ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 97/ मन्त्र 16
ऋषिः - भिषगाथर्वणः
देवता - औषधीस्तुतिः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
मु॒ञ्चन्तु॑ मा शप॒थ्या॒३॒॑दथो॑ वरु॒ण्या॑दु॒त । अथो॑ य॒मस्य॒ पड्बी॑शा॒त्सर्व॑स्माद्देवकिल्बि॒षात् ॥
स्वर सहित पद पाठमु॒ञ्चन्तु॑ । मा॒ । श॒प॒थ्या॑त् । अथो॒ इति॑ । व॒रु॒ण्या॑त् । उ॒त । अथो॒ इति॑ । य॒मस्य॑ । पड्बी॑शात् । सर्व॑स्मात् । दे॒व॒ऽकि॒ल्बि॒षात् ॥
स्वर रहित मन्त्र
मुञ्चन्तु मा शपथ्या३दथो वरुण्यादुत । अथो यमस्य पड्बीशात्सर्वस्माद्देवकिल्बिषात् ॥
स्वर रहित पद पाठमुञ्चन्तु । मा । शपथ्यात् । अथो इति । वरुण्यात् । उत । अथो इति । यमस्य । पड्बीशात् । सर्वस्मात् । देवऽकिल्बिषात् ॥ १०.९७.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 97; मन्त्र » 16
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(शपथ्यात्) हमारे द्वारा अन्य के प्रति अपशब्दकथन से मानसिक रोग हमारे अन्दर जो हो जावे, उससे (नः) हमें (मुञ्चन्तु) प्रयोग की हुईं ओषधियाँ मुक्त करें (अथ-उ-उत) और भी (वरुण्यात्) वरणीय श्रेष्ठ पुरुषों में किये अपराध से शोकरोग हो जाता है अथवा जलोदर रोग से छुड़ावें (अथ-उ) और भी (यमस्य) वायु के (पड्वीशात्) पादबन्धन गतिस्तम्भरोग से छुड़ावें (सर्वस्मात्) सब (देवकिल्बिषात्) इन्द्रियों द्वारा किये अपराध अतिविषयसेवन से हुए रोग से छुड़ावें ॥१६॥
भावार्थ
किसी को अपशब्द कहने, श्रेष्ठों का अपमान करने, वातरोग से उन्माद, इन्द्रियविषयों के अतिसेवन से विकार व्याकुलता आदि मानसिक रोग भी ओषधियों से दूर किये जाने चाहिये ॥१६॥
विषय
शपथ्य, वरुण्य, यम व पड्वीश
पदार्थ
[१] ये ओषधियाँ (मा) = मुझे (शपथ्यात्) = [शप आक्रोशे] आक्रोश के जनक रोगों से, उन पैत्तिक विकारों से जिनसे कि पीड़ित हुआ हुआ मनुष्य उटपटांग बोलता है, (मुञ्चन्तु) = मुक्त करें। इन ओषधियों के समुचित प्रयोग से मेरा पैत्तिक विकार शान्त हो । [२] (अथ उ) = और अब (वरुण्यात् उत) = वरुण्य रोग से भी ये मुझे मुक्त करें । वरुण जलाधिष्ठातृदेव है । एवं वरुण्य रोग कफजनित रोग हैं। वस्तुतः जलों के अनिष्ट प्रयोग से ही प्रायः इनकी उत्पत्ति होती है । [३] (अथ उ) = अब निश्चय से (यमस्य पड्वीशात्) = [अयं वै यमः योऽयंपवते] इस सबका नियन्त्रण करनेवाली वायु के पादबन्धन से भी ये ओषधियाँ मुझे मुक्त करें । वात विकार होने पर पाँव आदि जकड़े से जाते हैं। गठिया आदि रोगों में मनुष्य के पैरों में बेड़ी-सी पड़ जाती है। इस पादबन्धन से ये ओषधियाँ मुझे मुक्त करें। [४] (सर्वस्मात्) = सब (देवकिल्विषात्) = आँख, कान, नाक, मुख आदि देवों में होनेवाले दोषों से ये ओषधियाँ हमें छुड़ायें। ये सब इन्द्रियाँ देव हैं, नेत्र 'सूर्य' है, श्रोत्र 'दिशाएँ' हैं, वाणी 'अग्नि' है ।
भावार्थ
भावार्थ - इस प्रकार इन सब देवों में उत्पन्न हो जानेवाली न्यूनताओं को ये औषध दूर करें ।
विषय
रोगों के विकट लक्षणों से मोचक ओषधियां का प्रयोग।
भावार्थ
(मा शपथ्यात् एनसः मुञ्चन्तु) मुझे शपथ अर्थात् जिस रोग में मनुष्य बके, उलटा सुलटा कहे, ऐसे बकने वाले रोग से मुक्त करें। (अथो वरुण्यात् उत मुञ्चन्तु) और ओषधियां मुझे वरुण = जल की प्यास वाले या अपान के विकार से या वरुण अर्थात् रात्रिकाल में बढ़ने वाले रोग से मुक्त करें। (अथो यमस्य पड्वीशात्) और वे यम, अर्थात् समस्त देह को बांधने या जकड़ देने वाले रोग के पैरों को बांधने वाले दुष्ट भाव से मुक्त करें। वह रोग जो पैरों में जकड़ उत्पन्न करे ‘यम का पड्वीश’ है। और वे ओषधियां (सर्वस्मात् देव- किल्विषात्) सब प्रकार के दिव्य पदार्थों के योग से उत्पन्न रोग से मुक्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—२३ भिषगाथर्वणः। देवता—ओषधीस्तुतिः॥ छन्दः –१, २, ४—७, ११, १७ अनुष्टुप्। ३, ९, १२, २२, २३ निचृदनुष्टुप् ॥ ८, १०, १३—१६, १८—२१ विराडनुष्टुप्॥ त्रयोविंशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(शपथ्यात्) अन्यं प्रतिक्रोशादस्मासु यो मानसिकरोगो जायते तस्मात् (नः) अस्मान् (मुञ्चन्तु) प्रयुक्ता ओषधयो मोचयन्तु (अथ-उ-उत) अथापि हि (वरुण्यात्) वरुणेषु वरणीयेषु श्रेष्ठेषु कृतापराधाच्छोकरोगो जायते तस्माद् यद्वा जलोदररोगान्मोचयन्तु (अथ-उ) अथापि (यमस्य) वायोः (पड्वीशात्) पादबन्धनाद् गतिस्तम्भनान्मोचयन्तु (सर्वस्माद् देवकिल्बिषात्) सर्वस्मादिन्द्रियकृतापराधादतिविषयसेवनान्मोचयन्तु ॥१६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let them deliver me from ailments caused by curses and imprecations, dampness and stagnant waters, stiffness of joints and the whole body, and those coming from disturbance and depression of mind and senses.
मराठी (1)
भावार्थ
कुणाला अपशब्द बोलणे, श्रेष्ठांचा अपमान करणे, वातरोगाने उन्माद, इंद्रिय विषयाचे अति सेवन करण्याने विकार, व्याकूळता इत्यादी मानसिक रोगही औषधींनी दूर केले पाहिजेत. ॥१६॥
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