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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 18/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    आशी॒त्या न॑व॒त्या या॑ह्य॒र्वाङा श॒तेन॒ हरि॑भिरु॒ह्यमा॑नः। अ॒यं हि ते॑ शु॒नहो॑त्रेषु॒ सोम॒ इन्द्र॑ त्वा॒या परि॑षिक्तो॒ मदा॑य॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒शी॒त्या । न॒व॒त्या । या॒हि॒ । अ॒र्वाङ् । आ । श॒तेन॑ । हरि॑ऽभिः । उ॒ह्यमा॑नः । अ॒यम् । हि । ते॒ । शु॒नऽहो॑त्रेषु । सोमः॑ । इन्द्र॑ । त्वा॒ऽया । परि॑ऽसिक्तः । मदा॑य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आशीत्या नवत्या याह्यर्वाङा शतेन हरिभिरुह्यमानः। अयं हि ते शुनहोत्रेषु सोम इन्द्र त्वाया परिषिक्तो मदाय॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। अशीत्या। नवत्या। याहि। अर्वाङ्। आ। शतेन। हरिऽभिः। उह्यमानः। अयम्। हि। ते। शुनऽहोत्रेषु। सोमः। इन्द्र। त्वाऽया। परिऽसिक्तः। मदाय॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 18; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र ते तव त्वाया योऽयं शुनहोत्रेषु मदाय सोमः परिसिक्तोऽस्ति तं हि त्वमर्वाङ् सन्नशीत्या नवत्या हरिभिर्युक्तेन यानेनोह्यमानो याहि शतेन मदाय चायाहि ॥६॥

    पदार्थः

    (आ) (अशीत्या) (नवत्या) (याहि) (अर्वाङ्) (आ) (शतेन) (हरिभिः) (उह्यमानः) गम्यमानः (अयम्) (हि) (ते) तव (शुनहोत्रेषु) शुनं सुखं जुह्वति ददति तेषु शुनमिति सुखनाम निघं० ३। ६। (सोमः) ओषधिगणः (इन्द्र) दुःखविदारक (त्वाया) त्वत् कामनया (परिषिक्तः) परितः सर्वतोऽन्यैरुत्तमैर्द्रव्यैः सिक्तः (मदाय) आनन्दाय ॥६॥

    भावार्थः

    य ओषधीसेवनसुपथ्याभ्यां रोगराहित्येनानन्दिताः सन्तः शतविधानि यानानि यन्त्राणि च निर्मिमते त अध ऊर्ध्वं गन्तुं शक्नुवन्ति ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) दुःख विदीर्ण करनेवाले (ते) आपके (त्वाया) आपकी कामना से जो (अयम्) यह (शुनहोत्रेषु) सुख देनेवाले कलाघरों में (परिषिक्तः) सब ओर से उत्तम पदार्थों से सींचा हुआ है (हि) उसीको आप (अर्वाङ्) नीचे जाते हुए (अशीत्या) अस्सी (नवत्या) नब्बे (हरिभिः) हरणशील पदार्थों से युक्त यानसे (उह्यमानः) चलाये जाते हुए (आ) आओ (शतेन) सौ पदार्थों से युक्त रथसे (मदाय) आनन्द के लिये (आ,याहि) आओ ॥६॥

    भावार्थ

    जो ओषधियों के सेवन और सुन्दर पथ्य से नीरोगता से आनन्दित होते हुए सौ प्रकार के यानों और यन्त्रों को बनाते हैं, वे नीचे-ऊपर जा सकते हैं ॥६॥

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    विषय

    सौवें वर्ष से और देर में नहीं

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (हरिभिः उह्यमानः) = इन्द्रियाश्वों से आगे ले जाया जाता हुआ तू (आशीत्या) = अस्सीवें वर्ष के अन्त तक तो (अर्वाङ् आयाहि) = अन्दर की ओर हमारे समीप आ ही जा । (नवत्या) = नव्वे वर्ष के अन्त में तो आ हमारे समीप आनेवाला बन ही जा । (शतेन आ) = सौवें वर्ष में तो अवश्य आ ही जा। इसके बाद तो फिर पता नहीं इस साधना का अवसर कब प्राप्त हो । 'इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति नचेदिहावेदीन्महती (विनष्टि:) । २. हे इन्द्र ! (अयं सोमः) = यह सोम (त्वाया) = तेरे हित की कामना से (ते) = तेरे शुनहोत्रेषु सुखकर होत्रोंवाले इन शरीररूप पात्रों में (हि) = निश्चय से (परिषिक्तः) = सिक्त किया गया है। यह सोम मदाय तेरे उल्लास के लिए हो । जिस शरीर से स्वार्थत्यागवाले कर्म किये जाएँ, वह शरीर 'शुनहोत्र' कहलाता है। इन शरीरों में सोम का रक्षण किया जाए तो जीवन उल्लासमय बना रहता है और अन्ततः हम प्रभु को पानेवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- मनुष्य सौवें वर्ष में भी साधना में सफल होकर प्रभुप्रवण हो गया तो भी उसका कल्याण ही होगा। प्रभुप्रवण होकर वह सोम को शरीर में सिक्त करके सशक्त व सोल्लास बनता है।

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    विषय

    सूर्यवत् जीवात्मा का वर्णन-परमेश्वर वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्यवन् ! (अशीत्या, नवत्या, शतेन ) ८०, ९०, १०० (हरिभिः) घोड़ों या तीव्र बुद्धिमान् विद्वानों से ( ऊह्यमानः ) अपने ऊपर धारण किया जाकर तू ( अर्वाङ् ) हमें साक्षात् प्राप्त हो । अर्थात् इतने २ वीरों घुड़सवारों या विद्वानों का नायक होकर अपने अभिमत देश को जा । ( अयं हि सोमः ) यह सोम, ऐश्वर्य तो तेरे अधीन ( शुन होत्रेषु ) सुख देनेवाले स्थानों और कार्यों में ( त्वाया ) तेरी ही कामना से ( मदाय ) तेरे ही हर्ष और आनन्द लाभ के लिये जलों से अन्नप्रद क्षेत्रों में ओषधिगण के समान ( परिसिक्तः ) परीसेचन किया गया है, बढ़ाया गया है । ( २ ) ८०, ९० १०० इत्यादि नाना संख्या में ( हरिभिः ) किरणों से सूर्य के समान दुःखहारी सुखदायक साधनों से या जीवन के वर्षों से धारण किया जाता हुआ आत्मा आगे बढ़े । (अयं सोमः) आनन्द रस सुखोत्पादक प्राणों में उसी की इच्छानुसार अति हर्ष लाभ के लिये परिसेचित या परिवर्धित हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ४, ८ भुरिक् पङ्क्तिः । ५, ६ स्वराट् पङ्क्तिः । ७ निचृत् पङ्क्तिः २, ३, ९ त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे औषधांच्या सेवनाने व सुंदर पथ्याने निरोगी राहून आनंदित होतात व शंभर प्रकारच्या यानांना व यंत्रांना तयार करतात ते खाली-वर जाऊ शकतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, come hither conducted by a chariot of eighty, ninety and a hundred horse power. Here is this soma distilled and sanctified for your pleasure in the auspicious programmes of yajna of your choice.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of transport is further elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wise men ! you shake off miseries our Desirous of your company, we request you to reach us in the powerful transport being driven by eighty, ninety or even one hundred (horse) powers. You come down to our pleasant theatres and have fine extracted juices there.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who take the regular health-giving and rich diet and drink the juices of herbal plants, and also manufacture hundred types of conveyances and equipment, they can move up and down conveniently.

    Foot Notes

    (उह्यमानः ) गम्यमानः । = Moving or covering a distance. (शुनहोत्रेषु ) शुनं सुखं जुह्वति ददति, तेषु शुनमिति सुखनाम (N. G. 3-6)। = 1=Comfortable theatrical hall. (सोम:) औषधिगणः । = Herbal plants. (त्वायाः) त्वत् कामनया । = With your desire. (परिषिक्तः) परितः सर्वतो ऽन्यैरुत्तमैद्रव्यैः सिक्तः = Extracted from fine substances.

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