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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 18/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    मम॒ ब्रह्मे॑न्द्र या॒ह्यच्छा॒ विश्वा॒ हरी॑ धु॒रि धि॑ष्वा॒ रथ॑स्य। पु॒रु॒त्रा हि वि॒हव्यो॑ ब॒भूथा॒स्मिञ्छू॑र॒ सव॑ने मादयस्व॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मम॑ । ब्रह्म॑ । इ॒न्द्र॒ । या॒हि॒ । अच्छ॑ । विश्वा॑ । हरी॒ इति॑ । धु॒रि । धि॒ष्व॒ । रथ॑स्य । पु॒रु॒ऽत्रा । हि । वि॒ऽहव्यः॑ । ब॒भूथ॑ । अ॒स्मिन् । शू॒र॒ । सव॑ने । मा॒द॒य॒स्व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मम ब्रह्मेन्द्र याह्यच्छा विश्वा हरी धुरि धिष्वा रथस्य। पुरुत्रा हि विहव्यो बभूथास्मिञ्छूर सवने मादयस्व॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मम। ब्रह्म। इन्द्र। याहि। अच्छ। विश्वा। हरी इति। धुरि। धिष्व। रथस्य। पुरुऽत्रा। हि। विऽहव्यः। बभूथ। अस्मिन्। शूर। सवने। मादयस्व॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 18; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पदार्थविषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र त्वं मम ब्रह्म याहि यो रथस्य धुरि हरी स्तस्ताभ्यां यानं धिष्व तेन पुरुत्रा विश्वा धनान्यच्छायाहि हे शूर अस्मिन् सवने विहव्यस्त्वं बभूथ अस्मान् हि मादयस्व ॥७॥

    पदार्थः

    (मम) (ब्रह्म) धनम् (इन्द्र) धनमिच्छुक (याहि) प्राप्नुहि (अच्छ) सग्यग्गत्या। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः (विश्वा) सर्वाणि (हरी) धारणाकर्षणौ (धुरि) धारकेऽवयवे (धिष्व)। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः (रथस्य) यानसमूहस्य (पुरुत्रा) पुरूणि बहूनि (हि) खलु (विहव्यः) विहोतुमर्हः (बभूथ) भव (अस्मिन्) (शूर) निर्भय (सवने) ऐश्वर्ये (मादयस्व) आनन्दयस्व ॥७॥

    भावार्थः

    सर्वैः सज्जनैः सर्वान् प्रत्येवं वाच्यं येऽस्माकं पदार्थास्सन्ति ते युष्मत्सुखाय सन्तु यथा यूयमस्मानानन्दयध्वं तथा वयं युष्मानानन्दयेम ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पदार्थों के विषय में अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) धन की इच्छा करनेवाले आप (मम) मेरे (ब्रह्म) धनको (याहि) प्राप्त होओ जो (रथस्य) यानसमूह के (धुरि) धारण करनेवाले अङ्ग में अर्थात् धुरी में (हरी) धारण और आकर्षण खींचने का गुण जिनमें है उन दोनों से यान रथादि को (धिष्व) धारण करो उससे (पुरुत्रा) बहुत (विश्वा) समस्त धनों को (अच्छ, याहि) उत्तम गति से आओ, प्राप्त होओ हे (शूर) निर्भय (अस्मिन्) इस (सवने) ऐश्वर्य के निमित्त (विहव्यः) विविध प्रकार ग्रहण करने योग्य आप (बभूथ) होओ और हम लोगों को (हि) ही (मादयस्व) आनन्दित कीजिये ॥७॥

    भावार्थ

    सब सज्जनों को सबके प्रति ऐसा कहना चाहिये कि जो हमारे पदार्थ हैं, वे आपके सुख के लिये हों, जैसे तुम लोग हम लोगों को आनन्दित करो, वैसे हम लोग तुमको आनन्दित करें ॥७॥

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    विषय

    ज्ञान-प्रवणता

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (मम) = मेरे से दिये गये ब्रह्म अच्छा ज्ञान की ओर (याहि) = जानेवाला बन । तू ज्ञान की रुचिवाला हो । (विश्वा) = इन शरीररूप रथ में प्रविष्ट हरी ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय रूप अश्वों को (रथस्य धुरि धिष्वा) = शरीररथ की धुरी में धारण कर । ये तेरे शरीररथ को खींचने में धुरन्धर हों। २. तू (हि) = निश्चय से (पुरुत्रा) = बहुत स्थानों में (विहव्यः) = विशिष्ट पुकारवाला हो। सदा प्रभु का आराधन करनेवाला बन । तेरा प्रत्येक कार्य प्रभु आराधन से प्रारम्भ हो और शूर हे शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले इन्द्र! तू (अस्मिन् सवने) = इस उत्पन्न जगत् में अथवा सोम के सम्पादन में [स्तवन] (मादयस्व) = आनन्द का अनुभव कर।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ज्ञानरुचिवाले बनें । इन्द्रियों को कर्मव्याप्त रखें। सदा प्रभु का स्मरण करें और सोम का सम्पादन करते हुए आनन्दित हों।

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    विषय

    विद्वान् और वीर का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) राजन् ! हे विद्वन् ! तू (मम) मेरे मुझ राष्ट्र तू के ( ब्रह्म ) शक्तिवर्धक धन को (अच्छ याहि) स्वतः प्राप्त कर और ( विश्वा ) विविध गतियों से जानेवाले ( हरी ) दो २ अश्वों को ( रथस्य धुरि ) रथ के धुरा अर्थात् धारनेवाले युग भाग में ( धिष्व ) लगा । तू ( पुरुत्र ) बहुत से स्थानों में बहुतों द्वारा (विहव्यः) विविध पदार्थों के देने और लेनेहारा, विविध प्रकार से मान आदर द्वारा सत्कार करने योग्य ( बभूथ ) हो । और ( अस्मिन् ) इस ( सवने ) ऐश्वर्य में या शासन के पद पर हे (शूर) वीरपुरुष ! तू (मादयस्व) स्वयं प्रसन्न हो और अन्यों को आनन्दित कर । ( परमेश्वर ) हमारे ( ब्रह्म ) स्तुतियों को स्वीकार ) कर । ( रथस्य ) रमण करने योग्य आनन्द के (धुरि) धारण करने कार्य में ( हरी ) स्त्री पुरुषों को धारण कर नियुक्तकर, सर्वत्र विविध स्तुतियोग्य हों । हे वीर पुरुष तू ( सवने ) ईश्वर भजन में सुख प्राप्त कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ४, ८ भुरिक् पङ्क्तिः । ५, ६ स्वराट् पङ्क्तिः । ७ निचृत् पङ्क्तिः २, ३, ९ त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व सज्जनांनी सर्वांना असे म्हटले पाहिजे की जे आमचे पदार्थ आहेत ते तुमच्या सुखासाठी आहेत. जसे तुम्ही लोक आम्हाला आनंदित करता तसे आम्हीही तुम्हाला आनंदित करावे. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of power and honour, listen well to our song of praise and prayer. Take to the chariot, yoke the circuitous motive energies to the chariot pole and come post haste to receive our homage and yajna fragrance. Be responsive to the invocation and invitation of many, O generous lord, join in this auspicious celebration and rejoice with us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The uses and qualities of transport are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person desirous of wealth ! you come to us and have our fleet of transport which have strong parts and axles. They have nice system of acceleration and brakes to hold up and carry the load.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! you have my wealth and come in a luxurious and powerful conveyance, so that we and you all lead happy life.

    Foot Notes

    (ब्रह्म) धनम् = Wealth. (इन्द्र) धनमिच्छुक = Desirous of wealth. (याहि) प्राप्नुहि = Receive. (अच्छ) सम्यग्गत्या । — With good speed. (धुरि ) धारकेऽवयवे । = In the axle. (धिष्व ) धारय । द्वयचोतस्तिङ्' इति दीर्घ:= Hold. (रथस्य ) यानसमूहस्य = Fleet of transport. (विहृष्यः) विहोतुमर्हः = Acceptable through various ways. (सवने) ऐश्वर्ये = For the prosperity.

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