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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 65/ मन्त्र 7
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - द्विपदा विराट् स्वरः - पञ्चमः

    जा॒मिः सिन्धू॑नां॒ भ्राते॑व॒ स्वस्रा॒मिभ्या॒न्न राजा॒ वना॑न्यत्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जा॒मिः । सिन्धू॑नाम् । भ्राता॑ऽइव । स्वस्रा॑म् । इभ्या॑न् । न । राजा॑ । वना॑नि । अ॒त्ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जामिः सिन्धूनां भ्रातेव स्वस्रामिभ्यान्न राजा वनान्यत्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जामिः। सिन्धूनाम्। भ्राताऽइव। स्वस्राम्। इभ्यान्। न। राजा। वनानि। अत्ति ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 65; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 7
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्भौतिकोऽग्निः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    यद्यो वातजूतोऽग्निर्वनानि दाति छिनत्ति पृथिव्या ह किल रोमाणि दाति छिनत्ति स सिन्धूनां जामिः। स्वस्रां भगिनीनां भ्रातेवेभ्यान् राजानेव व्यस्थात् वनानि व्यत्ति ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (जामिः) सुखप्रापको बन्धुः (सिन्धूनाम्) नदीनां समुद्राणां वा (भ्रातेव) सनाभिरिव (स्वस्राम्) स्वसॄणां भगिनीनाम्। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति नुडभावः। (इभ्यान्) य इभान् हस्तिनो नियन्तुमर्हन्ति तान् (न) इव (राजा) नृपः (वनानि) अरण्यानि (अत्ति) भक्षयति (यत्) यः (वातजूतः) वायुना वेगं प्राप्तः (वना) वनानि जङ्गलानि (वि) विविधार्थे (अस्थात्) तिष्ठति (अग्निः) प्रसिद्धः पावकः (ह) किल (दाति) छिनत्ति (रोमा) रोमाण्योषध्यादीनि (पृथिव्याः) भूमेः ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्र द्वावुपमालङ्कारौ। यदा मनुष्यैर्यानचालनादिकार्य्येषु वायुसंप्रयुक्तोऽग्निश्चाल्यते, तदा स बहूनि कार्य्याणि साधयतीति बोद्धव्यम् ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    अब भौतिक अग्नि कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    (यत्) जो (वातजूतः) वायु से वेग को प्राप्त हुआ (अग्निः) अग्नि (वना) वनों का (दाति) छेदन करता तथा (पृथिव्याः) पृथिवी के (ह) निश्चय करके (रोमा) रोमों के समान छेदन करता है, वह (सिन्धूनाम्) समुद्र और नदियों के (जामिः) सुख प्राप्त करानेवाला बन्धु (स्वस्राम्) बहिनों के (भ्रातेव) भाई के समान तथा (इभ्यान्) हाथियों की रक्षा करनेवाले पीलवानों को (राजेव) राजा के समान (व्यस्थात्) स्थित होता और (वनानि) वनों को (व्यत्ति) अनेक प्रकार भक्षण करता है ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। जब मनुष्य लोग यानचालन आदि कार्यों में वायु से संयुक्त किये हुए अग्नि को चलाते हैं, तब वह बहुत कार्यों को सिद्ध करता है, ऐसा सब मनुष्यों को जानना चाहिये ॥ ४ ॥

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    विषय

    प्रभु का वरण करनेवाला

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र की समाप्ति पर कहा गया था कि कोई विरला व्यक्ति ही उस प्रभु का वरण करता है, उसी का चित्रण प्रस्तुत मन्त्र में करते हैं - यह प्रभु का वरण करनेवाला (सिन्धूनां जामिः) = स्यन्दनशील जलों का बन्धु होता है, अर्थात् यह भी जलों की भांति स्वाभाविक गतिवाला होता है अथवा शरीर में रेतः रूप में रहनेवाला जलों का यह अपने में प्रादुर्भाव करनेवाला होता है । २. (स्वस्रां भ्राता इव) = यह इस लोक में बहिनों के लिए भाई के समान होता है । जिस प्रकार भाई बहिन को कुछ देता ही है, उसका कुछ छीनने का स्वप्न नहीं लेता, उसी प्रकार यह औरों का कुछ सहायक ही होता है, औरों के धन को छीननेवाला नहीं होता । ३. (न) = जैसे (राजा) = राजा (इभ्यान्) = [भियं यन्ति] शत्रुओं को (अत्ति) = समूल नष्ट करता है, इसी प्रकार यह कामादि अन्तः शत्रुओं को नष्ट करनेवाला होता है । ४. यह (वनानि) = वानस्पतिक पदार्थों को ही (अत्ति) = खाता है, अर्थात् मांसभोज से सदा दूर रहता है । ५. (यत्) = जब (वातजूतः) = वायु से प्रेरणा प्राप्त हुआ - हुआ, अर्थात् वायु की भाँति निरन्तर गति करता हुआ (वना) = [वन संभक्तौ] उपासना में (व्यस्थात्) = विशेषरूप से स्थित होता है, अर्थात् प्रभु का उपासक होता हुआ कर्मों में लगा रहता है । ६. यह (अग्निः) = निरन्तर आगे बढ़नेवाला जीव (पृथिव्याः) = पृथिवी के रोम - रोमतुल्य ओषधि - वनस्पतियों को (ह) = ही (दाति) = काटता है, इन्हें ही अपना भोज्य पदार्थ समझता है । इन ओषधियों को भी मूल से हिंसित नहीं करता “ओषध्यास्ते मूलं मा हिं” । इस प्रकार करुणात्मक स्वभाववाला व्यक्ति ही प्रभु का प्रिय होता है । प्रभु का प्रिय बनने के लिए इसने इस प्रकार अपने जीवन को सुन्दर बनाया है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का वरण करनेवाला [क] जलप्रवाह की भाँति गतिशील होता है, [ख] सबका भला करता है, किसी का कुछ छीनता नहीं, [ग] कामादि शत्रुओं को नष्ट करता है, [घ] वानस्पतिक भोजन करता है, [ङ] वायु के समान कर्मशील होता है, [च] निष्कामभाव से प्रभु की उपासना करता है [उपासते पुरुषं ये ह्यकामास्ते शुक्रमेतदतिवर्तन्ति धीराः] ।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    It is a friend of the seas, dear as a brother of his sisters. It rules over the wealthy as over its attendants, and devours the forests. Driven by the winds, it abides in the waters, clouds and the sunbeams. And it is only Agni which matures and harvests the grasses and herbs of the earth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is material fire is taught in the 7th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    When excited by the Wind, again (fire) consumes the forest and shears the hairs of the earth i. e. herbs and plants etc. Agni is the kind kinsman of the flowing waters, as brother is to his sisters. As a king punishes his wicked Mahauts or destroys his enemies, agni traverses the woods and eats them up.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (जामिः) सुखप्रापको बन्धुः = A kinsman conferring happiness. (रोमा) रोमाणि ओषध्यादीनि । = The hair of the earth i. e. herbs and plants etc.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There are two similes used in the Mantra. When men use the fire excited by the wind in the works of transportation and driving various vehicles and engines etc. it can accomplish many works. This is what men should know well.

    Translator's Notes

    Agni (material fire) has been called kinsman of the waters as they are produced by it, as is also stated in the Taittiriyopanishad. वायोरग्निः- अग्नेरापः (इभ्यान्) य इमान् हस्तिनो नियन्तुमर्हन्ति ते Rishi Dayananda has interpreted the word, Ibhya in the sense of the Mahauts or the drivers of the elephants-evidently wicked Mahauts who deserve punishment at the hands of the King.

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