ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 65/ मन्त्र 6
अत्यो॒ नाज्म॒न्त्सर्ग॑प्रतक्तः॒ सिन्धु॒र्न क्षोदः॒ क ईं॑ वराते ॥
स्वर सहित पद पाठअत्यः॑ । न । अज्म॑न् । सर्ग॑ऽप्रतक्तः । सिन्धुः॑ । न । क्षोदः॑ । कः । इ॒म् । व॒रा॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अत्यो नाज्मन्त्सर्गप्रतक्तः सिन्धुर्न क्षोदः क ईं वराते ॥
स्वर रहित पद पाठअत्यः। न। अज्मन्। सर्गऽप्रतक्तः। सिन्धुः। न। क्षोदः। कः। इम्। वराते ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 65; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
यस्तमेतं परमात्मानं रण्वा पुष्टिर्नेव क्षितिः पृथ्वी नेव गिरिर्भुज्मनेव क्षोदः शंभुनेवाऽज्मन्नत्यो नेव सर्गप्रतक्तः क्षोदो नेव को वराते वृणुते स पूर्णविद्यो भवति ॥ ३ ॥
पदार्थः
(पुष्टिः) शरीरेन्द्रियात्मसौख्यवर्द्धिका (न) इव (रण्वा) या रण्वति सुखं प्रापयति सा (क्षितिः) क्षियन्ति निवसन्ति राज्यरत्नानि प्राप्नुवन्ति यस्यां सा (न) इव (पृथ्वी) भूमिः (गिरिः) मेघः (न) इव (भुज्म) सुखानां भोजयिता (क्षोदः) जलम् (न) इव (शंभु) सुखसम्पादकम् (अत्यः) साधुरश्वः (न) इव (अज्मन्) मार्गे (सर्गप्रतक्तः) यः सर्गमुदकं प्रतनक्ति संकोचयति सः। सर्ग इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (सिन्धुः) समुद्रः (न) इव (क्षोदः) जलसमूहः (कः) कश्चिदपि (ईम्) ज्ञातव्यं प्राप्तव्यं परमेश्वरं विद्युद्रूपमग्निं वा (वराते) ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। कश्चिदेव मनुष्यः परमेश्वरस्य प्राप्तिं विद्युतो विज्ञानोपकरणे कर्त्तुं शक्नोति। यथा सर्वोत्तमा पुष्टिः पृथ्वीराज्यं मेघवृष्टिरुत्तममुदकं श्रेष्ठोऽश्वः समुद्रश्च बहूनि सुखानि ददाति। तथैव परमेश्वरो विद्युच्च सर्वानन्दान् प्रापयतः परन्त्वेतं ज्ञाता महाविद्वान् मनुष्यो दुर्लभो भवति ॥ ६ ॥
हिन्दी (2)
विषय
फिर वह परमात्मा कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जो मनुष्य उस परमेश्वर को (रण्वा) सुख से प्राप्त करानेवाला (पुष्टिः) शरीर आत्मा और इन्द्रियों की पुष्टि के (न) समान (क्षोदः) जल (शम्भु) सुख सम्पन्न करनेवाले के (न) समान तथा (अज्मन्) मार्ग में (अत्यः) घोड़े के समान (सर्गप्रतक्तः) जल को संकोच करनेवाले (सिन्धुः) समुद्र (क्षोदः) जल के (न) समान (ईम्) जानने तथा प्राप्त करने योग्य परमेश्वर वा बिजुलीरूप अग्नि को (कः) कौन विद्वान् मनुष्य (वराते) स्वीकार करता है ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। कोई विद्वान् मनुष्य परमेश्वर को प्राप्त होके और बिजुलीरूप अग्नि जान के उससे उपकार लेने को समर्थ होता है, जैसे उत्तम पुष्टि, पृथिवी का राज्य, मेघ की वृष्टि, उत्तम जल, उत्तम घोड़े और समुद्र बहुत सुखों को प्राप्त कराते हैं, वैसे ही परमेश्वर और बिजुली भी सब आनन्दों को प्राप्त कराते हैं, परन्तु इन दोनों का जाननेवाला विद्वान् मनुष्य दुर्लभ है ॥ ३ ॥
विषय
प्रभु - वरण - विरलता [आश्चर्यो द्रष्टा कुशलानुशिष्टः]
पदार्थ
१. वेग प्रभु (पुष्टिः न) = पुष्टि के समान (रण्वा) = रमणीय हैं । जिस प्रकार शरीर के पूर्ण पुष्ट व स्वस्थ होने से आनन्द अनुभव होता है, उसी प्रकार उस प्रभु - प्राप्ति का आनन्द है । प्रभु - प्राप्ति का आनन्द वाणी से वर्णन नहीं किया जा सकता, वह तो अनुभव की ही वस्तु है । २. (क्षितिः न पृथ्वी) = वे प्रभु सबको निवास देनेवाली भूमि के समान [प्रथ विस्तारे] अत्यन्त विस्तृत हैं । वास्तविकता तो यह है कि ऐसी कितनी ही भूमियाँ उस प्रभु के एक देश में समायी हुई है - अनन्त विस्तार है उस प्रभु का । (गिरिः न) = पर्वत के समान (भुज्म) = वे प्रभु हमें सब भोग प्राप्त कराके पालन करनेवाले हैं । पर्वतों से नाना प्रकार के फल, धातु व अन्य पदार्थ प्राप्त होकर प्रजाओं का पालन होता है । वे प्रभु ही वस्तुतः सब पालन - व्यवस्थाओं को करनेवाले हैं । पर्वतों से नदियों को प्रवाहित करके सब अन्नों को उपजाते हुए वे प्रभु ही हमारा पालन कर रहे हैं । ३. (क्षोदः न) = जल के समान वे प्रभु (शंभु) = शान्ति देनेवाले हैं । गर्मी से सन्तप्त मनुष्य को जल - शान्ति प्राप्त कराते हैं, इसी प्रकार संसार के दावानल से सन्तप्त मनुष्य को प्रभु ही शान्ति देनेवाले हैं । प्राकृतिक भोग अन्ततः अशान्ति का कारण बनते हैं, उस समय प्रभु ही शान्ति को पुनः प्राप्त करानेवाले होते हैं । ४. (अज्मन्) = संग्राम में (सर्गप्रतक्तः) = स्वभाव से प्रेरित हुए - हुए (अत्यः न) = सततगामी अश्व के समान हैं । जैसे संग्राम में अश्व विजय का कारण होता है, वैसे ही प्रभु हमारे लिए इस संसार - संग्राम में विजय का कारण बनते हैं । प्रभु जीव की सहायता किसी कारण से करते हों यह बात नहीं, यह तो उनका स्वभाव ही है । ५. (सिन्धुः न क्षोदः) = [स्यन्दते इति सिन्धुः] वे प्रभु निरन्तर बहनेवाले जल के समान आगे और आगे चलनेवाले हैं [क्षुद् to move on], प्रभु को अपने कार्यों में कोई रोकनेवाला नहीं हैं । उसके कर्म अबाध गति से होते ही रहते हैं । (कः ईम् वराते) = [क] कौन इसे अपने कार्यों में रोकता है ? अर्थात् प्रभु के कार्यों में कोई रुकावट पैदा नहीं कर सकता, अथवा [ख] कौन है जो उस प्रभु का वरण करता है ? संसार में कोई एक - आध व्यक्ति ही प्रभु की ओर झुकता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का वरण विरला ही व्यक्ति करता है ।
इंग्लिश (2)
Meaning
Delightful as the glow of health, vast and happy dwelling as earth, generous as a cloud, sanctifying as waters, fast as a flying horse in rapid motion, deep and rolling as the sea, who can stop it, just at hand as it is?
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is God is taught in the 3rd Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
This Agni (God) is graceful as nourishment, argmenter of the happiness of body, senses and soul. vast as the earth on which people dwell, Giver if happiness like the cloud which is productive of vegetable food by raining down water, delightful as water. He is like a horse urged to a charge in battle and like flowing waters of the ocean. Who deliberately chooses or accepts God as the Best Object in the world to be known and attained. By Agni may also be taken in a secondary sense the electricity.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(क्षोद:) उदकम् (क्षोद) इत्युदकनाम (निघ० १.१२ ) (गिरि:) मेघः गिरिरितिमेघनाम (निघ० १.१०) (अज्म) संग्रामे अज्मेति संग्रामनाम - (निघ० २.१७) = in the battle.(Tr.)
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upmalankara or simile used in the Mantra in various forms. There are few in the world who are eager to know and attain God and also utilise electricity properly after or along with that great Knowledge. As the best growth of body, mind and soul enables a man to get kingdom, rain to get good water, and as good horse and ocean are givers of much happiness, in the same manner, God and electricity lead to much delight and bliss, but a great, scholar possessing the correct knowledge of these two is rare.
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