ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
सास्मा॒ अरं॑ प्रथ॒मं स द्वि॒तीय॑मु॒तो तृ॒तीयं॒ मनु॑षः॒ स होता॑। अ॒न्यस्या॒ गर्भ॑म॒न्य ऊं॑ जनन्त॒ सो अ॒न्येभिः॑ सचते॒ जेन्यो॒ वृषा॑॥
स्वर सहित पद पाठसः । अ॒स्मै॒ । अर॑म् । प्र॒थ॒मम् । सः । द्वि॒तीय॑म् । उ॒तो इति॑ । तृ॒तीय॑म् । मनु॑षः । सः । होता॑ । अ॒न्यस्याः॑ । गर्भ॑म् । अ॒न्ये । ऊँ॒ इति॑ । ज॒न॒न्त॒ । सः । अ॒न्येभिः॑ । स॒च॒ते॒ । जेन्यः॑ । वृषा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सास्मा अरं प्रथमं स द्वितीयमुतो तृतीयं मनुषः स होता। अन्यस्या गर्भमन्य ऊं जनन्त सो अन्येभिः सचते जेन्यो वृषा॥
स्वर रहित पद पाठसः। अस्मै। अरम्। प्रथमम्। सः। द्वितीयम्। उतो इति। तृतीयम्। मनुषः। सः। होता। अन्यस्याः। गर्भम्। अन्ये। ऊँ इति। जनन्त। सः। अन्येभिः। सचते। जेन्यः। वृषा॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्य सोऽस्मै प्रथमं स द्वितीयमुतो तृतीयं सचते स मनुषो होता स जेन्यो वृषा सन्नन्यस्या गर्भमरं सचते तमू अन्येभिरन्ये जनन्त ॥२॥
पदार्थः
(सः) रथः (अस्मे) स्वामिने (अरम्) पर्य्याप्तम् (प्रथमम्) आदिमं पृथिव्यां गमनम् (सः) (द्वितीयम्) जले गमनम् (उतो) अपि (तृतीयम्) अन्तरिक्षे गमनम् (मनुषः) मनुष्यजातस्य पदार्थसमूहस्य (सः) (होता) सुखप्रदाता (अन्यस्याः) गतेः (गर्भम्) ग्रहणम् (अन्ये) अपरे विद्वांसः (ऊँ) वितर्के (सः) (जनन्त) (अन्येभिः) विद्वद्भिस्सह (सचते) समवैति (जेन्यः) जापयितुं शीलः (वृषा) बलिष्ठः ॥२॥
भावार्थः
विद्वांसो यदि विद्युदादिरूपमग्निं यानेषु संप्रयुञ्जते तर्ह्ययं सर्वाणि यानानि सर्वागतीर्गमयति विजयहेतुश्च भवति ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है
पदार्थ
हे मनुष्य ! (सः) वह रथयान गमन साधन (अस्मै) इस स्वामी के लिये कि जो बनानेवाला है (प्रथमम्) पहिले अर्थात् पृथिवी में गमन (सः) वह (द्वितीयम्) दूसरे जल में गमन (उतो) और (तृतीयम्) तीसरे अन्तरिक्ष में गमन को सम्बद्ध करता मिलाता है तथा (सः) वह (मनुषः) मनुष्यों से उत्पन्न हुए सर्व पदार्थ का (होता) सुख देनेवाला (सः) वह (जेन्यः) विजय करानेवाला और (वृषा) अत्यन्त बलयुक्त होता हुआ (अन्यस्याः) दूसरी गति का (गर्भम्) ग्रहण (अरम्) पूर्ण (सचते) सम्बद्ध करता है (ऊँ) उसी को (अन्येभिः) और विद्वानों के साथ (अन्ये) और विद्वान् (जनन्त) उत्पन्न करें ॥२॥
भावार्थ
विद्वान् जन यदि बिजली रूप अग्नि को रथों में अच्छे प्रकार युक्त करें, तो यह समस्त यानों को सब गतियों से चलाता और विजय का हेतु होता है ॥२॥
विषय
एक सौ सोलह वर्ष तक चलनेवाला रथ
पदार्थ
१. (सः) = गत मन्त्र में वर्णित शरीर रूप रथ (अस्मै) = इस स्वाध्याय व यज्ञ में प्रवृत्त रहनेवाले पुरुष के लिए (प्रथमं अरम्) = जीवन के २४ वर्षों से बने प्रातः सवन में पर्याप्त होता है । (सः) = वह रथ (द्वितीयम्) = जीवन के अगले ४४ वर्षों से बने माध्यन्दिन सवन में पर्याप्त होता है। (उत उ) = और निश्चय से (तृतीयम्) = तृतीय सवन के अन्तिम ४८ वर्षों के लिए भी समर्थ होता है। (सः) = रथ (मनुषः) = विचारशील पुरुष के लिए (होता) = सब इष्टों को प्राप्त करानेवाला होता है । २. इन शरीर रथों का निर्माण बड़े विचित्र प्रकार से होता है। स्त्रीशरीर में पुरुष अपने बीज से इसे उत्पन्न करते हैं। यह शरीररथ किसी अन्य जीव से अधिष्ठित होता है। (अन्यस्याः गर्भम्) = किसी एक स्त्री के गर्भरूप इस रथ को (अन्ये उ) = और लोग भी (जनन्त) = उत्पन्न करते हैं। (सः) = वह शरीररथ (अन्येभिः) = अन्य ही जीवों से (सचते) = समवेत [युक्त] होता है। किसी दूसरे ही जीव का यह भोगाधिष्ठान बनता है। 'इस शरीररथ को कोई पैदा करता है किसी में यह पैदा होता है और किसी के भोग का यह आयतन बनता है' यह सब विचित्र ही है। यह शरीररथ (जेन्यः) = विजयशील होता है- सब विघ्नों से हमें पार करता हुआ विजयी बनाता है । (वृषा) = हमारे पर सुखों का वर्षण करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ - यह शरीर रथ सामान्यतः ११६ वर्षों तक चलता है - यह विजयशील व सुखवर्षक है।
विषय
सूर्यवत् जीवात्मा का वर्णन-परमेश्वर वर्णन ।
भावार्थ
( सः ) वह रथ जिस प्रकार ( प्रथमं द्वितीयं तृतीयं अरं सचते ) पहले, दूसरे और तीसरे स्थल, जल और वायु तीनों में अच्छी प्रकार जाने में समर्थ हो, वह ( मनुषः होता ) मनुष्यों के, सभी सुख धैर्य देता, उस रथ को ( अन्ये उ जनन्त ) कोई और पैदा करते हैं ( अन्यस्याः गर्भम् ) वह किसी और ही काष्ठ आदि प्रकृति के बीच में रहता है और यह (अन्येभिः) सारथि आदि अन्यों से (सचते) संचालितः होता है। इसी प्रकार ( सः ) वह प्रभु परमेश्वर ( प्रथमं द्वितीयम्, उतो तृतीयं ) पहले, दूसरे और तीसरे, भूमि, अन्तरिक्ष और द्यौः तीनों में (अरं सचते ) खूब समवेत है । वह (मनुषः) मननशील एवम् मनुष्यों के हितार्थों का देने वाला है । ( जेन्यः ) सब से उत्कृष्ट, ( वृषा ) सब से अधिक बलवान् अपने बलवीर्य को अन्यों में भी संक्रमित करने वाला, होकर ( अन्यस्याः ) अपने से भिन्न प्रकृति के ( गर्भम् ) गर्भ, हिरण्यगर्भ या ब्रह्माण्ड आदि विकारों को ( सचते ) उत्पन्न करता, धारण करता है, ( अन्ये उ ) इस संसार को फिर अन्य उस परमेश्वर से भिन्न महत् आदि एवं पृथ्वी आदि प्रकृति विकृति पदार्थ ही ( जनन्त ) प्रकट करते हैं और वह परमेश्वर (अन्येभिः) अपने से भिन्न उपासक जीवों से ( सचते ) साक्षात् प्राप्त किया जाता है । ( ३ ) राजा, मानुष ऐश्वर्यो का देने वाला है। पहले दूसरे, तीसरे, उत्तम, मध्यम, अधम तीनों प्रकार के राष्ट्रों के लिये पर्याप्त हो, वह विजयशील और बलवान् ( अन्यस्याः अन्यस्य वा ) शत्रु की भूमि का ग्रहण, (अन्ये) और ही वीर भट करते हैं वह राजा ( अन्येभिः ) अन्य मित्र राजाओं से मिल जाता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ४, ८ भुरिक् पङ्क्तिः । ५, ६ स्वराट् पङ्क्तिः । ७ निचृत् पङ्क्तिः २, ३, ९ त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वान लोक जर विद्युतरूपी अग्नीला वाहनांमध्ये चांगल्याप्रकारे युक्त करतील तर तो अग्नी संपूर्ण वाहने सर्व प्रकारच्या गतीने चालवितो व विजय प्राप्त करून देऊ शकतो. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That chariot is perfectly suitable and comfortable for this lord Indra, creator and ruler of power. Harbinger of knowledge, comfort and power for humanity, it covers the first stage of the earth, second stage of the sky, and the third stage of space. The product of one is taken over by others who move it further so that, victorious and highly productive, it joins with the other heavenly bodies.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Again the qualities of transport are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A technologists first builds a transport to travel on earth, second in the water and the third capable to run in the sky. O person ! such technologists imparts happiness, triumph and make powerful. It connects or regulates such movements in the water (ocean) with thoroughness. Likewise, they should train more people to multiply the number of more technologists.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If the learned people apply energy properly in their transport/conveyances, than the movement is smooth and brings victory to them.
Foot Notes
(अस्मै ) स्वामिने |= For the owner. (अरम्) पर्याप्तम् = Sufficient or adequate (प्रथमम् ) आदिमं पृथिव्यां गमनम् । = Conveyance/ transport useful on earth. (द्वितीयम् ) जले गमनम् = The transport in the waterways. ( तृतीयम् ) अन्तरिक्षे गमनम् = Flying in the sky (मनुष:) मनुष्यजातस्य पदार्थसमूहस्य = For all the human beings. (सचते) समवैति। = Associated. (जेन्य:) जापयितुं शील: = Taking to the path of victory.
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