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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 65/ मन्त्र 9
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - द्विपदा विराट् स्वरः - पञ्चमः

    श्वसि॑त्य॒प्सु हं॒सो न सीद॒न् क्रत्वा॒ चेति॑ष्ठो वि॒शामु॑ष॒र्भुत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्वसि॑ति । अ॒प्ऽसु । हं॒सः । न । सीद॑न् । क्रत्वा॑ । चेति॑ष्ठः । वि॒शाम् । उ॒षः॒ऽभुत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्वसित्यप्सु हंसो न सीदन् क्रत्वा चेतिष्ठो विशामुषर्भुत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्वसिति। अप्ऽसु। हंसः। न। सीदन्। क्रत्वा। चेतिष्ठः। विशाम्। उषःऽभुत् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 65; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयं योऽप्सु हंसो नेव सीदन् विशामुषर्भुत् सन् क्रत्वा चेतिष्ठः सोमो नेवर्त्तप्रजातः शिशुना पशुर्नेव विभुः सन् दूरेभा विद्युदाद्यग्निरिव वेधाः श्वसिति तं कार्य्येषु विद्यया संप्रोजयत ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (श्वसिति) योऽग्निना प्राणाऽपानचेष्टां करोति (अप्सु) जलेषु (हंसः) पक्षिविशेषः (सीदन्) गच्छन्नागच्छन्निमज्जन्नुन्मज्जन् वा (क्रत्वा) क्रतुना प्रज्ञया स्वकीयेन कर्मणा वा (चेतिष्ठः) अतिशयेन चेतयिता (विशाम्) प्रजानाम् (उषर्भुत्) उषसि सर्वान्बोधयति सः। अत्रोषरुपपदाद् बुधधातोः क्विप्। बशो भषिति भत्वं च। (सोमः) ओषधिसमूहः (न) इव (वेधाः) पोषकः (ऋतप्रजातः) कारणादुत्पद्य ऋते वायावुदके प्रसिद्धः (पशुः) गवादिः (न) इव (शिश्वा) शिशुना वत्सादिना (विभुः) व्यापकः (दूरेभाः) दूरदेशे भा दीप्तयो यस्य सः ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा विद्युताग्निना विना कस्यचित्प्राणिनो व्यवहारसिद्धिर्भवितुं न शक्यास्ति। तस्मादयं विद्यया सम्परीक्ष्य कार्य्येषु संयोजितः बहूनि सुखानि साध्नोतीति ॥ ५ ॥ अत्रेश्वरविद्युदग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोद्धव्यम् ॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर वह सभेश कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग जो (अप्सु) जलों में (हंसः) पक्षी के (न) समान (सीदन्) जाता-आता डूबता-उछलता हुआ (विशाम्) प्रजाओं को (उषर्भुत्) प्रातःकाल में बोध कराने वा (क्रत्वा) अपनी बुद्धि वा कर्म्म से (चेतिष्ठः) अत्यन्त ज्ञान करानेवाले (सोमः) ओषधिसमूह के (न) समान (ऋतप्रजातः) कारण से उत्पन्न होकर वायु जल में प्रसिद्ध (वेधाः) पुष्ट करनेवाले (शिशुना) बछड़ा आदि से (पशुः) गौ आदि के (न) समान (विभुः) व्यापक हुआ (दूरेभाः) दूरदेश में दीप्तियुक्त बिजुली आदि अग्नि के समान (श्वसिति) प्राण, अपान आदि को करता है, उसको शिल्पादि कार्यों में संप्रयुक्त करो ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे बिजुली के विना किसी मनुष्य के व्यवहार की सिद्धि नहीं हो सकती। इस अग्निविद्या से परीक्षा करके कार्यों में संयुक्त किया हुआ अग्नि बहुत सुखों को सिद्ध करता है ॥ ५ ॥ इस सूक्त में ईश्वर, अग्निरूप बिजुली के वर्णन से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥

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    विषय

    उपासन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में कहा था कि प्रभु का वरण करनेवाला उपासन में स्थित होता है । वह निम्न शब्दों में उपासना करता है । ये प्रभु (अप्सु) = प्रजाओं में (श्वसिति) = प्राणधारण करते हैं - “यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते” - इन केनोपनिषद् के शब्दों के अनुसार प्राणों के आधार प्रभु ही हैं, वे ही हमें प्राणशक्ति प्राप्त कराते हैं । २. ये प्रभु (हंसः न) = हंस के समान (सीदन्) = हमारे हृदयों में स्थित हैं । हंस जैसे नीर - क्षीर - विवेक कर डालता है, उसी प्रकार हृदयस्थरूपेण ये प्रभु हमें निरन्तर पाप - पुण्य का विवेक प्राप्त करा रहे हैं । पाप के लिए भय और पुण्य के लिए उत्साह प्रभु की ओर से ही प्राप्त होता है । ३. (क्रत्वा) = अपने ज्ञान से वे प्रभु (चेतिष्ठः) = हमें अधिक - से - अधिक चेतनायुक्त करनेवाले हैं । (विशाम्) = सब प्रजाओं के लिए (उषर्भुत्) = उषः काल में बोध देनेवाले हैं [उषसि बोधयति], इसीलिए इस समय को ब्राह्ममुहूर्त नाम दिया गया है । यह समय ब्रह्म के समीप बैठने का है । ४. (सोमः न वेधाः) = यह प्रभु सोम के समान विधाता है । अत्यन्त शान्तभाव से अपने सृष्टिनिर्माण, धारण व प्रलयादि कार्यों में वे संलग्न हैं । ५. (ऋतप्रजातः) = [क] ‘ऋतं प्रजातं यस्मात्’ ऋत को जन्म देनेवाले हैं (ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत) ऋत और सत्य उस प्रभु के देदीप्यमान तप से ही उत्पन्न हुए हैं । अथवा [ख] ऋत के द्वारा उस प्रभु का आविर्भाव होता है ‘ऋतेन प्रजातं यस्य’ । हम ऋत का पालन करते हैं तो प्रभु के दर्शन के अधिकारी बनते हैं । ६. (पशुः न शिश्वा) = जैसे बछड़े आदि शिशुओं के साथ गवादि पशु का स्वाभाविक स्नेह है, उसी प्रकार प्रभु का हससे स्वाभाविक स्नेह है । पशु बच्चों से प्रत्युपकार के विचार से प्रीति नहीं करते, इसी प्रकार प्रभु का जीव के प्रति प्रेम स्वाभाविक है । ७. वे प्रभु (विभुः) =सर्वव्यापक हैं और (दरेभाः) = दूर - से - दूर प्रदेश में भी उनकी दीप्ति है । सर्वत्र प्रभु का प्रकाश है । “तस्य भासा सर्वमिदं विभाति” - उसी के प्रकाश से सारा ब्रह्माण्ड प्रकाशित हो रहा है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही हमारे प्राण हैं, धर्माधर्म का ज्ञान देनेवाले हैं । सम्पूर्ण ज्ञान प्रभु से ही प्राप्त होता है । शान्तभाव से प्रभु अपना कार्य करते हैं । ऋत के पालन से प्रभु - दर्शन होता है । वे प्रभु व्यापक व प्रकाशरूप हैं ।

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का आरम्भ इन शब्दों से होता है कि ‘धीर, सजोष व यजत्र’ पुरुष प्रभु को प्राप्त करते हैं [१] । वे ऋत के पालन से पृथिवी को स्वर्ग बना देते हैं [२] । कोई विरला ही होता है जो उस प्रभु का वरण करता है [३] । प्रभु का वरण वानस्पतिक भोजन करनेवाला ही करता है [४] । यह प्रभु को व्यापक व प्रकाशमयरूप में देखता है [५] । प्रभु को ही यह अपना अद्भुत धन बनाता है -

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    It breathes in the waters, vitalising them, playing with them like a swan. Most intelligent and wide-awake, it awakens the people at dawn with its light and yajnic action. Born of Divine Law and Truth of Nature, it is an inspirer and energiser like soma. Playful as a calf, it is omnipresent, shining far and wide.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that Agni (electricity) is taught further in the ninth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Agni (in the form of electricity etc.) dwells within the waters like a sitting swan, awakened or kindled in the dawn, he restores by his operations consciousness to me. Like the Soma and other creepers and herbs Agni, born of the Matter, is excited by the winds and nourishes all by heat. Born from the waters, where he was hidden like an animal (cow etc.), with her calf, he becomes enlarged and his light spreads far. You must use that Agni in the form of electricity in various forms.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वेधा:) पोषक: = Nourisher. (ॠतमतः) कारणादुत्पद्य ऋते वायावुदके च प्रसिद्धः = Born of the Primal Cause [Matter] and manifested in the water and air.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As it is not possible for anyone to accomplish various objects without the use of fire in the form of electricity, it should therefore, be used properly after knowing its science thoroughly.

    Translator's Notes

    By the illustration of Agni, the mantra describes the duties of a noble king also who should dwell among his subjects, make arrangements for their education, support them well and being distinguished on account of the observance of truth, should shine far and near. As in this hymn, there is the mention of Agni [fire and electricity] etc., it is connected with the previous hymn. Here ends the commentary of the sixty fifth hymn and ninth Varga of the first Mandala of the Rigveda Sanhita.

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