ते) तुम्हारे सकाश से (ववृजुः) छोड़नेवाले हों वैसे उन (अव्रतान्) सत्याचरण आदि व्रतों से रहित मनुष्यों को (निरधमः) अच्छे प्रकार दण्ड देकर शिक्षा कीजिये ॥५॥
भावार्थ
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य दिन और पृथिवी और प्रकाश को धारण तथा मेघ रूप अन्धकार को निवारण करके वृष्टि द्वारा सब प्राणियों को सुख युक्त करता है वैसे ही मनुष्यों को उत्तम-२ गुणों का धारण खोटे गुणों को छोड़ धार्मिकों की रक्षा और अधर्मी दुष्ट मनुष्यों को दंड देकर विद्या उत्तम शिक्षा और धर्मोपदेश की वर्षा से सब प्राणियों को सुख देके सत्य के राज्य का प्रचार करना चाहिये ॥५॥
विषय
अब इस मन्त्र में इन्द्र शब्द से शूरवीर के काम का उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे हरिवः युद्धं प्रति प्रस्थातः उग्र इन्द्रः यथा प्र ख्याता उग्र इन्द्रः सूर्यलोकः रोदस्योः प्रकाशार्षणे कुर्वन् वृत्रावयवान् च छित्वा पराधमति तथैव त्वं यद् ये अयज्वानः यज्वभिः स्पर्धमानाः सन्ति ते यथा शीर्षा शिरांसि ववृजुः त्यक्तवन्तः भवेयुः तान् अव्रतान् च त्वं निः अधमः नितरां शिक्षय दण्डय ॥५॥
पदार्थ
हे (हरिवः) हरयोऽश्वहस्त्यादयः प्रशस्ताः सेनासाधका विद्यन्ते यस्य स हरिवाँस्तत्संबुद्धौ=प्रशंसित सेना आदि के साधन घोड़े हाथियों से युक्त, (युद्धम्)=युद्ध के, (प्रति)=प्रति, (प्र) प्रकृष्टार्थे=अच्छी तरह से. (स्थातः) यो युद्धे तिष्ठतीति तत्संबुद्धौ=स्थित होने और, (उग्र) दुष्टान् प्रति तीक्ष्णव्रत=दुष्टों के प्रति तीक्ष्णव्रत धारण करनेवाले, (इन्द्र) शत्रुविदारयितः शूरवीर=शत्रुओं का विदारण करने वाले शूरवीर इन्द्र! (यथा)=जैसे, (प्रख्याता)=प्रख्यात, (उग्र) दुष्टान् प्रति तीक्ष्णव्रत=दुष्टों के प्रति तीक्ष्णव्रत धारण करनेवाले, (इन्द्र) शत्रुविदारयितः शूरवीर=शत्रुओं का विदारण करने वाले शूरवीर इन्द्र, (सूर्यलोकः)=सूर्यलोक, (रोदस्योः) द्यावापृथिव्योः= अन्तरिक्ष और पृथिवी का, (प्रकाशार्षणे)= प्रकाश और आकर्षण, (कुर्वन्)=करता हुआ, (वृत्रावयवान्)=मेघ के अवयवों को, (च)=भी, (छित्वा)=छिन्न-भिन्न करके, (पराधमति) दूरस्थ स्थान में फूंक कर उड़ा देता है (तथैव)=उसी प्रकार, (त्वम्)=आप, (यत्) यस्मात्=क्योंकि, (ये)=जो, (अयज्वानः) यज्ञानुष्ठानं त्यक्तवन्तः=यज्ञ के न करनेवाले, (यज्वभिः) कृतयज्ञानुष्ठानैः सह=यज्ञ के करनेवालों से, (स्पर्धमानाः) ईर्ष्यकाः=ईर्षा करते, (सन्ति)=हैं, (ते) वक्ष्यमाणाः=ऐसे कहे गये वे, (यथा)=जैसे, (शीर्षा) शिरांसि=प्रमुख, (ववृजुः) त्यक्तवन्तः=छोड़नेवाले (भवेयुः)=हों, (तान्)=उन, (अव्रतान्) व्रतेन सत्याचरणेन हीनान् मिथ्यावादिनो दुष्टान्=सत्याचरण आदि व्रतों से रहित, हीन, मिथ्यावादी और दुष्ट मनुष्यों को, (च)=भी, (त्वम्)=आप, (निः) नितराम्=अच्छे प्रकार से, (अधमः) शब्दैः शिक्षय=शिक्षा देकर, (दण्डय)=दण्डित कीजिये ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य दिन में पृथिवी आदि में प्रकाश को धारण करके मेघ रूप अन्धकार का निवारण करके वृष्टि द्वारा सब प्राणियों को सुखी करता है, वैसे ही मनुष्यों के द्वारा उत्तम गुणों को धारण करके अनुत्तम गुणों को त्याग कर अधार्मिकों को दण्ड देकर विद्या उत्तम शिक्षा और धर्मोपदेश की वर्षा से सब प्राणियों को सुखी करके सत्य के राज्य का प्रचार करना चाहिये ॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (हरिवः) घोड़े हाथियों से युक्त प्रशंसित सेना आदि के साधन (युद्धम्) युद्ध के (प्रति) प्रति (प्र) अच्छी तरह से (स्थातः) स्थित होने और (उग्र) दुष्टों के प्रति तीक्ष्णव्रत धारण करनेवाले (इन्द्र) शत्रुओं का विदारण करने वाले शूरवीर इन्द्र! (यथा) जैसे (प्रख्याता) प्रख्यात (उग्र) दुष्टों के प्रति तीक्ष्ण व्रत धारण करनेवाले (इन्द्र) शत्रुओं का विदारण करने वाले शूरवीर इन्द्र (सूर्यलोकः) सूर्यलोक, (रोदस्योः) अन्तरिक्ष और पृथिवी का (प्रकाशार्षणे) प्रकाश और आकर्षण (कुर्वन्) करता हुआ (वृत्रावयवान्) मेघ के अवयवों को (च) भी (छित्वा) छिन्न-भिन्न करके (पराधमति) दूरस्थ स्थान में फूंक कर उड़ा देता है, (तथैव) उसी प्रकार (त्वम्) आप (यत्) क्योंकि (ये) जो (अयज्वानः) यज्ञ के न करनेवाले, (यज्वभिः) यज्ञ के करनेवालों से (स्पर्धमानाः) ईर्षा करते, (सन्ति) हैं, (ते) ऐसे कहे गये वे (यथा) जैसे (शीर्षा) प्रमुख, (ववृजुः) छोड़नेवाले (भवेयुः) हों। (तान्) उन (अव्रतान्) सत्याचरण आदि व्रतों से रहित, हीन, मिथ्यावादी और दुष्ट मनुष्यों को (च) भी (त्वम्) आप (निः) अच्छे प्रकार से (अधमः) शिक्षा देकर (दण्डय) दण्डित कीजिये ॥५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (परा) दूरीकरणे (चित्) उपमायाम् (शीर्षा) शिरांसि। अत्र अचिशीर्षः। अ० ६।१।६२। इति शीर्षादेशः। शेश्छन्दसि व० इति शेर्लोपः। (ववृजुः) त्यक्तवन्तः। (ते) वक्ष्यमाणाः (इन्द्र) शत्रुविदारयितः शूरवीर (अयज्वानः) यज्ञानुष्ठानं त्यक्तवन्तः (यज्वभिः) कृतयज्ञानुष्ठानैः सह (स्पर्धमानाः) ईर्ष्यकाः (प्र) प्रकृष्टार्थे (यत्) यस्मात् (दिवः) प्रकाशस्य (हरिवः) हरयोऽश्वहस्त्यादयः प्रशस्ताः सेनासाधका विद्यन्ते यस्य स हरिवाँस्तत्संबुद्धौ (स्थातः) यो युद्धे तिष्ठतीति तत्संबुद्धौ (उग्र) दुष्टान् प्रति तीक्ष्णव्रत। (निः) नितराम् (अव्रतान्) व्रतेन सत्याचरणेन हीनान् मिथ्यावादिनो दुष्टान्। (अधमः) शब्दैः शिक्षय (रोदस्योः) द्यावापृथिव्योः। रोदस्ये रिति द्यावापृथिव्योर्नामसु पठितम्। निघं० ३।३०। ॥५॥
विषयः- अथेन्द्रशब्देन शूरवीरकृत्यमुपदिश्यते।
अन्वयः- हे हरिवो युद्धं प्रति प्रस्थातरुग्रेन्द्र यथा प्रख्यातोग्रेन्द्रः सूर्यलोको रोदस्योः प्रकाशार्षणे कुर्वन् वृत्रावयवाँश्छित्वा पराधमति तथैव त्वं यद्येऽयज्वानो यज्वभिः स्पर्धमानाः सन्ति ते यथा शीर्षा शिरांसि ववृजुस्त्यक्तवन्तो भवेयुस्तानव्रताँस्त्वं निरधमो नितरां शिक्षय दण्डय ॥५॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथासूर्यो दिनं पृथिव्यादिकं प्रकाशं च धृत्वा वृत्रान्धकारं निवार्य वृष्ट्या सर्वान् प्राणिनः सुखयति तथैव मनुष्यैः सद्गुणान् धृत्वाऽसद्गुणाँस्त्यक्त्वाऽधार्मिकान् दण्डयित्वा विद्यासुशिक्षाधर्मोपदेशवर्षणेन सर्वान् प्राणिनः सुखयित्वा सत्यराज्यं प्रचारणीयमिति ॥५॥
विषय
अव्रतों का विध्वंस
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जब इन्द्र लोभ व वासना का नाश करता है तब हे (इन्द्र) - शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले जीव ! हृदयदेश में (यज्वभिः) - यज्ञानुष्ठान करने की दिव्य भावनाओं से (स्पर्धमानाः) - स्पर्धा करती हुई (ते) - वे (अयज्वानः) - अयज्ञिय भावनाएँ (शीर्षाः) - अपने शिरों को (पराचित् ववृजुः) - पराङ्मुख करके हृदयदेश को दौड़ जाती हैं । ये सब अयज्ञिय भावनाएँ (वृत्र) - [वासना] की अनुचर हैं । हृदयदेश में इनका यज्ञिय भावनाओं से युद्ध चलता रहता है । ये हृदय में अपना आधिपत्य जमाना चाहती हैं, परन्तु लोभ व वृत्र के नष्ट होने पर ये सब वासनाएँ उसी प्रकार पराङ्मुख होकर भाग जाती हैं जैसेकि सेनापति के नष्ट होने पर सेना रण - प्राङ्गण से भाग खड़ी होती है,
२. परन्तु यह होता तभी है (यत्) - [यदा] जब ये (हरिवः) - प्रशस्त इन्द्रियरूप घोड़ोंवाले (स्थातः) - युद्ध में स्थिर रहनेवाले उग्र तेजस्विन् इन्द्र ! तू (दिवः) - ज्ञान के प्रकाश के द्वारा (रोदस्योः द्यावा) - पृथिवी में से, मस्तिष्क व शरीर में से (अवृतान्) - व्रतशून्य भावनाओं को (प्र) - प्रकर्षण (निर् , प्र अधमः) - निःशेषतया भस्म करनेवाला होता है [ध्मा अग्निसंयोगे] । शरीर से तू रोगों को दूर करता है, मस्तिष्क से अज्ञानान्धकारों को । इन रोगों व अज्ञानान्धकारों के नाश के लिए ही तू अपने इन्द्रियरूप घोड़ों प्रशस्त बनाने का प्रयत्न करता है - इस वासना - संग्राम में तू स्थिर होकर इनके साथ युद्ध करता है तथा तेजस्वी बनकर तू इन वृत्रानुचरों का ध्वंस करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हमें चाहिए कि हम इन्द्रियाश्वों को शुद्ध व प्रशस्त बनाकर धृति का अवलम्बन करके [स्थातः] तेजस्विता के द्वारा अशुभ भावनाओं का विध्वंस करनेवाले बनें ।
विषय
वीर योद्धा का शत्रु विजय, सेनापति ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तेजस्विन् राजन् ! ( यज्वभिः) परस्पर मिलकर संगति से रहने वाले, सुसंगठित, एवं धर्माचरणशील ईश्वरोपासकों से ( स्पर्धमानाः ) स्पर्धा करने वाले, उनके मुक़ाबले पर आने वाले ( अयज्वानः ) असंगठित, अधार्मिक पुरुष सदा (ते) तुझसे (शीर्षा ) अपने सिर ( पराचित् ववृजुः ) अवश्य परे फेर लेते हैं । वे मुख फेर कर परास्त हो जाते हैं । हे (हरिवः) अश्व, हस्ती और वीर पुरुषों की सेनाओं के स्वामिन् ! हे (स्थातः) युद्ध में स्थिर रहने वाले ! तू (दिवः) आकाश से जिस प्रकार वायु मेघों को उड़ा देता है उसी प्रकार हे ( उग्र ) अति बलवन् ! शत्रुओं को कंपाने हारे ! तू ( रोदस्योः ) ज़मीन और आस्मान दोनों में से ( अव्रतान्) नियम, सदाचार से रहित व्रत या प्रतिज्ञा के पालन न करने वाले शत्रुओं को ( निर् अधमः ) सर्वथा उड़ा दे, कठोर आज्ञा से दण्डित कर, और आग्नेयास्त्रों के द्वारा विनाश कर दे । इति प्रथमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ शेषाः त्रिष्टुभः । १४, १५ भुरिक् पंक्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा सूर्य, दिवस, पृथ्वी, प्रकाश यांना धारण करून मेघरूपी अंधःकार नष्ट करतो व वृष्टीद्वारे सर्व प्राण्यांना सुखी करतो तसेच माणसांनी उत्तम गुणांना धारण करून खोट्या गुणांचा त्याग करावा. धार्मिकांचे रक्षण करावे व अधार्मिक दुष्ट माणसांना दंड द्यावा. विद्या व उत्तम शिक्षण आणि धर्मोपदेशाची वृष्टी करावी. सर्व प्राण्यांना सुख द्यावे व सत्य राज्याचा प्रचार करावा. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, lord of light and justice, firm and steadfast, mighty strong, commander of horse power and armoured force, just as the sun, blazing lord of light and sustainer of earth, heaven and the middle skies, breaks up and scatters the cloud, so do you blow off and scatter the top-notch selfish, uncreative and lawless elements who rival and stall the yajnic creative, constructive and productive powers of your dominion.
Subject of the mantra
In this mantra by the word “Indra” the deeds of hero have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (harivaḥ)=equipped with horses, elephants etc. as means of an admired army, (yuddham)=of war, (prati)=to, (pra)=properly, (sthātaḥ)=to be located, [aura]=and, (ugra)=stern towards the wicked and brave, (indra)=Indra who had disrupted the enemies, (yathā)=like, (prakhyātā)=eminent, (ugra)=having poignant determination against the wickeds, (indra)=Brave Indra, who broke the enemies, (sūryalokaḥ) Sun world, (rodasyoḥ)=of space and earth, (prakāśārṣaṇe)=light and attraction, (kurvan)=doing, (vṛtrāvayavān)=disintegrates the components of the cloud, (parādhamati)=blows away in a distant place, (tathaiva)=similarly, (tvam)=you, (yat)=because, (ye)=those, (ayajvānaḥ)=who do not perform sacrifice, (yajvabhiḥ)=by the performers of sacrifice, (spardhamānāḥ+santi)=envy, (te)=told like such, they (yathā)=as, (śīrṣā)=principle, (vavṛjuḥ+bhaveyuḥ)=Be about to leave, (tān)=those, (avratān)=to those devoid of truthful conduct etc. vows, inferior, false and wicked men, (ca)=also, (tvam)=you,(niḥ)=in a good way, (adhamaḥ)=by teaching, (daṇḍaya)=punish.
English Translation (K.K.V.)
O equipped with horses, elephants etc. as means of an admired army and stern towards the wicked and brave, the one who destroys the enemies, who had disrupted the enemies! As eminent, splitting enemies, hero “Indra”, who destroys enemies, light of the Sun-world space and earth and while attracting, he also disintegrates the components of the cloud and blows it away to a distant place. Similarly, those who do not perform yajan are jealous of those who perform yajan. Having told like such, they are about likely to leave the principle. You also punish those devoid of truthful conduct etc. vows, inferior, false and wicked men by teaching in a good way.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Just as the Sun, possessing light in the earth during the day, removes the darkness in the form of a cloud and makes all living beings happy by rain, in the same way, human beings should adopt the best virtues and renounce the worst, punish the unrighteous, and preach the kingdom of truth by making all living beings happy with the shower of good education and sermons.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of a hero are taught by the use of the term Indra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O hero starting for the battle, O fierce unyielding destroyer of the enemies, O possessor of the trained horses, elephants, as Indra, the sun, giving light to both heaven and earth and attracting (or possessing the power of gravitation) casts away clouds having cut them into pieces, in the same manner, you should cut the heads of those un-righteous persons who neglecting the Yajnas and other noble acts contend with the performers of those Yajnas (non-violent sacrifices) and are without any sacred vows of truthfulness etc. i. e. liars and unrighteous. You must punish them suitably.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दिव:) प्रकाशस्य = Of the light. ( हरिवः ) हरयोश्वहस्त्यादयः प्रशस्ताः सेनासाधका विद्यन्ते यस्य स हरिवान् तत्सम्बुद्धौ । = Possessing trained horses and elephants etc. in the army. (अव्रतान ) व्रतेन सत्याचरणेन हीनान् मिथ्यावादिनो दुष्टान् । = The wicked devoid of truthfulness and other vows. ( उग्र ) दृष्टान् प्रति तीक्ष्णव्रत- Fierce only to the un-righteous or wicked persons.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile used in the Mantra. As the sun gives happiness to all beings by upholding the day, the earth and other worlds and the light, in the same manner, You should establish true Government and make people happy by upholding all good virtues, by giving up all vices, by duly, punishing the un-righteous persons and by raining wisdom and good education and preaching righteousness day and night.
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