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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 65/ मन्त्र 5
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    पु॒ष्टिर्न र॒ण्वा क्षि॒तिर्न पृ॒थ्वी गि॒रिर्न भुज्म॒ क्षोदो॒ न शं॒भु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒ष्टिः । न । र॒ण्वा । क्षि॒तिः । न । पृ॒थ्वी । गि॒रिः । न । भुज्म॑ । क्षोदः॑ । न । श॒म्ऽभु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुष्टिर्न रण्वा क्षितिर्न पृथ्वी गिरिर्न भुज्म क्षोदो न शंभु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुष्टिः। न। रण्वा। क्षितिः। न। पृथ्वी। गिरिः। न। भुज्म। क्षोदः। न। शम्ऽभु ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 65; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    यस्तमेतं परमात्मानं रण्वा पुष्टिर्नेव क्षितिः पृथ्वी नेव गिरिर्भुज्मनेव क्षोदः शंभुनेवाऽज्मन्नत्यो नेव सर्गप्रतक्तः क्षोदो नेव को वराते वृणुते स पूर्णविद्यो भवति ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (पुष्टिः) शरीरेन्द्रियात्मसौख्यवर्द्धिका (न) इव (रण्वा) या रण्वति सुखं प्रापयति सा (क्षितिः) क्षियन्ति निवसन्ति राज्यरत्नानि प्राप्नुवन्ति यस्यां सा (न) इव (पृथ्वी) भूमिः (गिरिः) मेघः (न) इव (भुज्म) सुखानां भोजयिता (क्षोदः) जलम् (न) इव (शंभु) सुखसम्पादकम् (अत्यः) साधुरश्वः (न) इव (अज्मन्) मार्गे (सर्गप्रतक्तः) यः सर्गमुदकं प्रतनक्ति संकोचयति सः। सर्ग इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (सिन्धुः) समुद्रः (न) इव (क्षोदः) जलसमूहः (कः) कश्चिदपि (ईम्) ज्ञातव्यं प्राप्तव्यं परमेश्वरं विद्युद्रूपमग्निं वा (वराते) ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। कश्चिदेव मनुष्यः परमेश्वरस्य प्राप्तिं विद्युतो विज्ञानोपकरणे कर्त्तुं शक्नोति। यथा सर्वोत्तमा पुष्टिः पृथ्वीराज्यं मेघवृष्टिरुत्तममुदकं श्रेष्ठोऽश्वः समुद्रश्च बहूनि सुखानि ददाति। तथैव परमेश्वरो विद्युच्च सर्वानन्दान् प्रापयतः परन्त्वेतं ज्ञाता महाविद्वान् मनुष्यो दुर्लभो भवति ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह परमात्मा कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो मनुष्य उस परमेश्वर को (रण्वा) सुख से प्राप्त करानेवाला (पुष्टिः) शरीर आत्मा और इन्द्रियों की पुष्टि के (न) समान (क्षोदः) जल (शम्भु) सुख सम्पन्न करनेवाले के (न) समान तथा (अज्मन्) मार्ग में (अत्यः) घोड़े के समान (सर्गप्रतक्तः) जल को संकोच करनेवाले (सिन्धुः) समुद्र (क्षोदः) जल के (न) समान (ईम्) जानने तथा प्राप्त करने योग्य परमेश्वर वा बिजुलीरूप अग्नि को (कः) कौन विद्वान् मनुष्य (वराते) स्वीकार करता है ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। कोई विद्वान् मनुष्य परमेश्वर को प्राप्त होके और बिजुलीरूप अग्नि जान के उससे उपकार लेने को समर्थ होता है, जैसे उत्तम पुष्टि, पृथिवी का राज्य, मेघ की वृष्टि, उत्तम जल, उत्तम घोड़े और समुद्र बहुत सुखों को प्राप्त कराते हैं, वैसे ही परमेश्वर और बिजुली भी सब आनन्दों को प्राप्त कराते हैं, परन्तु इन दोनों का जाननेवाला विद्वान् मनुष्य दुर्लभ है ॥ ३ ॥

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    विषय

    प्रभु - वरण - विरलता [आश्चर्यो द्रष्टा कुशलानुशिष्टः]

    पदार्थ


    १. वेग प्रभु (पुष्टिः न) = पुष्टि के समान (रण्वा) = रमणीय हैं । जिस प्रकार शरीर के पूर्ण पुष्ट व स्वस्थ होने से आनन्द अनुभव होता है, उसी प्रकार उस प्रभु - प्राप्ति का आनन्द है । प्रभु - प्राप्ति का आनन्द वाणी से वर्णन नहीं किया जा सकता, वह तो अनुभव की ही वस्तु है । 

    २. (क्षितिः न पृथ्वी) = वे प्रभु सबको निवास देनेवाली भूमि के समान [प्रथ विस्तारे] अत्यन्त विस्तृत हैं । वास्तविकता तो यह है कि ऐसी कितनी ही भूमियाँ उस प्रभु के एक देश में समायी हुई है - अनन्त विस्तार है उस प्रभु का । (गिरिः न) = पर्वत के समान (भुज्म) = वे प्रभु हमें सब भोग प्राप्त कराके पालन करनेवाले हैं । पर्वतों से नाना प्रकार के फल, धातु व अन्य पदार्थ प्राप्त होकर प्रजाओं का पालन होता है । वे प्रभु ही वस्तुतः सब पालन - व्यवस्थाओं को करनेवाले हैं । पर्वतों से नदियों को प्रवाहित करके सब अन्नों को उपजाते हुए वे प्रभु ही हमारा पालन कर रहे हैं । 

    ३. (क्षोदः न) = जल के समान वे प्रभु (शंभु) = शान्ति देनेवाले हैं । गर्मी से सन्तप्त मनुष्य को जल - शान्ति प्राप्त कराते हैं, इसी प्रकार संसार के दावानल से सन्तप्त मनुष्य को प्रभु ही शान्ति देनेवाले हैं । प्राकृतिक भोग अन्ततः अशान्ति का कारण बनते हैं, उस समय प्रभु ही शान्ति को पुनः प्राप्त करानेवाले होते हैं । 

    ४. (अज्मन्) = संग्राम में (सर्गप्रतक्तः) = स्वभाव से प्रेरित हुए - हुए (अत्यः न) = सततगामी अश्व के समान हैं । जैसे संग्राम में अश्व विजय का कारण होता है, वैसे ही प्रभु हमारे लिए इस संसार - संग्राम में विजय का कारण बनते हैं । प्रभु जीव की सहायता किसी कारण से करते हों यह बात नहीं, यह तो उनका स्वभाव ही है । 

    ५. (सिन्धुः न क्षोदः) = [स्यन्दते इति सिन्धुः] वे प्रभु निरन्तर बहनेवाले जल के समान आगे और आगे चलनेवाले हैं [क्षुद् to move on], प्रभु को अपने कार्यों में कोई रोकनेवाला नहीं हैं । उसके कर्म अबाध गति से होते ही रहते हैं । (कः ईम् वराते) = [क] कौन इसे अपने कार्यों में रोकता है ? अर्थात् प्रभु के कार्यों में कोई रुकावट पैदा नहीं कर सकता, अथवा [ख] कौन है जो उस प्रभु का वरण करता है ? संसार में कोई एक - आध व्यक्ति ही प्रभु की ओर झुकता है । 

     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का वरण विरला ही व्यक्ति करता है । 

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    विषय

    नाना दृष्टान्तों से परमेश्वर, वीर पुरुष, नायक, आदि का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( अप्सु हंसः न ) हंस नाम पक्षी जिस प्रकार जलों में (श्वसिति) डुबकी लगाकर भी श्वास लेता रहता है, उसी प्रकार राजा ( अप्सु ) आप्त प्रजाजनों के बीच (सीदन्) विराजता हुआ (श्वसिति) प्राण लेता, जीता जागता रहे । वह ( क्रत्वा ) यज्ञादि से अग्नि के समान उत्तम ज्ञान और कर्म के द्वारा ( चेतिष्ठः ) अति अधिक ज्ञानवान् होकर ( विशाम् ) प्रजाओं के बीच में (उषर्भुत्) प्रातः चेतनेवाले अग्नि के समान ही सबको (उषर्भुत्) जीवन के प्रारम्भ के वयस में ही बोध कराने वाला हो । ( सोमः न वेधाः ) ओषधि आदि गण जिस प्रकार शरीर का पोषक है उसी प्रकार वह राजा भी राष्ट्र का पोषक हो । वह (ऋतप्रजातः) सत्य व्यवहार, न्यायशासन और ज्ञान में कुशल और प्रसिद्ध होकर (शिश्वा) छोटे बछड़े से युक्त (पशुः न) गौ आदि पशु के समान प्रजा के प्रति प्रेमवान्, कृपालु होकर रहे । और ( विभुः ) विशेष सामर्थ्यवान् और कोश-युक्त होकर भी अग्नि के समान ( दूरे-भाः ) दूर दूर तक अपने तेज दीप्ति को फैलानेवाले सूर्य के समान तेजस्वी हो । इति नवमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१–४, ५ निचृपङ्क्तिः । ४ विराट् पंक्तिः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह सभेश कैसा हो, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्याः ! यूयं यः अप्सु हंसः न इव सीदन् विशाम् उषर्भुत् सन् क्रत्वा चेतिष्ठः सोमः न इव ऋतप्रजातः शिशुना पशुः न इव {शिश्वा} विभुः सन् दूरेभा विद्युत् आदि अग्निः इव वेधाः श्वसिति तं कार्य्येषु विद्यया संप्रोजयत ॥५॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्याः)=मनष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (यः)=जो, (अप्सु) जलेषु=जलों में, (हंसः) पक्षिविशेषः= हंस के, (न) इव=समान, (सीदन्) गच्छन्नागच्छन्निमज्जन्नुन्मज्जन् वा = जाते-आते हुए और उछलते हुए, (विशाम्) प्रजानाम्=सन्तानों को, (उषर्भुत्) उषसि सर्वान्बोधयति सः= उषा में बोध कराते, (सन्)=हुए, (क्रत्वा) क्रतुना प्रज्ञया स्वकीयेन कर्मणा वा=अपनी प्रज्ञा और कर्मों से, (चेतिष्ठः) अतिशयेन चेतयिता=अतिशय रूप से चेतन, (सोमः) ओषधिसमूहः= ओषधि समूह के, (न) इव=समान, (ऋतप्रजातः) कारणादुत्पद्य ऋते वायावुदके प्रसिद्धः=कारण से उत्पन्न होकर वायु और जल में सदा प्रसिद्ध, (शिशुना)= शिशु के द्वारा, (पशुः) गवादिः=गाय आदि पशुओं के, (न) इव=समान, {शिश्वा} शिशुना वत्सादिना= शिशुओं में, (विभुः) व्यापकः= व्यापक, (सन्) =होके हुए, (दूरेभाः) दूरदेशे भा दीप्तयो यस्य सः=दूर के स्थानों में प्रकाश करनेवाले, (विद्युत्)= विद्युत्, (आदि)= आदि, (अग्निः)= अग्नि के, (इव) =समान, (वेधाः) पोषकः = पोषक, (श्वसिति) योऽग्निना प्राणाऽपानचेष्टां करोति=अग्नि के द्वारा प्राण और अपान, अर्थात् सांस लेने और छोड़ने की चेष्टा करनेवाले, (तम्)=उसको, (कार्य्येषु)=कार्यों में, (विद्यया)= विद्या से, (संप्रोजयत)=अच्छी तरह से प्रयोग कीजिये॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे बिजली की ऊर्जा के विना किसी भी प्राणी के व्यवहार की सिद्धि नहीं हो सकती है। इसलिये इस विद्या का अच्छी तरह से परीक्षण करके कार्यों में प्रयोग करके बहुत सुखों को सिद्ध करता है ॥५॥

    विशेष

    सूक्त के महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में ईश्वर के, ऊर्जा रूप बिजली के रूप में वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्याः) मनष्यों ! (यूयम्) तुम सब, (यः) जो (अप्सु) जलों में (हंसः) हंस के (न) समान, (सीदन्) जाते-आते हुए और उछलते हुए (विशाम्) सन्तानों का (उषर्भुत्) उषा में बोध कराते (सन्) हुए, (क्रत्वा) अपनी प्रज्ञा और कर्मों से (चेतिष्ठः) अतिशय रूप से चेतन (सोमः) ओषधि समूह के (न) समान (ऋतप्रजातः) कारण से उत्पन्न होकर वायु और जल में सदा प्रसिद्ध (शिशुना) शिशु के द्वारा (पशुः) गाय आदि पशुओं के (न) समान, {शिश्वा} शिशुओं में (विभुः) व्यापक (सन्) हो करके (दूरेभाः) दूर के स्थानों में प्रकाश करनेवाले (विद्युत्) विद्युत् (आदि) आदि (अग्निः) अग्नि के (इव) समान, (वेधाः) पोषक (श्वसिति) प्राण और अपान, अर्थात् सांस लेने और छोड़ने की चेष्टा करनेवाले (तम्) उसको, अर्थात् वायु को (कार्य्येषु) कार्यों में, (विद्यया) बुद्धिमता से (संप्रोजयत) अच्छी तरह से प्रयोग कीजिये॥५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (श्वसिति) योऽग्निना प्राणाऽपानचेष्टां करोति (अप्सु) जलेषु (हंसः) पक्षिविशेषः (सीदन्) गच्छन्नागच्छन्निमज्जन्नुन्मज्जन् वा (क्रत्वा) क्रतुना प्रज्ञया स्वकीयेन कर्मणा वा (चेतिष्ठः) अतिशयेन चेतयिता (विशाम्) प्रजानाम् (उषर्भुत्) उषसि सर्वान्बोधयति सः। अत्रोषरुपपदाद् बुधधातोः क्विप्। बशो भषिति भत्वं च। (सोमः) ओषधिसमूहः (न) इव (वेधाः) पोषकः (ऋतप्रजातः) कारणादुत्पद्य ऋते वायावुदके प्रसिद्धः (पशुः) गवादिः (न) इव (शिश्वा) शिशुना वत्सादिना (विभुः) व्यापकः (दूरेभाः) दूरदेशे भा दीप्तयो यस्य सः ॥५॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्या ! यूयं योऽप्सु हंसो नेव सीदन् विशामुषर्भुत् सन् क्रत्वा चेतिष्ठः सोमो नेवर्त्तप्रजातः शिशुना पशुर्नेव विभुः सन् दूरेभा विद्युदाद्यग्निरिव वेधाः श्वसिति तं कार्य्येषु विद्यया संप्रोजयत ॥५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा विद्युताग्निना विना कस्यचित्प्राणिनो व्यवहारसिद्धिर्भवितुं न शक्यास्ति। तस्मादयं विद्यया सम्परीक्ष्य कार्य्येषु संयोजितः बहूनि सुखानि साध्नोतीति ॥५॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रेश्वरविद्युदग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोद्धव्यम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी विद्युत अग्नीशिवाय माणसाच्या कोणत्याही व्यवहाराची सिद्धी होऊ शकत नाही तसा अग्निविद्येने परीक्षा करून कार्यात संयुक्त केलेला अग्नी पुष्कळ सुख प्राप्त करून देतो. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Delightful as the glow of health, vast and happy dwelling as earth, generous as a cloud, sanctifying as waters, fast as a flying horse in rapid motion, deep and rolling as the sea, who can stop it, just at hand as it is?

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is God is taught in the 3rd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    This Agni (God) is graceful as nourishment, argmenter of the happiness of body, senses and soul. vast as the earth on which people dwell, Giver if happiness like the cloud which is productive of vegetable food by raining down water, delightful as water. He is like a horse urged to a charge in battle and like flowing waters of the ocean. Who deliberately chooses or accepts God as the Best Object in the world to be known and attained. By Agni may also be taken in a secondary sense the electricity.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (क्षोद:) उदकम् (क्षोद) इत्युदकनाम (निघ० १.१२ ) (गिरि:) मेघः गिरिरितिमेघनाम (निघ० १.१०) (अज्म) संग्रामे अज्मेति संग्रामनाम - (निघ० २.१७) = in the battle.(Tr.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upmalankara or simile used in the Mantra in various forms. There are few in the world who are eager to know and attain God and also utilise electricity properly after or along with that great Knowledge. As the best growth of body, mind and soul enables a man to get kingdom, rain to get good water, and as good horse and ocean are givers of much happiness, in the same manner, God and electricity lead to much delight and bliss, but a great, scholar possessing the correct knowledge of these two is rare.

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    Subject of the mantra

    Then what should that Lord of the Assembly be like, this topic has been discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, (yaḥ) =those, (apsu) =in waters, (haṃsaḥ)=of swan, (na) =like, (sīdan) = coming and going and jumping, (viśām) =to children, (uṣarbhut+san)=bringing awareness with the (kratvā)=through own wisdom and deeds, (cetiṣṭhaḥ)=extremely conscious, (somaḥ) =of food grain and herbs, (na) =like, (ṛtaprajātaḥ) =Being born from reason, always famous in air and water, (śiśunā) =by baby, (paśuḥ) =of cow etc. animal, (na) =like, {śiśvā} =in babies, (vibhuḥ) =spread, (san) =being, (dūrebhāḥ)=illuminators in distant places, (vidyut) =electricity, (ādi) =etc., (agniḥ) =of fire, (iva) =like, (vedhāḥ) =strong, (śvasiti)= prāṇa aura apāna, i.e. i.e. those who try to inhale and exhale, (tam) = to that, i.e. to the air, (kāryyeṣu) =in deeds, (vidyayā)=wisely, (saṃprojayata)=use it well.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! All of you, who are like swans in the water, coming and going and jumping, bringing awareness to the children with the dawn, having arisen from the same cause as the group of food grain and herbs, highly conscious by its wisdom and actions, through the ever-famous infant in the air and water, becoming widespread among the infants like cows and other animals, becoming strong like electricity and fire that illuminate distant places. Use prāṇa aura apāna, i.e. breath well, that is responsible for inhaling and exhaling, wisely in your activities.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Just like the behaviour of any living being cannot be accomplished without electrical energy. Therefore, after testing this knowledge thoroughly and using it in work, one achieves many delights. Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- By describing God in the form of energy of electricity in this hymn, the interpretation of this hymn should be consistent with the interpretation of the previous hymn.

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