ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 65/ मन्त्र 3
ऋ॒तस्य॑ दे॒वा अनु॑ व्र॒ता गु॒र्भुव॒त्परि॑ष्टि॒र्द्यौर्न भूम॑ ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तस्य॑ । दे॒वाः । अनु॑ । व्र॒ता । गुः॒ । भुव॑त् । परि॑ष्टिः । द्यौः । न । भूम॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतस्य देवा अनु व्रता गुर्भुवत्परिष्टिर्द्यौर्न भूम ॥
स्वर रहित पद पाठऋतस्य। देवाः। अनु। व्रता। गुः। भुवत्। परिष्टिः। द्यौः। न। भूम ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 65; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तं कीदृशं विजानीम इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! देवा विद्वांसः परिष्टिः द्यौर्भुवन्नेवर्त्तस्य व्रताऽनुगुरनुगम्याचरन्ति। यथैत ऋतस्य योना स्थितं सुजातं सुशिश्विं सभेशं पन्वा वर्धयन्ति विद्युतमीं पृथिवीं चापश्च तथैव वयं भूम भवेम यूयमपि भवत ॥ २ ॥
पदार्थः
(ऋतस्य) सत्यस्वरूपस्य (देवाः) विद्वांसः (अनु) पश्चात् (व्रता) सत्यभाषणादीनि व्रतानि (गुः) गच्छन्ति। अत्राडभावो लडर्थे लुङ् च। (भुवत्) भवति (परिष्टिः) परितः पर्वतः इष्टिरन्वेषणं यस्याः सा। अत्र एमन्नादिषु पररूपं वक्तव्यम्। (अष्टा०वा०६.१.१४) इति वार्त्तिकेन पररूप एकादेशः। (द्यौः) सूर्यद्युतिः (न) इव (भूम) भवेम (वर्धन्ति) वर्धन्ते। अत्र व्यत्येन परस्मैपदम्। (ईम्) पृथिवीम् (आपः) जलानि (पन्वा) स्तुत्येन कर्मणा (सुशिश्विम्) सुष्ठु वर्धकम्। छन्दसि सामान्येन विधानादत्र किः प्रत्ययः। (ऋतस्य) सत्यस्य कारणस्य (योना) योनौ निमित्ते सति (गर्भे) सर्वपदार्थान्तःस्थाने (सुजातम्) सुष्ठु प्रसिद्धम् ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या यथा सूर्य्यप्रकाशेन सर्वे पदार्थाः सदृश्या भवन्ति, तथैव विदुषां सङ्गेन वेदविद्यायां जातायां धर्माचरणे कृते परमेश्वरो विद्युदादयश्च स्वगुणकर्मस्वभावः सम्यग्दृष्टा भवन्तीति यूयं विजानीत ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसको किस प्रकार हम लोग जानें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (न) जैसे विद्वान् लोग (परिष्टिः) सब प्रकार खोजने योग्य (द्यौः) सूर्य्य के प्रकाश के तुल्य (भुवत्) होकर व पदार्थों को दृष्टिगोचर करते हैं, वैसे (ऋतस्य) सत्य धर्म स्वरूप आज्ञा विज्ञान से (व्रता) सत्यभाषण आदि नियमों को (अनुगुः) प्राप्त होकर आचरण करते हैं, तथा जैसे ये (ऋतस्य) कारणरूपी सत्य की (योना) योनि अर्थात् निमित्त में स्थित (सुजातम्) अच्छी प्रकार प्रसिद्ध (सुशिश्विम्) अच्छे पढ़ानेवाले सभापति की (पन्वा) स्तुति करने योग्य कर्म्म से (ईम्) पृथिवी को (आपः) जल वा प्राण को (वर्धन्ति) बढ़ा कर ज्ञानयुक्त कर देते हैं, वैसे हम लोग (भूम) होवें और तुम भी होओ ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य के प्रकाश से सब पदार्थ दृष्टि में आते हैं, वैसे ही विद्वानों के संग से वेदविद्या के उत्पन्न होने और धर्म्माचरण की प्रवृत्ति में परमेश्वर और बिजुली आदि पदार्थ अपने-अपने गुण, कर्म, स्वभावों से अच्छे प्रकार देखे जाते हैं, ऐसा तुम लोग जान कर अपने विचार से निश्चित करो ॥ २ ॥
विषय
पृथिवी को स्वर्ग बनाना
पदार्थ
१. (देवाः) = संसार - यात्रा में विजिगीषावाले लोग (ऋतस्य) = ऋत के (व्रता) = व्रतों का (अनुगुः) = पालन करते हैं । ऋत का पालन करनेवाला व्यक्ति कभी असफल नहीं होता । ऋत का अभिप्राय है प्रत्येक बात को ठीक समय व ठीक स्थान पर करना । सूर्य - चन्द्रमा की भाँति अपनी दिनचर्या में नियमित होना ही ऋत का पालन करना है ।
२. इनके जीवन में (परिष्टिः) = [Searching all round] सर्वत्र सत्य का अन्वेषण (भुवत्) = होता है । इनका जीवन ही ‘Experiments with truth’ सत्य का अन्वेषण हो जाता है । इनकी सब क्रियाएँ सत्य के परीक्षण के लिए होती हैं ।
३. इस प्रकार ये नियमित दिनचर्यावाले व सत्यान्वेषण में लगे हुए लोग (भूम) = इस पृथिवी को (द्यौः न) = स्वर्ग की भाँति बना देते हैं । पृथिवी को स्वर्ग बना देने में ही मानव - जीवन की सफलता है ।
४. इस पृथिवी को स्वर्ग बनाने के लिए ही (आपः) = आप्त लोग अथवा प्रजाएँ [आपो वै नरसूनवः] (ईम्) = निश्चय से इस प्रभु को (पन्वा) = स्तुति के द्वारा (वर्धन्ति) = बढ़ाते हैं, अर्थात् इस प्रभु की स्तुति करते हैं, जो [क] (सुशिश्विम्) = [शिव गतिवृद्ध्योः] उत्तमता से गति के द्वारा संसार का वर्धन कर रहे हैं, [ख] (ऋतस्य योनौ) = ऋत के गृह में (सुजातम्) = प्रादुर्भूत होते हैं, अर्थात् प्रभु का प्रकाश उसी गृह में होता है जहाँ ऋत का पालन होता है अथवा जो ऋत के मूल में हैं, अर्थात् ऋत का उत्पत्तिस्थान हैं, ऋत को जन्म देनेवाले है । [ग] (गर्भे सुजातम्) = वे प्रभु हमारे अन्दर - हृदय में ही प्रादुर्भूत होनेवाले हैं, हृदय में ही उनका दर्शन होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम ऋत का पालन करें और प्रभु - दर्शन की योग्यता को सिद्ध करें । यही पृथिवी को स्वर्ग बनाने का मार्ग है ।
विषय
नाना दृष्टान्तों से परमेश्वर, वीर पुरुष, नायक, आदि का वर्णन ।
भावार्थ
ज्ञान करने योग्य परमेश्वर और अग्नि तथा राजा वा सभाध्यक्ष (पुष्टिः न रण्वा) शरीर, इन्द्रिय, मन और आत्मा के सुख को बढ़ानेवाली पुष्टि के समान अग्नि, विद्युत्, राजा और परमेश्वर तीनों में से प्रत्येक सुख देने वाला है । वह (क्षितिः न पृथ्वी) भूमि के समान सबको अपने में आश्रय देने वाला है । (गिरिः न भुज्म) पर्वत के समान सबको पालन करने वाला है । ( अज्मन् अत्यः न ) वेग में, शत्रुओं के उखाड़ फेंकने में अश्व के समान (सर्गप्रतक्तः) छूटते ही शत्रु के पास पहुंचने और पहुंचाने वाला -(सर्ग-प्रतक्तः ) जल को अपने भीतर दबाव से रखने वाला (क्षोदः ) जल समूह जिस प्रकार (सिन्धुः ) वेग से बहता है, वह रोके नहीं रुकता इसी प्रकार ईश्वर भी (सर्ग-प्रतक्तः) सृष्टि द्वारा जाना जाकर (सिन्धुः न) अगाध सागर के समान सर्जनशक्ति का अक्षय भण्डार है । अग्नि भी जल के समान संसार में अपरिमित है। राजा भी (सर्ग-प्रतक्तः) वेग से आक्रमण करने पर अदम्य वेग से शत्रु पर टूटता और बड़ा पीड़ाजनक, (सिन्धुः न) उमड़ते समुद्र के समान भयंकर है। (ईं) इन सबको (कः) कौन (वराते) वारण कर सकता है। उस प्रभु को कौन पूर्णतया जान सकता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१–४, ५ निचृपङ्क्तिः । ४ विराट् पंक्तिः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह परमात्मा कैसा है, इस विषय को इस मन्त्र में कहते हैं ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यः तम् एतं परमात्मानं रण्वा पुष्टिः न इव क्षितिः पृथ्वी न इव गिरिः भुज्म न इव क्षोदः शंभु न इव अज्मन् अत्यः न इव सर्गप्रतक्तः {सिन्धुः} क्षोदः न इव कः {ईम्} वराते वृणुते स पूर्णविद्यो भवति ॥३॥
पदार्थ
(यः)=जो, (तम्)=उस, (एतम्)=इस, (परमात्मानम्) =परमेश्वर को, (रण्वा) या रण्वति सुखं प्रापयति सा= सुख से प्राप्त करानेवाला है, (पुष्टिः) शरीरेन्द्रियात्मसौख्यवर्द्धिका=शरीर की इन्द्रियों और आत्मा के सुख की वृद्धि करनेवाले के, (न) इव=समान, (क्षितिः) क्षियन्ति निवसन्ति राज्यरत्नानि प्राप्नुवन्ति यस्यां सा=जिसमे निवास करते हैं और राज्य के रत्न प्राप्त करते हैं, ऐसी उस, (पृथ्वी) भूमिः=भूमि के, (न) इव=समान, (गिरिः) मेघः=बादल, (भुज्म) सुखानां भोजयिता= सुखों के पालन करानेवाले के (न) इव=समान, (क्षोदः) जलम्= जल के, (शंभु) सुखसम्पादकम्= सुख के प्राप्त करानेवाले के, (न) इव=समान, (अज्मन्) मार्गे =मार्ग में, (अत्यः) साधुरश्वः=उत्तम अश्व के, (न) इव=समान, (सर्गप्रतक्तः) यः सर्गमुदकं प्रतनक्ति संकोचयति सः=प्रकृति में वाष्प से जल रूप में घनीभूत, {सिन्धुः} समुद्रः= समुद्र के, (क्षोदः) जलसमूहः= जलसमूह के, (न) इव=समान, (कः) कश्चिदपि=किसी को भी, {ईम्} ज्ञातव्यं प्राप्तव्यं परमेश्वरं विद्युद्रूपमग्निं वा=जानने और प्राप्त करने योग्य परमेश्वर या विद्युत् रूप अग्नि को, (वराते) वृणुते=स्वीकार करता है, (सः) =वह, (पूर्णविद्यो)= पूर्ण विद्यावाला, अथवा विद्वान्, (भवति)=होता है ॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। कोई ही मनुष्य परमेश्वर को प्राप्त हो करके विद्युत् और विज्ञान के उपकरण बना सकता है। जैसे सर्वोत्तम उत्तम शरीर, इन्द्रियों और आत्मा के सुख की वृद्धि से पृथिवी का राज्य, बादल की वर्षा से उत्तम जल, श्रेष्ठ घोड़े और समुद्र से बहुत से सुख देता है। वैसे ही परमेश्वर और विद्युत् समस्त आनन्दों को प्राप्त करानेवाले हैं, परन्तु इसका ज्ञाता महाविद्वान् मनुष्य दुर्लभ है ॥३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यः) जो (तम्) उस, (एतम्) इस (परमात्मानम्) परमेश्वर को (रण्वा) सुख से प्राप्त करानेवाला है, (पुष्टिः) शरीर, इन्द्रियों और आत्मा के सुख की वृद्धि करनेवाले के (न) समान, (क्षितिः) जिसमे निवास करते हैं और राज्य के रत्न प्राप्त करते हैं, ऐसी उस (पृथ्वी) भूमि के (न) समान (गिरिः) बादल (भुज्म) सुखों के पालन करानेवाले के (न) समान (क्षोदः) जल के (शंभु) सुख के प्राप्त करानेवाले के (न) समान, (अज्मन्) मार्ग में (अत्यः) उत्तम अश्व के (न) समान, (सर्गप्रतक्तः) प्रकृति में वाष्प से जल रूप में घनीभूत {सिन्धुः} समुद्र के (क्षोदः) जलसमूह के (न) समान, (कः) किसी को भी {ईम्} जानने और प्राप्त करने योग्य परमेश्वर या विद्युत् रूप अग्नि को (वराते) स्वीकार करता है, (सः) वह (पूर्णविद्यो) पूर्ण विद्यावाला, अथवा विद्वान् (भवति) होता है ॥३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (पुष्टिः) शरीरेन्द्रियात्मसौख्यवर्द्धिका (न) इव (रण्वा) या रण्वति सुखं प्रापयति सा (क्षितिः) क्षियन्ति निवसन्ति राज्यरत्नानि प्राप्नुवन्ति यस्यां सा (न) इव (पृथ्वी) भूमिः (गिरिः) मेघः (न) इव (भुज्म) सुखानां भोजयिता (क्षोदः) जलम् (न) इव (शंभु) सुखसम्पादकम् (अत्यः) साधुरश्वः (न) इव (अज्मन्) मार्गे (सर्गप्रतक्तः) यः सर्गमुदकं प्रतनक्ति संकोचयति सः। सर्ग इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (सिन्धुः) समुद्रः (न) इव (क्षोदः) जलसमूहः (कः) कश्चिदपि (ईम्) ज्ञातव्यं प्राप्तव्यं परमेश्वरं विद्युद्रूपमग्निं वा (वराते) ॥३॥ विषयः- पुनः स कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- यस्तमेतं परमात्मानं रण्वा पुष्टिर्नेव क्षितिः पृथ्वी नेव गिरिर्भुज्मनेव क्षोदः शंभुनेवाऽज्मन्नत्यो नेव सर्गप्रतक्तः क्षोदो नेव को वराते वृणुते स पूर्णविद्यो भवति ॥३॥ भावार्थः- अत्रोपमालङ्कारः। कश्चिदेव मनुष्यः परमेश्वरस्य प्राप्तिं विद्युतो विज्ञानोपकरणे कर्त्तुं शक्नोति। यथा सर्वोत्तमा पुष्टिः पृथ्वीराज्यं मेघवृष्टिरुत्तममुदकं श्रेष्ठोऽश्वः समुद्रश्च बहूनि सुखानि ददाति। तथैव परमेश्वरो विद्युच्च सर्वानन्दान् प्रापयतः परन्त्वेतं ज्ञाता महाविद्वान् मनुष्यो दुर्लभो भवति ॥३॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. एखादा विद्वान माणूस परमेश्वराला प्राप्त करून व विद्युतरूपी अग्नीला जाणून त्याच्याकडून उपकार घेण्यास समर्थ होतो. जशी उत्तम पुष्टी, पृथ्वीचे राज्य, मेघांची वृष्टी, उत्तम जल, उत्तम अश्व व समुद्र अत्यंत सुख देणारे असतात. तसेच परमेश्वर व विद्युतही सर्व प्रकारे आनंद देतात; परंतु या दोन्हींना जाणणारा विद्वान माणूस दुर्लभ आहे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Noble yajakas dedicate themselves to the Law of Truth in sacred vows. The search for Agni goes on. They augment the waters, exalt the earth and, with their noble actions, promote the agni born in the vedi at the centre of the womb of nature and the Laws of Divinity. And the earth grows bright and blest as heaven.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How do we know Agni is taught in the second verse.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, learned persons follow or observe the vows of the truthfulness ordained by God who is Embodiment of Truth, vast sky or like the light of the Sun. As the pervasive powers manifest God who is the greatest and the illustrious Source of Truth present in the Matter giving strength to all for growth, earth, water, electricity etc. all manifest God's glory, so you should also manifest Him with your noble deeds. A virtuous president of the assembly should also be adored and followed.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(द्यौ:) सूर्यद्युतिः = The light of the sun. (ईम् ) पृथिवीम् = The earth. (सुशिश्विम्) सुष्ठु वर्धकम् = Well augmenter.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As by the light of the sun, all objects become visible, by the association of the learned, God is realised when a man acquires the Vedic knowledge and observes rules of Dharma (righteousness). Electricity and other substances also can be known well in this way with all their attributes and actions.
Subject of the mantra
Now what is the physical fire like, this subject has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yaḥ) =Which, (tam) =that, (etam) =this, (paramātmānam) =to god, (raṇvā) =attains with delight, (puṣṭiḥ)=One who increases the happiness of body, senses and soul (na) =like, (kṣitiḥ)= In which reside and receive the gems of the kingdom, such, (pṛthvī) =of earth, (na) =like, (giriḥ) =clouds, (bhujma) =of the one who maintains happiness, (na) =like, (kṣodaḥ) =of waters, (śaṃbhu)= of the one who achieves happiness, (na) =like, (ajman) =in the path, (atyaḥ)=of the best horse, (na) =like, (sargaprataktaḥ)= Condensed form vapor as water in nature, {sindhuḥ} =of ocean, (kṣodaḥ)= of water body, (na) =like, (kaḥ)= to anyone, {īm}= God capable of being known and attained or Agni in the form of electricity, (varāte) =accepts, (saḥ) =he, (pūrṇavidyo)=is a man of complete knowledge, or a scholar.
English Translation (K.K.V.)
The one who makes one attain with delight this God, who is the one who increases the happiness of the body, senses and soul in whom one resides and attain the jewels of the kingdom, like that land, like the one who makes the clouds maintain the pleasures, like the one who makes one get the pleasures of water, like the best horse on the path, like the water of the ocean condensed from vapors to water in nature, God who can be known and attained by anyone or accepts the electric form Agni, he is a man of complete knowledge, or a scholar.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Only a human being can make electrical and scientific instruments after attaining God. Just as the kingdom of the earth gives the best body, pleasures of the senses and soul, water better than the rain of clouds, the best horse and the sea give many pleasures. Similarly, God and electricity are the ones who provide all the happiness, but a very learned person who knows this is rare.
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