ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 65/ मन्त्र 4
वर्ध॑न्ती॒मापः॑ प॒न्वा सुशि॑श्विमृ॒तस्य॒ योना॒ गर्भे॒ सुजा॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठवर्ध॑न्ति । ई॒म् । आपः॑ । प॒न्वा । सुऽशि॑श्विम् । ऋ॒तस्य॑ । योना॑ । गर्भे॑ । सुऽजा॑तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वर्धन्तीमापः पन्वा सुशिश्विमृतस्य योना गर्भे सुजातम् ॥
स्वर रहित पद पाठवर्धन्ति। ईम्। आपः। पन्वा। सुऽशिश्विम्। ऋतस्य। योना। गर्भे। सुऽजातम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 65; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तं कीदृशं विजानीम इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! देवा विद्वांसः परिष्टिः द्यौर्भुवन्नेवर्त्तस्य व्रताऽनुगुरनुगम्याचरन्ति। यथैत ऋतस्य योना स्थितं सुजातं सुशिश्विं सभेशं पन्वा वर्धयन्ति विद्युतमीं पृथिवीं चापश्च तथैव वयं भूम भवेम यूयमपि भवत ॥ २ ॥
पदार्थः
(ऋतस्य) सत्यस्वरूपस्य (देवाः) विद्वांसः (अनु) पश्चात् (व्रता) सत्यभाषणादीनि व्रतानि (गुः) गच्छन्ति। अत्राडभावो लडर्थे लुङ् च। (भुवत्) भवति (परिष्टिः) परितः पर्वतः इष्टिरन्वेषणं यस्याः सा। अत्र एमन्नादिषु पररूपं वक्तव्यम्। (अष्टा०वा०६.१.१४) इति वार्त्तिकेन पररूप एकादेशः। (द्यौः) सूर्यद्युतिः (न) इव (भूम) भवेम (वर्धन्ति) वर्धन्ते। अत्र व्यत्येन परस्मैपदम्। (ईम्) पृथिवीम् (आपः) जलानि (पन्वा) स्तुत्येन कर्मणा (सुशिश्विम्) सुष्ठु वर्धकम्। छन्दसि सामान्येन विधानादत्र किः प्रत्ययः। (ऋतस्य) सत्यस्य कारणस्य (योना) योनौ निमित्ते सति (गर्भे) सर्वपदार्थान्तःस्थाने (सुजातम्) सुष्ठु प्रसिद्धम् ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या यथा सूर्य्यप्रकाशेन सर्वे पदार्थाः सदृश्या भवन्ति, तथैव विदुषां सङ्गेन वेदविद्यायां जातायां धर्माचरणे कृते परमेश्वरो विद्युदादयश्च स्वगुणकर्मस्वभावः सम्यग्दृष्टा भवन्तीति यूयं विजानीत ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसको किस प्रकार हम लोग जानें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (न) जैसे विद्वान् लोग (परिष्टिः) सब प्रकार खोजने योग्य (द्यौः) सूर्य्य के प्रकाश के तुल्य (भुवत्) होकर व पदार्थों को दृष्टिगोचर करते हैं, वैसे (ऋतस्य) सत्य धर्म स्वरूप आज्ञा विज्ञान से (व्रता) सत्यभाषण आदि नियमों को (अनुगुः) प्राप्त होकर आचरण करते हैं, तथा जैसे ये (ऋतस्य) कारणरूपी सत्य की (योना) योनि अर्थात् निमित्त में स्थित (सुजातम्) अच्छी प्रकार प्रसिद्ध (सुशिश्विम्) अच्छे पढ़ानेवाले सभापति की (पन्वा) स्तुति करने योग्य कर्म्म से (ईम्) पृथिवी को (आपः) जल वा प्राण को (वर्धन्ति) बढ़ा कर ज्ञानयुक्त कर देते हैं, वैसे हम लोग (भूम) होवें और तुम भी होओ ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य के प्रकाश से सब पदार्थ दृष्टि में आते हैं, वैसे ही विद्वानों के संग से वेदविद्या के उत्पन्न होने और धर्म्माचरण की प्रवृत्ति में परमेश्वर और बिजुली आदि पदार्थ अपने-अपने गुण, कर्म, स्वभावों से अच्छे प्रकार देखे जाते हैं, ऐसा तुम लोग जान कर अपने विचार से निश्चित करो ॥ २ ॥
विषय
पृथिवी को स्वर्ग बनाना
पदार्थ
१. (देवाः) = संसार - यात्रा में विजिगीषावाले लोग (ऋतस्य) = ऋत के (व्रता) = व्रतों का (अनुगुः) = पालन करते हैं । ऋत का पालन करनेवाला व्यक्ति कभी असफल नहीं होता । ऋत का अभिप्राय है प्रत्येक बात को ठीक समय व ठीक स्थान पर करना । सूर्य - चन्द्रमा की भाँति अपनी दिनचर्या में नियमित होना ही ऋत का पालन करना है ।
२. इनके जीवन में (परिष्टिः) = [Searching all round] सर्वत्र सत्य का अन्वेषण (भुवत्) = होता है । इनका जीवन ही ‘Experiments with truth’ सत्य का अन्वेषण हो जाता है । इनकी सब क्रियाएँ सत्य के परीक्षण के लिए होती हैं ।
३. इस प्रकार ये नियमित दिनचर्यावाले व सत्यान्वेषण में लगे हुए लोग (भूम) = इस पृथिवी को (द्यौः न) = स्वर्ग की भाँति बना देते हैं । पृथिवी को स्वर्ग बना देने में ही मानव - जीवन की सफलता है ।
४. इस पृथिवी को स्वर्ग बनाने के लिए ही (आपः) = आप्त लोग अथवा प्रजाएँ [आपो वै नरसूनवः] (ईम्) = निश्चय से इस प्रभु को (पन्वा) = स्तुति के द्वारा (वर्धन्ति) = बढ़ाते हैं, अर्थात् इस प्रभु की स्तुति करते हैं, जो [क] (सुशिश्विम्) = [शिव गतिवृद्ध्योः] उत्तमता से गति के द्वारा संसार का वर्धन कर रहे हैं, [ख] (ऋतस्य योनौ) = ऋत के गृह में (सुजातम्) = प्रादुर्भूत होते हैं, अर्थात् प्रभु का प्रकाश उसी गृह में होता है जहाँ ऋत का पालन होता है अथवा जो ऋत के मूल में हैं, अर्थात् ऋत का उत्पत्तिस्थान हैं, ऋत को जन्म देनेवाले है । [ग] (गर्भे सुजातम्) = वे प्रभु हमारे अन्दर - हृदय में ही प्रादुर्भूत होनेवाले हैं, हृदय में ही उनका दर्शन होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम ऋत का पालन करें और प्रभु - दर्शन की योग्यता को सिद्ध करें । यही पृथिवी को स्वर्ग बनाने का मार्ग है ।
विषय
नाना दृष्टान्तों से परमेश्वर, वीर पुरुष, नायक, आदि का वर्णन ।
भावार्थ
( अग्निः ) अग्नि (वातजूतः) जिस प्रकार वायु से प्रचण्ड होकर (वना) जंगलों में (वि अस्थात्) विविध रूपों से फैलता है तब वह ( वनानि ) जंगलों को (अत्ति) खा जाता है, जला डालता है उसी समय मानो वह ( पृथिव्याः ) पृथिवी के (रोमा) लोमों के समान उत्पन्न ओषधि आदि वनस्पतियों को (दाति) कुठार के समान काट डालता है, उनको जलाकर छिन्नभिन्न करता है उसी प्रकार (अग्निः) अग्रणी नेता पुरुष जो ( वातजूतः ) वायु के समान प्रचण्ड वेगवाले वीर पुरुषों के बल से प्रचण्ड होकर ( वना ) शत्रु के सैनिक दलों पर ( वि अस्थात् ) विविध दिशाओं से जा चढ़ता है, (ह) वह निश्चय से (पृथिव्याः रोमा) पृथिवी पर स्थित लोमों के समान, उसको छा लेने वाले, या (रोमा) मारकाट कर गिरा देने योग्य शत्रुसैन्य को (दाति) काट गिराता है। वह राजा (वनानि) नाना भोग्य ऐश्वर्यों को (अत्ति) भोग करता है । वह (सिन्धूनां जामिः) बहती नदियों के समान अदम्य वेगवाला होने से उनका बन्धु है । वह ( स्वस्राम् भ्राता इव ) बहिनों के रक्षा करने वाले भाई के समान स्वयं अपने बल से रणक्षेत्र में शत्रु पर धावा बोलनेवाली सेनाओं का (भ्राता) भरण पोषण करनेवाला रक्षक है। ( इभ्यान् न राजा ) हाथियों को वश करने वाले, अथवा हाथियों पर सवारी करनेहारे ऐश्वर्यवान् पुरुषों का राजा के समान वश करने हारा है। आत्मा के पक्ष में—आत्मा (सिन्धूनां जामिः) प्राणों का एकमात्र उद्भव और बन्धु है । ( स्वस्त्रां भ्राता ) इन्द्रियों का पोषक, प्राणों का राजा होकर ऐश्वर्यों या देहों का भोग करता है। वह प्राण के वेग से प्रेरित होकर देहों में विराजता है। वह आत्मा ही (पृथिव्याः) जड़ प्रकृति के नाना उच्छेद करने योग्य बन्धनों को काटता है।
टिप्पणी
रोम—लूयते छिद्यते इति रोम ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१–४, ५ निचृपङ्क्तिः । ४ विराट् पंक्तिः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
अब भौतिक अग्नि कैसा है, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यत् यः वातजूतः अग्निः वनानि दाति छिनत्ति पृथिव्या ह किल रोमाणि दाति छिनत्ति स सिन्धूनां जामिः। स्वस्रां भगिनीनां भ्रातेव इभ्यान् राजा न इव वि अस्थात् वनानि वि अत्ति ॥४॥
पदार्थ
(यत्) यः=जो, (वातजूतः) वायुना वेगं प्राप्तः=वायु से वेग को प्राप्त हुए, (अग्निः) प्रसिद्धः पावकः= प्रसिद्ध पवित्र करनेवाले अग्नि, (वनानि) वनानि जङ्गलानि=जंगलों को, (दाति) छिनत्ति=नष्ट करता है, (पृथिव्याः) भूमेः= भूमि में, (ह) किल =निश्चित रूप से, (रोमाणि) रोमाण्योषध्यादीनि=जल और ओषधियो को, (दाति) छिनत्ति= नष्ट करता है, (सः)=वह, (सिन्धूनाम्) नदीनां समुद्राणां वा=नदियों या समुद्रों के, (जामिः) सुखप्रापको बन्धुः=सुख प्राप्त करानेवाले बन्धुओं और, (स्वस्राम्) स्वसॄणां भगिनीनाम्=बहिनों के, (भ्रातेव) सनाभिरिव=भ्राता के समान, (इभ्यान्) य इभान् हस्तिनो नियन्तुमर्हन्ति तान्=हाथियों को नियंत्रित करने के योग्य, (राजा) नृपः=राजा के, (न) इव=समान, (वि) विविधार्थे=विविध प्रकार से, (अस्थात्) तिष्ठति =स्थित होता है, (वनानि) अरण्यानि =जंगलों को (वि) विविधार्थे= विविध प्रकार से, (अत्ति) भक्षयति = भक्षण करता है ॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में दो बार उपमालङ्कार हैं। जब मनुष्यों के द्वारा यान चलाने आदि के कार्यों में वायु में अच्छी तरह से प्रयोग की हुई अग्नि को चलाते हैं, तब वह बहुत कार्यों को सिद्ध करते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यत्) जो (वातजूतः) वायु से वेग को प्राप्त हुआ, (अग्निः) प्रसिद्ध पवित्र करनेवाला अग्नि (वनानि) जंगलों को (दाति) नष्ट करता है और (पृथिव्याः) भूमि में (ह) निश्चित रूप से (रोमाणि) जल और ओषधियो को (दाति) नष्ट करता है। (सः) वह (सिन्धूनाम्) नदियों या समुद्रों में, (जामिः) सुख प्राप्त करनेवाले बन्धुओं और (स्वस्राम्) बहिनों के (भ्रातेव) भ्राता के समान और (इभ्यान्) हाथियों को नियंत्रित करने के योग्य (राजा) राजा के (न) समान, (वि) विविध प्रकार से (अस्थात्) स्थित होता है। (वनानि) जंगलों को (वि) विविध प्रकार से (अत्ति) भक्षण करता है, अर्थात् नष्ट कर देता है ॥४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (जामिः) सुखप्रापको बन्धुः (सिन्धूनाम्) नदीनां समुद्राणां वा (भ्रातेव) सनाभिरिव (स्वस्राम्) स्वसॄणां भगिनीनाम्। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति नुडभावः। (इभ्यान्) य इभान् हस्तिनो नियन्तुमर्हन्ति तान् (न) इव (राजा) नृपः (वनानि) अरण्यानि (अत्ति) भक्षयति (यत्) यः (वातजूतः) वायुना वेगं प्राप्तः (वना) वनानि जङ्गलानि (वि) विविधार्थे (अस्थात्) तिष्ठति (अग्निः) प्रसिद्धः पावकः (ह) किल (दाति) छिनत्ति (रोमा) रोमाण्योषध्यादीनि (पृथिव्याः) भूमेः॥४ ॥ विषयः- पुनर्भौतिकोऽग्निः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- यद्यो वातजूतोऽग्निर्वनानि दाति छिनत्ति पृथिव्या ह किल रोमाणि दाति छिनत्ति स सिन्धूनां जामिः। स्वस्रां भगिनीनां भ्रातेवेभ्यान् राजानेव व्यस्थात् वनानि व्यत्ति ॥४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र द्वावुपमालङ्कारौ। यदा मनुष्यैर्यानचालनादिकार्य्येषु वायुसंप्रयुक्तोऽग्निश्चाल्यते, तदा स बहूनि कार्य्याणि साधयतीति बोद्धव्यम् ॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. जेव्हा माणसे यान चालविणे इत्यादी कार्यात वायूबरोबर अग्नीला संयुक्त करतात तेव्हा ते खूप कार्य करतात. हे सर्व माणसांनी जाणले पाहिजे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Noble yajakas dedicate themselves to the Law of Truth in sacred vows. The search for Agni goes on. They augment the waters, exalt the earth and, with their noble actions, promote the agni born in the vedi at the centre of the womb of nature and the Laws of Divinity. And the earth grows bright and blest as heaven.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How do we know Agni is taught in the second verse.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, learned persons follow or observe the vows of the truthfulness ordained by God who is Embodiment of Truth, vast sky or like the light of the Sun. As the pervasive powers manifest God who is the greatest and the illustrious Source of Truth present in the Matter giving strength to all for growth, earth, water, electricity etc. all manifest God's glory, so you should also manifest Him with your noble deeds. A virtuous president of the assembly should also be adored and followed.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(द्यौ:) सूर्यद्युतिः = The light of the sun. (ईम् ) पृथिवीम् = The earth. (सुशिश्विम्) सुष्ठु वर्धकम् = Well augmenter.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As by the light of the sun, all objects become visible, by the association of the learned, God is realised when a man acquires the Vedic knowledge and observes rules of Dharma (righteousness). Electricity and other substances also can be known well in this way with all their attributes and actions.
Subject of the mantra
Now what is the physical fire like, this subject has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yat)=That, (vātajūtaḥ)=got speed from air, (agniḥ)=famous purifying fire, (vanāni) =to forests, (dāti) =destroys and, (pṛthivyāḥ) =in the earth, (ha) =certainly, (romāṇi)= the water, food grains and herbs, (dāti) =destroys, (saḥ) =that, (sindhūnām) =in rivers and oceans, (jāmiḥ) =friends who attain happiness and, (svasrām) =of sisters, (bhrāteva) =like brother and, (ibhyān)=able to control elephants, (rājā) =of king, (na) =like, (vi)=in various ways, (asthāt) =is situated, (vanāni) =to forests, (vi) =in various ways, (atti) =devours the in various ways, that is, destroys them.
English Translation (K.K.V.)
The famous purifying fire, which has attained velocity from the air, destroys the forests and certainly destroys the water, food grains and herbs in the land. He is situated in various ways, in rivers or seas, like a brother to brothers and sisters who enjoy happiness, and like a king who is able to control elephants. Devours the forests in various ways, that is, destroys them.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as figurative in two places in this mantra. It should be known that when humans use properly fire with the air for driving vehicles etc., then it accomplishes many tasks.
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